Sunday, September 30, 2007

रूट नंबर 680



बादल घिर आए थे और इतने गहरे हो गए मानो रात हो आई हो। हल्की-हल्की बूंदे पड़ने लगीं थीं। सड़क की धूल ठंडी हवाओं ने झाड़ दी थी, बस उसकी उमस भरी गंध रह गई थी। राहगीर ते़ज़-तेज़ भागे जा रहे थे। कुछ लोग बस-स्टॉप के शेड के नीचे सिमट आए थे। दिल्ली में दिसंबर महीने में बारिश ने एक बार फिर से दस्तक दी थी। आशीष जैकट में ख़ुद को समेटते हुए ठंड से बचने का असफ़ल प्रयास कर रहा था। आधे घंटे से बस का इंतज़ार करते-करते ठंड ने उसे सिगरेट सुलगाने पर मजबूर कर दिया था। हड्डी तक को जमा देने वाली सर्दी। बारिश ने रुकने से जैसे तौबा कर लिया था। बीच-बीच में पानी के साथ बर्फ़ के छोटे-छोटे टुकड़े गिर कर सड़क को अपनी सफ़ेदी से ढ़क दे रहे थे। शाम में ही रात होने का एहसास हो रहा था। दूर से आ रही एक बस की हेडलाईट ने थोड़ी आस जगाई। लेकिन जल्द ही ये उम्मीद भी जाती रही। कोई लौटती हुई स्कूल बस थी।

बस स्टॉप लगभग खाली हो चुका था। बचे थे सिर्फ़ आशीष और 24-25 बरस की एक लड़की। "आप भी शायद बस का ही इंतज़ार कर रही हैं?" आशीष ने पूछा। "जी हाँ, लेकिन कम्बख़्त आए तब तो।" "हाँ, मैं भी आधे घंटे से इंतज़ार कर रहा हूं। आटो वाले भी गायब हैं।" दोनों के बीच फिर चुप्पी सिमट आई थी। मन बहलाने के लिए आशीष ने फिर पूछा "ऐसे कहाँ जाना है आपको"? "आल इंडिया रेडियो।" "ओके, तब तो आप 680 से जाएँगी।" "हाँ, और आप, मेरा मतलब है आप कहाँ जाएँगे?" लड़की ने पूछा। "जी, मुझे काँफी हाउस जाना है।" "ये कहाँ है?" "कनाट प्लेस में।" "ओह! तब तो हमें एक ही बस मे जाना है।" "जी हाँ, कह सकती हैं कि हम दोनों हमराही हैं," आशीष ने मसखरी की। बातों-बातों में बस आ गई थी। फ्रिक्वेंसी कम होने के कारण काफ़ी भीड़ थी। दोनों बस में सवार हो गए थे। जैसे-तैसे दोनों को अगल-बगल बैठने को मिल गया। बस चल चुकी थी।

सफ़र को आसान करने के लिए दोनों ने आपस मे बातें शुरु कर दी थी। "अच्छा..तो आप करते क्या हैं?", लड़की ने पूछा। "जी, अनइंप्लॉयड हूँ।" "मतलब...अभी पढ़ाई कर रहे हैं, या फिर रिसर्च स्कालर हैं।" "जी नहीं, प्रोफेसनली क्वालीफाईड अनइंप्लॉयड," आशीष ने दो टूक सा जवाब दिया। "एमबीए हैं?" "अरे नहीं, मैं पत्रकारिता में मास्टर्स हूँ।" "फिर तो आपको आसानी से नौकरी मिल जाएगी।" "यही तो त्रासदी है मोहतरमा.....आज कल बिना जैक के नौकरी कहाँ मिलती है। कई संस्थानों में अप्लाई किया, लेकिन सीवी एचआर के जगह हाउस कीपिंग वालों तक ही रह गया।" "आई डोंट एग्री.....आज इतने एवेन्यू खुल गए हैं कि नौकरी की कोई कमी नहीं है," लड़की ने पलटवार किया। "और अब नौकरी करना तो बेवकूफी है, टेलेंट हो तो अपना बिज़नेस करो," लड़की ने आगे कहा। "मैडम, बिज़नेस के लिए पूंजी चाहिए, जो मेरे पास है नहीं। इसलिए नौकरी करना जरूरी है।" "हाँ...तब तो है।" लड़की ने आशीष की बातों से सहमति जताई। आशीष ने आगे कहा "नौकरी ही हमारे युग का सबसे बड़ा ऐडवेंचर है! तीन अक्षर और दो मात्राओं का यह शब्द हम युवाओं के ख़्वाबों की कसौटी है। जो इस कसौटी पर खरा उतरे वह खरा, बाकी सब खोटा।" आशीष के इस जवाब ने लड़की को चुप रहने पर मज़बूर कर दिया था। बारिश रुक गई थी। लड़की ने खिड़की के शीशे को सरका दिया। बाहर की ठंडी हवा अंदर झांकने लगी थी। तर्क-वितर्क ने माहौल को बोझिल बना दिया था। बस इंडिया गेट से आगे निकल आई थी।

