Friday, August 1, 2008

ग़ालिब का ख़त, मार्क्स के नाम

क्या मिर्ज़ा असदुल्लाह खाँ 'ग़ालिब' और कार्ल मार्क्स एक दूसरे को जानते थे? कम से कम मुझे तो ऐसा नहीं लगता था। लेकिन सच यह है कि दोनों एक दूसरे को जानते ही नहीं थे बल्कि उनके बीच ख़तों का आदान-प्रदान भी हुआ करता था। इन बहुमुल्य ख़तों को ख़ोज निकालने का श्रेय आबिदा रिप्ले को जाता है। आबिदा वॉयस ऑफ अमेरिका में कार्यरत हैं। इन ख़तों के ख़ोज की कहानी आबिदा के शब्दों में ही पढ़ लीजिए। मैंने सिर्फ़ अनुवादक की भूमिका निभा रहा हूं।

आज से ठीक पंद्रह वर्ष पहले मैं लंदन स्थित इंडिया ऑफ़िस के लाईब्रेरी गई थी। क़िताबों के आलमीरों के बीच मुगल काल की एक फटी-पुरानी क़िताब दिख गई। जिज्ञासावश उसे खोला तो उसके अंदर से एक पुराना पत्ता नीचे फ़र्श पर जा गिरा। पत्ते को उठाते ही चौंक पड़ी। लिखने की शैली जानी-पहचानी लग रही थी। लेकिन शक अभी भी था। पत्ते के अंत में ग़ालिब के हस्ताक्षर और मुहर नें मेरे संदेह को यक़ीन में बदल दिया।

घर लौटकर ख़लिक अंज़ुम की क़िताबों में चिट्ठियों के बारे में खोजा। लेकिन जो ख़त मेरे हाथ में था उसका ज़िक्र कहीं नहीं मिला। सबसे आश्चर्य की बात यह थी कि इस पत्र में ज़र्मन दार्शनिक कार्ल मार्क्स को संबोधित किया गया था। विडंबना यह है कि आजतक किसी इतिहासकार की नज़र इस ख़त पर नहीं गई।

पंद्रह साल के बाद आज मेरे हाथ मार्क्स का ग़ालिब के नाम लिखा गया पत्र भी लग गया है। उर्दू एवं फ़ारसी भाषा के महान शायर ग़ालिब और महान साम्यवादी विचारक मार्क्स....एक दूसरे से परिचित थे।

रविवार, 21 अप्रेल, १८६७
लंदन, इंग्लैंड
प्रिय ग़ालिब,

दो दिन पहले दोस्त एंजल का ख़त मिला। पत्र के अंत में दो लोईनों का ख़ूबसूरत शेर था। काफी मशक्कत करने पर पता चला कि वह कोई मिर्ज़ा ग़ालिब नाम के हिन्दुस्तानी शायर की रचना है। भाई, अद्भुत लिखते हैं! मैंने कभी नहीं सोचा था कि भारत जैसे देश में लोगों के अंदर आज़ादी की क्रांतिकारी भावना इतनी जल्दी आ जाएगी। लार्ड के व्यक्तिगत लाईब्रेरी से कल आपकी कुछ अन्य रचनाओं को पढ़ा। कुछ लाईनें दिल को छू गईं। "हमको मालूम है ज़न्नत की हक़ीकत लेकिन, दिल को बहलाने को ग़ालिब ये ख़याल अच्छा है"। कविता के अगले संस्करण में इंकलाबी कार्यकर्ताओं को संबोधित करें: ज़मींदारों, प्रशासकों और धार्मिक गुरुओं को चेतावनी दें कि गरीबों, मज़दूरों का ख़ून पीना बंद कर दें। दुनिया भर के मज़दूरों, मुत्ताहिद हो जाओ।

हिन्दुस्तानी शेरो-शायरी की शैली से मैं वाकिफ़ नहीं हूं। आप शायर हो, शब्दों को गिरफ्तार नहीं किया जा सकता है। कुछ भी मौलिक लिखें, जिसका संदेश स्पष्ट हो - क्रांति। इसके अलावा यह भी सलाह दुंगा कि गज़ल, शेरो-शायरी लिखना छोड़ कर मुक्त कविताओं का आज़माएं। आप ज्यादा लिख पाएंगे और इससे लोगों को अधिक सोचने को मिलगा।

