Tuesday, July 14, 2009

रसगुल्ला खिलाओ, बरी हो जाओ...!

आख़िर प्रो. सब्बरवाल हत्या मामले में वही हुआ, जिसका अंदेशा था। नागपुर सेशन कोर्ट ने हत्याकांड के सभी 6 आरोपियों को बरी कर दिया। वो भी तब, जब पूरे देश ने टीवी पर अभियुक्तों की करनी देखी थी। तीन साल पहले न्यूज़ चैनलों ने इस मामले को जम कर उठाया था। यहां केस के जज नितिन दलवी का फ़ैसला देते वक्त दिया गया बयान गौर करने लायक है। जज साहब ने कहा कि वे जानते हैं कि सभी आरोपी हत्या में शामिल हो सकते हैं , लेकिन चूंकि इनके ख़िलाफ कोई सबूत नहीं है, इसलिए इन्हें बरी किया जा रहा है। पूरा सरकारी तंत्र अभियुक्तों को बचाने में जी जान से लगा था। पहले इस केस की सुनवाई उज्जैन सेशन कोर्ट में चल रही थी। वहां एक के बाद एक सभी गवाह पलट गए। इसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने मामले को नागपुर स्थानांतरित कर दिया।

दरअसल सबूतों के आभाव में बरी करने का ये कोई पहला मामला नहीं है। पहले भी होते रहे हैं, आगे भी होंगे। लेकिन हमें सोचना होगा कि हमारी न्याय व्यवस्था कि ऐसी क्या मजबूरी है जिसका फ़ायदा उठाकर अक्सर आरोपी बच निकलते हैं। पैसा, पावर, पैरवी जैसे फैक्टर कैसे और कब तक आम आदमी को न्याय पाने से वंचित करते रहेंगे। इस जंग लगी व्यवस्था में सरकारी वकील की भूमिका से हम सभी परिचित हैं। दरभंगा, मोतिहारी, बरेली जैसे छोटे शहरों में तो रसगुल्ला और पान ही न्याय का गला घोटने के लिए काफ़ी है। व्यक्तिगत रूप से मैं एक सरकारी वकील को जानता हूं। सरकारी बाद में बने, पहले साधारण वकील ही थे। बचपन में उन्हें पाई-पाई के लिए हमने तरसते देखा था। प्रैक्टिस के नाम पर एफिडेविट बनाने से ज्यादा कुछ काम उनके पास नहीं था। लालू यादव के सत्ता में आने के कुछ वर्षों बाद वकील साहब के लड़के को उसकी मेहनत के बूते केंद्र सरकार में अफ़सरी मिल गई। बाद में लड़के की शादी लालू जी के भतीजी से हुई। उस शादी के बारात में मैं भी था। दहेज में पैसा, ज़मीन के साथ वकील साहब को जिले का मुख्य पीपी का पद भी मिला। ये 5 साल पहले की बात है। पिछले नवंबर में अपने गृह जिला पहुंचा तो पाया कि वकील साहब की करकट (एसबेस्टस) वाले घर के जगह एक शानदार मकान इतरा रहा है। बाहर दलाननुमा जगह में पान, रसगुल्ला, आम, मुद्रा लिए कई दर्शानभिलाषी खड़े थे। न्याय की देवी ने आंख पर पहले से ही पट्टी बांध रखी है। सरकारी महकमा उसी पट्टी से कानून का गला घोटने को आतुर है।

