Saturday, November 14, 2009

सचिन ग्रेट हैं..लेकिन जीत का चस्का तो गावस्कर ने लगाया था।

आज सचिन अंतराष्ट्रीय क्रिकेट में 20 साल पूरा कर रहे हैं। इन 20 वर्षों में सचिन ने सफ़लता के कई मुकाम खड़े किये। कितनी ही रिकार्डें ध्वस्त की...कई नए कीर्तिमान बनाए...इस खेल की नई परिभाषाएं गढ़ीं। क्रिकेट प्रेमियों का भरपूर मनोरंजन भी किया। लेकिन क्या सचिन इतिहास के सबसे महान क्रिकेटर हैं?? सच है, सचिन ने वन डे और टेस्ट में जो रनों का पहाड़ खड़ा किया है, वो अपने आप में मिसाल है, और आने वाले सालों साल तक कोई खिलाड़ी उनके रिकार्ड के आसपास भी पहुंचता नहीं दिखाई दे रहा है। लेकिन व्यक्तिगत रन और महानतम होना, दो अलग-अलग बातें हैं। मेरे जेनरेशन के लोगों ने सुनिल गावस्कर को कम ही खेलते देखा है। लेकिन मुझे वो सचिन से महान और बेहतरीन बल्लेबाज लगते हैं। ये विचार बिल्कुल ही व्यक्तिगत हैं।
सचिन अंतराष्ट्रीय क्रिकेट में 1989 में आए। ये वो समय था जब भारत में नेहरूवियन समाजवाद अपनी अंतिम दिनों को गिन रहा था। समाज व्यापक बदलावों के लिए कुलबुला रही थी। अगले कुछ ही सालों में मनमोहन सिंह ने भारतीय बाजार को धीरे-धीरे आर्थिक ताक़तों के लिए खोल दिया था। बाजार का दम भी सचिन को उस मुकाम तक पहुंचाने में मदद करने वाली थी, जहां वो आज हैं। हम गुलामी की मानसिकता से बाहर निकल रहे थे। दुनिया से दो-दो हाथ करने की हमारी बेताबी हिलोरें ले रही थी। सचिन, हमारी मानसिकता के इसी बदलाव के प्रतीक बने। मैं तो उस वक्त बहुत छोटा था, लेकिन आज मुड़ कर किताबों के माध्यम से उस वक्त को देखता हूं, तो बदलाव स्पष्ट दिखता है। उस समय विदेशों में हमारी दो तरह से पहचान होती थी। एक टैक्सी चलाने वाला हिन्दुस्तानी, दूसरा सीलिकन वैली में पहुंचे नए रंगरूटों की फौज, जो आने वाले समय में भारत की पहचान बनने वाले थे। विश्व मंच पर ‘ब्रांड इंडिया’ का आगाज़ हो चुका था। हमारी ये नई पोजीशन हमें सूकून भी दे रही थी। उससे पहले हमें ‘सपेरों के मुल्क’ का ही प्रतिनिधित्व करते थे। एक परसेपस्न थी कि हम आलसी हैं, जो कर्म से ज्यादा भाग्य पर यकीन रखते हैं। ये अलग बात थी की कर्म की सबसे बड़ी बाईबल ‘गीता’ हमारी धरती पर ही लिखी गई थी। किसी पश्चिम के विद्वान नें हमें विश्व का सबसे बड़ा ‘अराजक लोकतंत्र’ तक कहा था।
गावस्कर ने ऐसे तेज़ गेंदबाजों का सामना किया जो क्रिकेट इतिहास में पहले कभी नहीं देखा था, न ही आगे देखा। लेकिन इससे भी बड़ी बात यह थी कि पहली बार कोई देशी जीतने की मांईडसेट से खेलने उतरा था। गावस्कर से पहले हम खेलने के लिए खेलत थे, जीतने के लिए नहीं। मैदान के चारों और लगने वाले गावस्कर के चौकों, छक्कों से कड़कड़ाहट से हमारी तंद्रा टूटी। खेल की भावना तो हमारे अंदर थी, लेकिन जीतने का ख़्वाब पहली बार हमने गावस्कर की आंखों से ही देखा था। गावस्कर पहले भारतीय क्रिकेटर थे, जिन्होंने विरोधी टीम की आंखों में घूरा। जिसकी शाट्स की चमक गेंदबाजों को विस्मृत कर देती...चौधिया देती। आप इसे मनोवैज्ञानिक इंजीयरिंग कह सकते हैं। आज हरभजन या सचिन अगर विरोधियों की आंखों में विजय भाव से घूर सकते हैं, तो इसका श्रेय गावस्कर को ही जाता है। ऐसा भी नहीं है कि उस वक्त हमारी टीम में गावस्कर से बेहतर खिलाड़ी नहीं थे...लेकिन हौसले का आभाव तो था ही। सैकड़ों वर्षों की गुलामी मानसिकता मैदान पर भी दिख जाती। गावस्कर ने इसी जिंक्स को तोड़ा था। पहला खिलाड़ी जिसने आस्ट्रेलिया में आस्ट्रेलिया के ख़िलाफ वॉक आउट करने की हौसला दिखलाया। भारतीय क्रिकेट का प्रथम पुरूष जो अपनी कमजोरियों को समझता था, फिर भी जीतने के लिए ही मैदान में उतरता था। वो विजय भाव से खेलता, हार उसे यकीनन मंजूर नहीं था। जीतने का चस्का हमें गावस्कर ने ही लगाया था।

