Thursday, July 31, 2008

बिल्कुल नहीं मरेगी अंग्रेज़ी - I

सुशान्त अपने ब्लॉग पर अंग्रेज़ी भाषा की Obituary लिख रहे हैं। दो किस्त पोस्ट हो चुका है - अंग्रेजी कैसे मरेगी और कैसे कमजोर होगी अंग्रेजी। सुशांत के लेखों को काफ़ी गौर से पढ़ता हूं। लेकिन इस इश्यू पर मेरी राय उनसे जुदा है। मेरा मानना है कि अंग्रेज़ी नहीं मरेगी। बल्कि आने वाले समय में इसका और तेज़ी से प्रसार होगा। हाँ, यह सच है कि हिंदी का फैलाव भी तेज़ी से हो रहा है और धीरे-धीरे यह अर्थव्यवस्था, बाज़ार की भाषा बनकर उभरी है। लेकिन अंग्रेज़ी मर जाएगी......कम से कम मुझे तो ऐसा नहीं लगता है।

सबसे पहला प्रश्न यह कि आख़िर अंग्रेज़ी भाषा में वह कौन सी चीज है जिस कारण यह दुनिया भर का दुलारा है? सरहदी सीमाओं के निरपेक्ष, इस भाषा को सौ से भी अधिक देशों में क्यों बोला और समझा जाता है? शायद इस भाषा की सादगी और लचीलेपन में इसका जवाब छुपा हो!!!! बंग्लादेश के कॉल सेंटर में काम करनेवाले हों या नायजीरिया के लोग, सब अंग्रेज़ी बोलते हैं। इन दिनों टेलिवीजन पर दो पैरलल कंपेन चल रहे हैं- "आईडिया" का और एक "टीच इंडिया" दोनों में छोटे बच्चों को अंग्रेज़ी सीखते ही दिखलाया गया है। आख़िर क्यों ???

11 वीं शताब्दी के ब्रिटेन में जन्मी इस भाषा का प्रसार सबसे पहले वहीं हुआ। फिर अंग्रेज़ों के साम्राज्यवादी विस्तार के साथ यह अमेरिका, आस्ट्रेलिया और भारत जैसे मुल्कों में पहुंची। लेकिन इस भाषा में ऐसी क्या बात थी कि सदियों से बोले जाने वाली नेटिव भाषाओं को छोड़ लोगों ने इसे अंगिकार कर लिया...। किसी ज़माने में अंग्रेज़ी जानना कुलीनता की निशानी हुआ करता था। लेकिन आज यह सरवाईवल की भाषा है। जिस देश में 22,000 से भी ज़्यादा भाषाएं हों वहाँ अंग्रेज़ी की ऐसी स्वीकार्यता सोचने के लिए विवश तो करती ही है। जहाँ तक हिंदी की बात है तो यह सही मायनों में राष्ट्रभाषा भी नहीं बन पाई है। लेकिन अंग्रेज़ी पहले दिन से ही आधिकारिक भाषा बन गई थी। अंग्रेज़ी के बारे में भाषाविदों का भी मानना है कि जिस तरह से दुनिया में इसका फैलाव हुआ उसमें कुछ आश्चर्य नहीं थी। लेकिन इस प्रसार की गति सचमुच हैरान करती है।

अब ज़रा अंग्रेज़ी के अक्षरों पर गौर करें - मात्र 26। मंडेरिन भाषा में 45,000 कैरेक्टर हैं। हिंदी, फ्रेंच, ज़र्मन जैसी भाषाओं में भी अंग्रेजी से ज्यादा अल्फाबेट हैं। चौथी-पांचवी में पढ़ाया गया पार्ट ऑफ़ स्पीच आज भी हूबहू याद है। अंग्रेज़ी सीखना और सीखाना दोनों आसान है। छोटे-छोटे कस्बों तक सेंट टाईटल वाले स्कूलों ने अपनी पहुंच बना ली है। बड़े शहरों के स्कूलों में तो आपसे पूछा जाता है कि किस एकसेंट में अंग्रेज़ी सीखना पसंद करेंगे। ब्रिटिश, ऑक्जोनियन, विक्टोरियन, अमेरिकन, यार्कशायर, ईस्ट मिडलैंड....या कोई और।