संवादहीनता को तोड़ते हुए लड़की ने पूछा "कहाँ से डिग्री ली है आपने?" "जी, कैंपस से," आशीष ने बतलाया। "कैंपस बोले तो?" "जेएनयू....मैंने जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय से पत्रकारिता में मास्टर्स किया है।" "आप बता रही थीं कि आप एआईआर में काम करती हैं। क्या काम है आपका?" "जी मैं आकाशवाणी के एफ एम में रेडियो जौकी हूँ।" "ग्रेट, आपकी आवाज़ से मुझे भी ऐसा आभाष हो रहा था।" "ऐसे, आवाज़ आपकी भी काफ़ी अच्छी है। आप एआईआर में अप्लाई क्यों नहीं करते हैं?" , लड़की ने पूछा। "अरे, छोड़िये भी, आपके तारीफ़ करने से क्या होता है। ऐसे मैंने भी अप्रेल में अप्लाई किया था। वायस टेस्ट में पास हो गया था और इंटरव्यू भी काफ़ी अच्छा हुआ था। लेकिन वह नौकरी मेरी जगह किसी मेघा नाम की लड़की को दे दिया गया। काफ़ी कोशिश करने पर पता चला कि मुझे अप्रेल फूल बना दिया गया। अच्छा...!!! लड़की ने कहा। हाँ और पता नहीं उस मेघा में आकाशवाणी वालों को क्या नज़र आया। कुछ दिनों पहले लेट नाईट प्रोग्राम में उसे सुना भी था। बिल्कुल फटे हुए बाँस की सी आवाज़ थी। और उच्चारण तो इतनी बुरी कि पूछिए ही नहीं। "श" को "स" और "र" को "ड़"। बोलने में हकला भी रही थी। मैं तो कहता हूँ उससे लाख गुणा अच्छी आपकी आवाज़ है। उच्चारण भी बिल्कुल स्पष्ट और कंटेंट भी है आपके पास।" "ऐसा क्या?", लड़की ने पूछा। "हाँ, सच कह रहा हूँ और वह मेघा मिले तो उससे कह दीजिएगा कि जिसकी नौकरी उसने खायी है वह कोई कमज़ोर इंसान नहीं है। स्ट्रगलर है.....लेकिन पैरवी पर कभी नौकरी नहीं करेगा।" "ठीक है बता दूंगी। और कुछ मैसेज़ है उसके लिए," लड़की ने पूछा। "और....और....कुछ नहीं...बस मेरा पैगाम उस तक पहूँचा दीजिएगा। ठीक है।" "पीटीआई आ गया है, हम दोनों को यही उतरना होगा," लड़की ने कहा। बस रुकी और दोनों नीचे उतर गए थे। आपका दफ़्तर तो आ गया है, मैं यहाँ से 605 लेकर कनाट प्लेस निकल जाउँगा। ओके....बाय। तभी आशीष को कुछ याद आया। "अरे सुनिए...सुनिए, अजीब बात है न! हम लोग साथ-साथ आए, इतनी बातें की, लेकिन न आपने मेरा नाम पूछा और न मैंने आपका नाम जाना। ऐसे मेरा नाम आशीष है। आशीष मिश्रा फ्रॉम पटना। और आप?" "जी....माईसेल्फ मेघा सिंह...मी टू फ्राम पटना।" आशीष सुन्न हो गया था। या कहें "हैंग" कर गया। बिल्कुल अपने "चुन्नी बाबू" की तरह......।


अब सवाल है कि इस कहानी से क्या सीख मिलती है? ज़वाब लिखने का तरीका बेहद आसान है। नीचे लिखे केमेंट्स पर क्लिक् करें। अपना संदेश लिखे....फिर अपने ज़ी-मेल आई-डी भरकर पब्लिश क्लिक कर दे। बच गए न 52424 पर एसएमएस करने से.....।

11 comments:

sushant jha said...

bhai mere,berojgari ka bhadas nikalne se pehle toh naam, pata, kul-mool aur gotra pooch liya hota...waise woh ladki kaafi acchi hogi..jisne kam se kam aur bhi koyi message pooch liya...! Maan lo ki tum ne Megha singh ki tareef hi kar di hoti toh ho sakta hai ek abhinab prem kahani ki shuruat ho jaati..toh bhai yaad rakhna prem bus se bhi shuru kiya ja sakta hai...

Unknown said...

PHIR EK BAAR BADHIYA PRAYAS HUA, KATHYA KO TARTAMYA DETE HUE KAHANI KHADI KARNE ME AB AAP SIDHASTH HOTE JA RAHE HAIN. VISHESH BADHAI SULJHE TARIKE SE HUM AAP JAISE LOGON KO KAHANI KE BEECH FRAME KARNE KIYE BHI.
PHIR JALD HI KUCH NAYA PADH PAU..
ISI UMMED KE SAATH
JAGAT

Unknown said...