इस पत्र के साथ कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो का हिन्दुस्तानी संस्करण भेज रहा हूं। दुर्भाग्यवश पहले संस्करण का अनुवाद उपलब्ध नहीं है। अगर यह पसंद आई तो आगे और साहित्य भेजुंगा। वर्तमान समय में , भारत अंग्रेजी साम्राज्यवाद के मांद में परिवर्तित कर दिया गया है। और केवल शोषितों , मजदूरों के सामूहिक प्रयास से ही जनता को ब्रिटिश अपराधियों के शिकंजे से आजाद किया जा सकता है।
आप को पश्चिम के आधुनिक दर्शन के साथ-साथ एशियाई विद्वानों के विचारों का अध्ययन भी करना चाहिए। मुगल राजाओं और नवाबों पर झूठी शायरी करना छोड़ दें। क्रांति निश्चित है। दुनिया की कोई ताक़त इसे रोक नहीं सकती।

मैं हिंन्दुस्तान को क्रांति के निरंतर पथ पर चलने के लिए शुभकामना देता हूं।
आपका,
कार्ल मार्क्स
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सितंबर 9, १८६७

कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो के साथ तुम्हारा ख़त मिला। अब तुम्हारे पत्र का क्या ज़वाब दूं? दो बाते हैं....। पहली बात की तुम क्या लिखते हो, यह मुझे पता नहीं चल पा रहा है। दूसरी बात यह कि लिखने और बोलने के हिसाब से मैं काफी़ बूढ़ा हो गया हूं। आज एक दोस्त को लिख रहा था तो सोचा क्यों न तुम्हें भी लिख दूं।

फ़रहाद ( संदर्भ में ग़ालिब की एक कविता ) के बारे तुम्हारे विचार ग़लत हैं। फ़रहाद कोई मजदूर नहीं है, जैसा तुम सोच रहे हो। बल्कि, वह एक प्रेमी है। लेकिन प्यार के बारे में उसकी सोच मुझे प्रभावित नहीं कर पाए। फ़रहाद प्यार में पागल था और हर वक्त अपने प्यार के लिए आत्महत्या की बात सोचता है। और तुम किस इनकलाब के बारे में बात कर रहे हो? इनकलाब तो दस साल पहले 1857 में ही बीत गया! आज मेरे मुल्क के सड़को पर अंग्रेज़ सीना चौड़ा कर घूम रहे हैं, लोग उनकी स्तुति करते है...डरते हैं। मुगलों की शाही रहन-सहन अतीत की बात हो गई है। उस्ताद-शागिर्द परंपरा भी धीरे-धीरे अपना आकर्षण खो रही है।

यदि तुम विश्वास नहीं करते तो कभी दिल्ली आओ। और यह सिर्फ़ दिल्ली की बात नहीं है। लखनऊ भी अपनी तहज़ीब खो चुकी है....पता नहीं वो लोग और अनुशासन कहाँ गुम हो गया। तुम किस क्रांति की भविष्यवाणी कर रहे हो??

अपने ख़त में तुमने मुझे शेरो-शायरी और गज़ल की शैली बदलने का सलाह दी है। शायद तुम्हें पता न हो कि शेरो-शायरी या गज़ल लिखे नहीं जाते हैं। ये आपके ज़हन में कभी भी आ जाते हैं। और मेरा मामला थोड़ा अलग है। जब विचारों को प्रवाह होता है तो वे किसी भी रूप में आ सकते हैं। वो चाहे फिर गज़ल हो या शायरी।

मुझे लगता है कि ग़ालिब का अंदाज़ सबसे ज़ुदा है। इसी कारण मुझे नवाबों का संरक्षण मिला। और अब तुम कहते हो कि मैं उन्हीं के ख़िलाफ कलम चलाउं। अगर मैंने उनके शान में कुछ पंक्तियां लिख भी दी तो इसमें ग़लत क्या है??