फ़िल्म नमक हलाल में अमिताभ का वो डायलॉग तो हम सब को याद होगा। "आई कैन टॉक इंग्लिस, आई कैन वॉक इंग्लिस एंड ऑई कैन लॉफ इंग्लिस बिकॉज़ इंग्लिस इज़ ए वेरी फन्नी लैंग्वेज़। भैरों बिकम्स बैरों बिकॉज़ देयर माइंड आर वैरी नैरो"। फिर अमिताभ विजय मर्चेंट और विजय हज़ारे के बीच क्रिकेट पिच पर हुए संवाद को सुनाते हैं। 1982 में उस डायलॉग के माध्यम से अंग्रेज़ी बोलने वालों का मज़ाक उड़ाया गया था। आज लगभग 25 साल बाद बॉलीवुड भी खुले बाहों से अग्रेज़ी को स्वीकार कर रहा है। लाईफ़ इन ए मेट्रो, पार्टनर, वेलकम, हनीमून ट्रेवेल्स, कॉरपोरेट, बिंग साइरस, नो इंट्री....और भी कई फ़िल्म हैं। मुझे तो कोई यहाँ तक बता रहा था कि देवनागरी के डायलॉग भी अंग्रेज़ी में ही लिखे जाते हैं। अगर सिनेमा मॉस मीडियम है तो अंग्रेज़ी भी मॉस की भाषा बन रही है।

अब ज़रा इस भाषा के लचीलेपन पर गौर करें। हो सकता है कि दूसरी भाषा बोलने वाले बहुत लोगों ने इसे गले लगाने से डर रहे हों। लेकिन इस भाषा ने सबको बिना किसी झिझक के अंगीकार किया है। ज़र्मन, फ्रेंच, लैटिन यहाँ तक की हिंदी के शब्दों को भी इसने अपने अंदर समाहित कर लिया है। अवतार, बाज़ार, बंगलो, वंदना, कमरबंद, साधू.....ये शब्द अंग्रेज़ी डिक्शनरी में मिल जाएंगे। चाय, पजामा, गरम मसाला....कई हैं। लोकल भाषाओं के आईडम और फ्रेज़ भी मिल जाएंगे।

निष्कर्ष यह निकलता है कि चाहे आप संघाई में हो या दुबई में, मॉस्को में या नई दिल्ली, कोलंबिया या नायज़ीरिया....अगर इस भाषा की जानकारी है तो कोई ख़ास समस्या नहीं आएगी। अच्छी नौकरी, बेहतर कैरियर...सबके लिए अंग्रेज़ी जरूरी है। बल्कि अच्छी अंग्रेज़ी। दुनिया में कहाँ क्या हो रहा है यह पढ़ने के लिए भी अंग्रेज़ी आनी चाहिए। इंटरनेट पर उपलब्ध मेटेरियल में से 85 फ़ीसदी अंग्रेज़ी में ही होते है। तो भैया....समय बदल चुका है...अंग्रेज़ी सरवाईवल लैग्वेज़ बन चुकी है। वो एक एड है न कि ... अगर लैला को करना हो इंप्रेस, तो मज़नू को खाना होगा मिंटो फ्रेश....तो अगर आज की लैला को करना हो इंप्रेश, तो मज़नू को मिंटो फ्रेश के साथ अंग्रेज़ी भी आनी चाहिए...।

6 comments:

बालकिशन said...

सहमती असहमति को जाने दिया जाय तो एक बात है आपने लिखा बहुत अच्छा है काबिलेतारीफ.