अब बात एक जज साहब की। मेरे दूर के मामा हैं....। बचपन में ये मेरे ननिहाल, भागलपूर से परीक्षा देने पटना आते तो मेरे ही घर पर ठहरते। वापस जाते वक्त मां को पैर छू कर प्रणाम करते तो वे 100-200 उनके हाथ मे थमा देती। मां उनके माली हालत से वाकिफ़ थी। ख़ैर, मेहनत रंग लाई और मामाजी जूडीसियल मजिस्ट्रेट बन गए। तेज़ थे, कैरियर का ग्राफ भी उसी तेजी से चढ़ता गया। सब-जज, सेशन जज से होते हुए आज डिस्ट्रिक्ट जज हैं। जब कभी ऐसा संयोग बना कि मैं नानी घर गया और वे भी वहां हों, तो उनका जलवा देखने लायक होता था। हमें गर्व होता....समझ नहीं थी न। पैरवीकारों की लंबी लाईन...। अभी 3 साल पहले जज मामा के लड़की की शादी थी। सूत्रों से पता चला कि दामाद पायलट है, जिसे उन्होंने 40 लाख में ख़रीदा है। बारातियों के स्वागत करने वालों में दर्जनों ऐसे नाम थे, जिन्हें पशुपालन घोटाला में लिप्त पाया गया है। कई नामी-गिनामी क्रिमनल भी थे। मिठाई का इंतज़ाम किसी दागी के पास था, तो पंडाल की ज़िम्मेवारी किसी शातिर अपराधी के पास। बारात के ठहरने का इंतज़ाम किसी ट्रांसपोर्ट माफिया ने किया था। कई आला मंत्री और सरकारी अधिकारी नौकरों की तरह बारतियों के स्वागत में जी जान से लगे थे। मेरा सिर शर्म से झुक गया था। गुस्सा भी आ रहा था। छोटा भाई संजीव थोड़ा सनकी है। वो शादी में गया ही नहीं। मुझे मां-पिताजी ने समाज और परिवार की दुहाई देकर रोके रखा।

ये दो उदाहरण तो बानगी मात्र है। ऐसे हज़ारों–लाखों ‘जज मामा’और ‘वकील चाचा’ हमारी व्यवस्था को चूस रहे हैं। ऐसा नहीं है कि व्यवस्था में इमानदार लोग नहीं हैं। बेशक , कुछ लोग इसके अपवाद रहे हैं और अदालतों ने खास दिलचस्पी लेकर ऐसे कुछ मामलों में इंसाफ दिया है जो अपने आप में मिसाल हैं। मगर अपवाद तो नियम को सच ही साबित करते हैं न।

सब जानते हैं कि ये सभी आरोपी संघ परिवार से जुड़े छात्र संगठन एबीवीपी के नेता थे। संघ परिवार से ही जुड़ी पार्टी बीजेपी की मध्यप्रदेश में सरकार तब भी थी और आज भी है। अब लोग क्या इतने भोले हैं कि प्रदेश की पुलिस की ' लाचारी ' को न समझें।

8 comments:

Unknown said...

True, state of justice in lower courts is painful.

श्यामल सुमन said...

हजारों जुर्म करके भी फिरे उजले लिबासों में।
करिश्मे हैं सियासत के वकीलों के अदालत के।।

सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.com

Sundip Kumar Singh said...

अपने यहाँ न्यायपालिका को ऐसे देखा जाता है जैसे वही आखिरी सच हो. लेकिन क्या हम इस सच्चाई से अंजन हैं कि कई मामलों में न्यायपालिका अपनी मनमानी करती है और कई बार सब के सामने न्याय का ऐसा खेल होता है जिसे कोई सही नहीं कह सकता. खासकर निचले लेवल पर न्याय की खरीद-फरोख्त से भी हम इंकार नहीं कर सकते...

अनिल कान्त said...

आपने सच बयाँ किया है

अजित वडनेरकर said...

सच्ची बात

Anonymous said...

बहुत सही, बंधु. सवाल है ऐसे फ़ैसलों को लात कैसे लगायें..

azdak said...

बहुत सही, बंधु. सवाल है ऐसे फ़ैसलों को लात कैसे लगायें..

sushant jha said...

राजीव ये पोस्ट वाकई तुमने दिल से लिखा है...इसमें तुम्हारा गुस्सा साफ दिख रहा है...यहीं गुस्सा एक आम हिंदुस्तानी का गुस्सा है जिसे हुक्मरान समझने की कोशिश नहीं कर रहे हैं...या जानबूझकर अनसुना कर रहे हैं...