दर्शन क्या है और जीवन से इसका क्या संबंध है, यह मुझसे बेहतर शायद ही कोई और समझता हो। भाई, तुम किस आधुनिक सोच की बात कर रहे हो? अगर तुम सचमुच दर्शन जानना चाहते हो तो वेदांत और वहदुत-उल-वज़ूद पढ़ो। क्रांति का रट लगाना बंद कर दो। तुम लंदन में रहते हो....मेरा एक काम कर दो। वायसरॉय को मेरे पेंशन के लिए सिफ़ारिश पत्र डाल दो.....।

बहुत थक गया हूं। बस यहीं तक।
तुम्हारा,
ग़ालिब

19 comments:

Unknown said...

शानदार जानकारी मुहैया कराने के लिए शुक्रिया। मियां गालिब और कामरेड मार्क्स समकालीन थे। लकिन पत्र व्यव्हार की जानकारी नहीं थी।

pallavi trivedi said...

dhanyvaad...in anmol khaton ko yaha padhwane ke liye.

anurag vats said...

achha laga galib ka marx ko diya jawab...doosre, yh jaanta hi nhin tha ki koi aisi khato-kitabat bhi hui thi unke beech...bhrhal, ise padhwane ka bahut shukriya...

Kumar Kaustubha said...

great presentation....

दिनेशराय द्विवेदी said...

मुझे दोनों ही खतों के असली होने में सन्देह है।

Unknown said...

ख़त के मज़मून से एक बात तो साफ है कि गालिब और मार्क्स, दोनों अलग-अलग दिशाओं में सोचते थे। ख़त असली हो सकता हैं...दोनों समकालीन थे।

Anil Pusadkar said...

adbhut

संतराम यादव said...

ग़ालिब और मार्क्स के पत्र व्यव्हार के बारे में पढ़कर अच्छा लगा. वाकई, आपने अच्छी और नई जानकारी मुहैया करवाई है, इसके लिए आपका शुक्रिया.

संतराम यादव said...

ग़ालिब और मार्क्स के पत्र व्यव्हार के बारे में पढ़कर अच्छा लगा. वाकई, आपने अच्छी और नई जानकारी मुहैया करवाई है, इसके लिए आपका शुक्रिया.

Anonymous said...

ग़ालिब और मार्क्स के पत्र व्यव्हार के बारे में पढ़कर अच्छा लगा. वाकई, आपने अच्छी और नई जानकारी मुहैया करवाई है, इसके लिए आपका शुक्रिया.

अभय तिवारी said...

अच्छा है.. मगर लोग सचमुच भ्रम में हैं कि आप गल्प नहीं रच रहे,हक़गोई कर रहे हैं..

Anonymous said...

खूब

Arun Arora said...

गालिबन लिख दिया होगा पर ये आप काहे छाप रहे है ये तो अब भारत मे वाम मोर्चा की संपत्ती है :)

बालकिशन said...

जानकारी के लिए आभार.

azdak said...

खूब..

जीवन सिंह said...

खतों के मजमून से लगता है कि ये वास्तविक ही होंगे ,यदि ऐसा है तो अद्भुत है .दोनो ही अपनी आस्था को दर्शाते हुए संवाद करते हैं .आनंद आया ,धन्यवाद---------- जीवन सिंह

Parveen said...

Achchi jankari di hai apne. Sukriya. Lekin shyad jyada ptra vyavhar nahi tha. Kyunki me dono ko padhta raha hu. Ghalib bahuayami shayar the. Unki shayari me ek Ashik ki tadp bhi thi or ek majdoor ka sangharsh bhi. Isiliye we logo ke shayar ke roop me jane jate hain. Marx unse jo request kar rahe hain wo kaam we pehle se hi kar rahe the. 1857 ki kranti ke baad ki Dilli ki halat ko Dekh kar unhone likha tha
"Hua hu ishk ki garatgari se sharminda.
Sivay hasrate tameer ghar me khak nahi"

infact we 1857 ki kranti ke vifal hone se dukhi the Shayad isi bare me unhone Marx ko likha hai.

tiwari said...

Lazavab

tiwari said...

Jabardast...