1989 में जब सचिन आए, उस वक्त तक गावस्कर ने उनके लिए ज़मीन तैयार कर दी थी। 84 में भारत विश्व कप जीत चुका था। क्रिकेट के मक्का लार्ड्स में तिरंगा लहराया जा चुका था। भारत अब जीतने लगा था। हम विरोधियों की आंखों में झांकने की हिम्मत करने लगे थे। एक देश और समाज के रूप में भारत कांफिडेंट हो गया था। हमारे अंदर औपनिवेशिक सोच की जगह वैश्विक सोच ने ले ली थी। दुनिया भी मानने लगी थी, हम किसी से कमतर नहीं हैं...हम भी जीत सकते हैं। सचिन इन्हीं लग्जरी के बीच ग्रांउड पर उतरे थे। गावस्कर ने अपनी ज़मीन ख़ुद ही तैयार की थी...नियम ख़ुद ही गढ़ा था। सचिन अपने लिए खेलने उतरे थे, गावस्कर ने देश के लिए ग्रांउड वर्क किया था।

गावस्कर को क्रिकेट ही नहीं भारतीय मानसिकता के पुनर्जागरण का श्रेय भी जाता है। अगर हमारे लिए क्रिकेट धर्म है...सचिन भगवान हैं...तो गावस्कर निश्चित ही उस भगवान से बड़े हैं। क्रिकेट का पहला विद्रोही...और शायद सेट ट्रेंड से इसी बगावती सोच के कारण गावस्कर ने कभी हेलमेट पहन कर नहीं खेला...कभी नहीं। और कल्पना कीजिए उन्होंने किस तरह के गेदबाजों का सामन किया..माइकल होल्डिंग, एंडी राबर्टस, जोएल गार्नर, डेनिस लिली, जैफ थॉमसन, मैल्कम मार्शल, बॉब विल्स, सर रिचर्ड हैडली, इमरान ख़ान, सरफ़राज नवाज़, वसीम अकरम...। ये सब लगातार 90 की रफ़्तार से तेज़ गेदबाजी करने में सक्षम थे। और एक भी गेंद सन्नी को छू तक नहीं सकी...। क्या हम कल्पना कर सकते हैं कि सचिन इन गेंदबाजों का सामना बिना हेलमेट के कर पाते।

गावस्कर के मांइड सेट को इस उदाहरण से बेहतर समझा जा सकता है। 84 विश्व कप की फ़ाइनल में भारत के हाथों हारने के बाद वेस्ट इंडीज टीम भारत खेलने आई थी। मार्शल की टीम घायल शेर की तरह दहाड़ रही थी। कानपूर में मार्शल की बांउसर खेलते वक्त गावस्कर के हाथ से बल्ला फिसल गया...लोगों ने सोचा कि गावस्कर की क्रिकेट कैरियर खत्म होने वाली है। लेकिन दिल्ली में होने वाली अगले मैच में गावस्कर ने मार्शल को ऐसा धोया कि उनकी वो पारी क्रिकेट इतिहास बन गई। गावस्कर ने 96 रन बनाए थे, जो उस वक्त बहुत बड़ी बात थी। वो भी अगर सामने वेस्ट इंडीज जैसी टीम हो तो इतना रन सोचना भी गुनाह करने जैसा था। उनकी यही बागी तेवर उन्हें बाकी बल्लेबाजों से मीलों आगे ले जाती है। वो सचिन की तरह नहीं थे, जो दवाब में बुरी तरह लड़खड़ा जाते हैं।
एक बात और, सचिन की टीम में हमेशा तीन-चार अच्छे बल्लेबाज रहे हैं। उनके समकक्ष खेलने वालों में राहुल द्रविड़, सौरव गांगुली, लक्ष्मण, सहवाग, अजहर, मांजरेकर, कांबली जैसे बड़े नाम रहे हैं, जिनका सहयोग निश्चित रूप से सचिन को मैदान पर मिलता रहा है। वहीं गावस्कर की टीम में विश्वनाथ और मोहिंदर अमरनाथ जैसे कुछ ही गिने-चुने नाम थे। यहां तक कि उस वक्त हमारी टीम को ढ़ाई बल्लेबाज की टीम के नाम से बुलाया जाता था। काश....काश! गावस्कर के पास भी सचिन जैसे समकक्ष बल्लेबाज होते या फिर उनका भी जन्म सचिन के समय होता, जब भारत कांफिडेंट हो चुका था.....तो शायद ही कोई पूछता...क्या....सचिन क्रिकेट इतिहास के सबसे बेहतरीन बल्लेबाज है??