राज भाटिय़ा said...

जनाब यह दुनिया की भाषा नही हे, शायद आप कॊ मालूम ना हो.भारत समेत सभी उन देशो मे अग्रेजी बोली जाती ह्र जो अंग्रेजो के गुलाम थे, पुरे युरोप मे अग्रेजी को कोई नही पूछता,आधे अमेरिका मे स्पेनीस बोली जाती हे, अगली बार जब भी कोई विदेशी राजकीय मेहमान युरोप,या रूस ओए जापान से आये तो ध्यान जरुर दे वो किस भाषा मे अपना भाषण देते हे,***जिस कारण यह दुनिया भर का दुलारा है,*** यह आप का वहम हे, भारत मे तो अब भी यह हे**किसी ज़माने में अंग्रेज़ी जानना कुलीनता की निशानी हुआ करता था।*** बाकी आप की इस बात से मे सहमत मे हू की बिल्कुल नहीं मरेगी अंग्रेज़ी सिर्फ़ भारत मे,क्यो कि हम नमक हलाल हे पक्के अपने आकाओ के.
धन्यवाद, आप का लेख सच मे बहुत सुन्दर हे, मेने अपने विचार भी रखे, आप के विचार पढने के बाद, बुरा लगे तो माफ़ करना.

संगीता पुरी said...

अंग्रेज़ी मर जाएगी......मुझे भी ऐसा नहीं लगता है। पर हिन्दी काफी तेजी से बढ़ रही है , इससे इंकार नहीं किया जा सकता।

Unknown said...

सही जा रहे हो गुरू....भविष्य का सितारा....दिख रहे हो।

Rajesh Roshan said...

मुझे लगता है कि हमलोग हिन्दी से इतना प्यार करने लगे हैं कि अब उसे किसी भी तरीके से ऊपर उठाना चाहते हैं किसी को मारकर भी.... अपने अपने ख्याल है.... लेकिन हा इंग्लिश इंडिया के लिए जरुर बेहद जरुरी आइटम हो योरोप के कई देशो के लिए यह कुछ भी है....मैं कम से कम ५० ऐसे Professionals को जनता हू जो स्पेनिश बोलते हैं, अंग्रेजी अमिताभ कि तरह ही बोलते हैं जैसा नमक हलाल में बोला था

अनुनाद सिंह said...

भाई साहब, आपने सब कुछ उल्टा-पुल्टा लिख दिया है। अंग्रेजी की दुरूहता जग-जाहिर है। भारत में लोग पिछले दो-ढ़ाई सै साल से अंग्रेजी घोंट रहे हैं लेकिन ५% लोग भी ठीक से अंग्रेजी नहीं जानते। एक विषय के रूप में अंग्रेजी आतंक का पर्याय है। अंग्रेजी पर सबसे अधिक समय देने के नावजूद भी सबसे अधिक लोग इसी विषय में फेल होते हैं। अंग्रेजी अल्फाबेट में केवल २६ वर्ण होना उसकी बहुत बड़ी कमजोरी है, न कि उसकी अच्छाई। इतने कम वर्णों के कारण ही जीवन भर स्पेलिंग रटने को मजबूर होना पड़ता है। बर्नार्ड शा जैसे महान विद्वानो ने अंग्रेजी अल्फाबेट को बदलने का सुझाव दिया है और बाकायदा 'शेवियन' वर्णमाला का आविष्कार कराया गया है। अंग्रेजी का व्याकरण सर्वाधिक जटिल एवं अतर्कसम्मत है।


अंग्रेजी केवल दो कारणों से जीवित है:

१) पहले अंग्रेजी साम्राज्यवाद के कारण और बाद में अमेरिकी प्रभुत्व के चलते

२) दुनिया भर के शोषक लोग अंग्रेजी को बढ़ावा देकर निरीह जनता के शोषण के लिये इसका उपयोग करते हैं।