Monday, May 25, 2009

क्यूं सुलगा है पंजाब

पंजाब फिर से सुलग उठा है। पिछले साल डेरा सच्चा सौदा विवाद ने भी पंजाब को सुर्खियों में ला दिया था। विवाद के जड़ में डेरा सच्चा सौदा का अख़बारों में छपा विज्ञापन था, जिसमें डेरा प्रमुख राम रहीम सिंह को गुरु गोबिंद सिंह की वेशभूषा में अमृत बांटते दिखाया गया। देखते-देखते राज्य के कई जिलों में हिंसक झड़पें शुरू हो गईं।

दरअसल पंजाब में इस तरह का विवाद नया नहीं है। इससे पहले भी अलग-अलग पंथों को मानने वाले सिख संगठनों के बीच हिंसक झड़पें हो चुकी हैं। लेकिन सवाल यह है कि पंजाब में डेरों व सिख धार्मिक संगठनों के बीच टकराव की असल वजह क्या है? क्या, यह सिर्फ़ बदले की राजनीति या डेरा प्रमुखों की निजी महत्वाकांक्षा भर का मामला है, या कहानी कुछ और भी है ? इस पूरे विवाद को ढंग से समझने के लिए पंजाब की जाति-व्यवस्था, ख़ासतौर पर दलित राजनीति के व्यापक संदर्भ को जानना जरूरी है। पंजाबियत कल्चर के कारण बाहर से शांत और समृद्ध समाज का आभास मिलता है, लेकिन अंदर ही अंदर ऐतिहासिक अंतर्विरोधों के कारण भारी उथलपुथल मची हुई है।

पंजाब में दलितों की आबादी करीब 30 प्रतिशत है, जो देश में किसी भी राज्य से ज्यादा है। ये दलित आबादी सभी धर्मों, मसलन हिंदू, मुस्लिम, सिख, क्रिश्चन में बंटी हुई हैं। लेकिन इस 30 फ़ीसदी आबादी का खेतिहर जमीन पर मात्र 3 प्रतिशत अधिकार है। जबकि राज्य की 32 फीसदी जाट सिख (जट सिख) आबादी के पास 80 प्रतिशत खेतिहर जमीनें हैं। यह ज़मीनी असंतुलन राज्य के धार्मिक, सामाजिक और राजनैतिक मंचों पर भी दिखती है।


सिख धर्म में जाति व्यवस्था को नकारा गया है और हिंदू वर्णव्यवस्था के उलट वहां सभी की समानता की बात कही गई है। इसके बावजूद भूमि, संख्यात्मक बहुलता और परंपरागत रौबदाब के चलते जाति की चेतना ने गहराई से जड़ें जमाई हुई हैं। ख़ास बात यह है कि पंजाब में व्यापार और साहूकारी से जुड़े रहे खत्रियों के अलावा सभी जातियां हिंदू धर्म व्यवस्था में निम्न जातियां मानी गई हैं, पर कृषि से जुड़े सभी महत्वपूर्ण संसाधनों पर कब्जा कर स्थानीय संस्कृति व राजनीति में उन्होंने ऊंची जाति का दर्जा हासिल कर लिया है। जातिगत चेतना का असर इतना व्यापक है कि विभिन्न सिख जातियों में आपस में विवाह भी नहीं होता। जाट, खत्री और रामगढ़िया सिखों को प्रभुत्वशाली जाति माना जाता है जो मजहबी, रामदसिया और रंगरेता सिखों को अपने से नीचे समझते हैं। जाट सिख व दलित सिखों के बीच टकराव में ही डेरा विवाद की वजहें छिपी हैं।


एक आंकड़े के अनुसार पंजाब में करीब नौ हजार सिख व गैर सिख डेरे हैं। गैर सिख डेरों के ज्यादातर दलित अनुयायी हैं। डेरा सच्चा सौदा के 70 फीसदी अनुयायी सिख और गैर सिख दलित व अन्य निम्न जातियों से हैं। डेरों की ओर निम्न जातियों के झुकाव को जाट सिखों के दबदबे से अलग एक 'वैकल्पिक आध्यात्मिक-धार्मिक स्थान' की तलाश के रूप में देखा जाता है। विदेशों में बसे कई दलित परिवारों से इन डेरों को मदद मिलती है। लोकल राजनीति में भी डेरा की दखलंदाजी बढ़ती जा रही है। नतीजतन अगड़े सिखों में डेरा के लिए वैमनस्य बढ़ा है। आए दिन जाट सिखों और दलितों के बीच टकराव की ख़बरें आती रहती हैं। दलितों का सिख समाज में मुखर होने की एक वजह हरित क्रांति भी है। आर्थिक समृद्धी ने राजनैतिक और सामाजिक मंच पर भी डेरा समर्थक दलितों को उभारने में योगदान दिया है। पंजाब में गुरुद्वारों की राजनीति में भी इन्हें दोयम दर्जे़ का एहसास होता है। कई गांवों में दलितों नें अपने अलग गुरुद्वारे बना लिए हैं। एक अनुमान के मुताबिक राज्य के करीब 12 हजार गांवों में से 10 हजार में दलितों ने अपने अलग गुरुद्वारे बना लिए हैं। डेरा सच्चा सौदा जैसे संगठन पंजाब की शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमिटी और अकाल तख्त की राजनीति को भी चुनौती देने लगे हैं।

4 comments:

Alok Nandan said...

बेहतर विश्लेषण है पंजाब का.....वहां पर असमानता तल में है....रह रह कर वह धधकता ही रहेगा....

प्. डी.के.शर्मा "वत्स" said...

ऊपरी तौर पर देखने से चाहे कारण कुछ भी दिखाई देता हो किन्तु इसका मूल कारण है पंजाब में अकाली दल की राजनीति, जिन्होने धर्म और राजनीति की एक अजीब सी खिचडी बना डाली है. आप पंजाब की राजनीति का पुराना इतिहास खोलकर देख लीजिए कि जब भी अकाली दल सता पर स्थापित हुआ है, तब तब इस प्रकार की घटनाएं देखने को मिली हैं.

Udan Tashtari said...

अफसोसजनक है!!

दिनेशराय द्विवेदी said...

आप का विश्लेषण सही है।