5 comments:

IRFAN said...
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Khushdeep Sehgal said...

आपकी बात से पूरी तरह सहमत...अगर किसी को शक है तो इंग्लैंड में 1979 में सुनील गावस्कर की एक पारी को याद कर ले....गावस्कर ने डबल सेंचुरी बनाई थी...अकेले दम पर लगभग हारे हुए मैच में भारत को बिल्कुल जीत के दरवाजे तक पहुंचा दिया था...वो भी भरत रेड़्डी जैसे बिल्कुल नौसीखिया बल्लेबाज़ के दूसरे छोर पर होते हुए...सचिन के दौर में अजहरूद्दीन, राहुल द्रविड़, सौरव गांगुली जैसे सशक्त बल्लेबाज़ टीम में मौजूद रहे है...लेकिन जब गावस्कर खेलते थे तो शूरूआत में विश्वनाथ और बाद में महेंद्र अमरनाथ को छोड़कर कोई दूसरा बल्लेबाज़ टीम में ऐसा नहीं था जिस पर भरोसा किया जा सके...सचिन जब खेलने आए तब तक भारत एक बार विश्व कप जीत कर दुनिया को अपनी ताकत का जलवा दिखा चुका था...लेकिन जब गावस्कर ने खेलना शुरू किया था तो भारत के लिए जीत आसमान से तारे तोड़ लेने जैसी मानी जाती थी...
गावस्कर ने करियर की पहली दो सीरीज वेस्ट इंडीज़ और इंग्लैंड में 1971में खेली थीं...दोनों सीरीज़ न सिर्फ भारत जीता था बल्कि वेस्ट इंडीज़ और इंग्लैंड को पहली बार उन्हीं के मैदानों में मात दी थी...और इस जीत में गावस्कर का क्या योगदान था, बताने की जरूरत नहीं है...गावस्कर ने न सिर्फ भारत को जीतना सिखाया बल्कि खिलाड़ियों को अपने हक के लिए लड़ना भी सिखाया...आज धोनी और सचिन साल में जो 40-50 करोड़ रुपया कमा रहे हैं...ये क्रिकेट में प्रोफेशनलिज्म लाने की गावस्कर की पहल का ही नतीजा है....

जय हिंद...

Unknown said...

SACH is the Magic !

I partly agree....to say that Sunil Gavaskar had the “balls” to face pace bowling legends like Michael Holding, Andy Roberts, Thomson, Sir Hadlee.....(the list goes on)without a helmet definitely stands out in his favour.However, this does not mean that Sachin lacks “manhood”.After all, who can forget Sachin’s first test in Karachi where Pakistan’s bowling sensation Waqar Younis bloodied his nose and the shy 16 year-old stood his ground undeterred, refusing treatment, uttering “Main Khelega”. And if we get down to comparisons, Bradman clearly takes the cake.
The opening up of Indian economy in the early 1990s, when the country was reeling under severe financial crisis, by then FM and now PM Manmohan Singh(with his famous Gold selling act, now having been reversed with the RBI buying 200 tons from the IMF), only led to the creation of “Brand Sachin”.But Sachin’s elevation to dizzying heights of fame, in spite of belonging to a very humble background, as the boy from Sharda Ashram who burst into the international cricketing scene surely makes him a perfect role-model for our generation.And the fact that 80% of cricket’s revenues are now generated from the sub-continent, only added to the pressure on our “Little Master”.Yes, he’s amply supported by the likes of Dhoni, Yuvi and Sehwag which makes it a tad bit easier.But again, these are players who’ve grown-up watching him.
In fact, even as I write, Sachin has surpassed another milestone of his career braving the Sri Lankans at Motera, his last one coming in the last match the Indians played (with a superb knock of 175 against the indomitable Aussies).Therefore, even as his critics pan him for not being a match-winner by leaving India in dire straits at crucial junctures and being an ineffective Captain (agreed there are blemishes), millions of his fans truly believe that our “Tendlya” is yet to reach the “acme” of his career.
I am sure Sachin has acknowledged innumerable number of times that Gavaskar inspired him, just like he inspires millions of Indians today.To say that Sachin is the greatest the game has ever seen would clearly demean the likes of Sir Bradman, Vivian Richards, Gavaskar...just to name a few.But to say that he is the best our generation has witnessed would certainly not be an overstatement.The fact is, every generation has a hero.And Sachin Tendulkar is undoubtedly the “supreme cricketing hero” of this generation.Way to go Man!
Correction: India won the WC in 1983, not 84.
Roop

CrickeTendulkar said...
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Anonymous said...

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