Bhai aapne Muktibodh jaisi shuruat ki aur ant bhi kuch waisa hi. Beech me Saras Salil kahan se aa gaya. Climax badhiya hai....

Udan Tashtari said...

सन्न तो हम भी रह गये मगर अंत, अंत से चार छः लाईन पहले ही समझ आने लगा था. :)

बढ़िया रहा आपको पढ़ना/ इस कथा से यही सीख मिलती है कि आप आगे जब लिखें, हम पढ़ने आयें. :)

Unknown said...

कहानी का मोरल यह है कि बिना जाने बूझे बक-बक नहीं करना चाहिये. यह कभी-कभी घटक सिद्ध हो सकता है. दूसरी बात यह है कि बहुत दिनों के बाद किसी मर्द को महिला के बारे में सही-सही लिखते पढा है. तीसरी बात यह है कि आपने अच्छा लिखा है. ऐसे किसी ज़माने में मैं भी आल इंडिया रेडियो से सम्बद्ध थी, और ६८० से ही आना जाना होता था. अब विदेश में अपने माटी कि खुशबू फैला रही हूँ.

Unknown said...

पक्का बिहारी हैं आप तो. आपके सारे लेख पढे. सबमें कहीं ना कहीं बिहार कि झलक आती है. लेखनी में भी देशी बोली का समावेश है. लिखा तो आपने सभी अच्छा है लेकिन स्वीट नोथिन्ग्स बेजोर है. लग रह है सामने बात चीत चल रही है. मेरा अनुभव भी कहता है कि ऐसी बातचीत ही प्रायः होती है. हालांकि उम्र में मैं आपसे 15-20 साल सीनियर हूँ. लेकिन आपके स्वीट नोथिन्ग्स ने मुझे अपने उन दिनों कि याद दिला दी. हम भी जू या पटना में गंगा किनारे बैठ कर घंटों ऐसी ही बातें किया करते थे. किस्मत अच्छी थी जिसे चाहा उसे पाया भी. 12 साल के बच्चे का बाप भी हूँ लेकिन मुर-मुर के उन दिनों को फिर से देखना चाहता हूँ. वर्त्तमान में भारतीय रेलवे में जोनल मेनेजर के पद पर नागपुर में कार्यरत हूँ.

Unknown said...

आशीष ने आगे कहा "नौकरी ही हमारे युग का सबसे बड़ा ऐडवेंचर है! तीन अक्षर और दो मात्राओं का यह शब्द हम युवाओं के ख़्वाबों की कसौटी है। जो इस कसौटी पर खरा उतरे वह खरा, बाकी सब खोटा।" ....भाई छा गए। नौकरी का महत्व एक बेरोज़गार ही जान सकता है। और सीख यह है कि जुबान सोच-समझ कर खोलनी चाहिए, ज्यादा बोलना कभी-कभी मुसिबत को भी आमंत्रित कर सकती है।

Manjit Thakur said...

राजीव अगर मैं कहूं कि छा गए .. तो ये इस कहानी उर्फ़ सत्यकथा के साथ और खुद तुम्हारे साथ अन्याय होगा। ज़बरदस्त। सीख? सीख क्या मिलेगी? अरे भाई सीख ली होती ज़िंदगी से तो तुम और शायद मैं भी इस हालात में होते क्या? और हां... नोएडा जाते वक्त हमारे साथ क्या गुजरा था याद है तुम्हे क्या? अगर हो तो जिक्र करना या फिर अपने ब्लाग पर मैं ही कर डालूंगा। अतीत( अर्थात् बेरोज़गारी के दिन चाहे कितने भी कड़वे क्यों ने हो उसकी याद बड़ी मीठी होती है। वैसे एक सीख तो मिलती ही है, लड़की का नाम पता जाने बिना किसी भी लड़की की बुराई किसी दूसरी के सामने मत करो। वरना चप्पल पड़ने की संभावना उतनी ही हो जाती है, जितनी कल कोच्चि में होने वाले वनडे में बारिश की है। मेरे ब्लाग का पता बदल गया है नए वाले को जोड़ लो तो ठीक लगेगा। भगजोगनी की बजाय मेरा नया ब्लाग है गुस्ताख.ब्लागस्पाट.काम

Rajiv K Mishra said...

बिल्कुल याद है भाई....ब्लू लाईन बस और वो यादगार क्षण। शायद 8 अप्रेल 2004 का दिन था शायद। ऐसी यादों के सहारे ही तो जीवन का सफ़र आसाँ हो जाता है। ठंडी शीतल हवा की बयार के तरह वो हम लोग के दिलो-दिमाग को कुछ ऐसे झंकझोर गई थी कि उस सुखद घटना को याद कर हम आज भी मुस्कुरा लेते हैं। पता नहीं कहाँ और किस हालात में होगी......

Sumit K Mishra said...

The moral of story is ---Ladki se kabhi bhi tulna nahin karni chahiye .unke pas harane ke hazar tarike hain hamare paas ek.

Anonymous said...

Thanks for your story