Friday, September 14, 2007

बड़ी दिल की लगी यार दिल्लगी.........!!!

यह कहानी नहीं हक़ीकत है। हक़ीकत, जो एक कहानी बन गई। जिसके पात्र हमारे-आपके बीच ही मौजूद है। मैं हो सकता हूँ, या आप भी हो सकते है। फ़साना हमारे चुन्नी बाबू का है। चुन्नी बाबू उर्फ़ साकेत उपाध्याय। मिज़ाज के कारण ही दोस्तों ने उन्हें चुन्नी बाबू की संज्ञा दे दी। ऐसे "चुन्नी बाबू" संज्ञा नहीं विशेषण है। शरत के "देवदास" के दोस्त चुन्नी नहीं फिर भी कहीं न कहीं एक सामंजस्य तो है ही, खंघालने पर मिलेगा, मुझे तो मिला। ख़ालिश देशी चुन्नी बाबू गोरखपुर के वाशिंदे थे। बाप गाँव के मुखिया थे। पचास-साठ बीघा के आस-पास पुश्तैनी ज़मीन थी। खलिहान में दो ट्रैक्टर। पशुधन के रूप में आठ-दस भैसें और लगभग इतनी ही गाएँ। कुल मिलाकर लैंडेड फैमिली थी, और लैंड के एक मात्र वारिश चुन्नी बाबू। हाँ एक बहन भी थी जो ब्याही जा चुकी थी और ससुराल में "हैप्पीली मैरीड" लाईफ़ गुज़ार रही थी। बाप का एक मात्र सपना कि बेटा कलक्टर बने। सो भेज दिया दिल्ली। हमारे यहाँ बाप ही बच्चों के लिए भी सपने बुनते हैं। और अपने लिए भी। बच्चे अगर ग़लती से अपने लिए सपने देख लें तो यह संस्कारों की तौहीन मानी जाती है। बाप के द्वारा देखे गए सपनों को पूरा करने चुन्नी बाबू गोरखधाम एक्सप्रेस से सीधे दिल्ली गिरे।


मुखर्जी नगर में किराए पर एक कमरा ले लिया। शौक तीन ही थे। क्रिकेट खेलना, फ़िल्म देखना और प्यार करने का शग़ल। कभी-कभार पी भी लेते थे। बाप के सपनों से इतर एक पर्सनल सपना भी था, जो करीबी लोगों से ही शेयर करते थे। चुनाव लड़ने का। कभी काँग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़ने की बात करते थे तो कभी भाजपा के। उदास होते तो निर्दलीय भाग्य आजमाने के सपने देखते। हाँ कम्युनिस्टों से घोर नफ़रत करते थे। ऐसे दिल से कामरेड ही थे। क्रिकेट का बहुत शौक था सो दिल्ली मे गिरते ही क्रिकेट किट् ख़रीद लाए। हफ्ते भर के अंदर ही "लाईक माइंडेड" लोगों का टीम भी खड़ा कर लिया। टीम के अधिकतर सदस्य पुर्वय्या ही थे। मतलब पुर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार के नौनिहाल। क्रिकेट किट उन्हीं का था सो औपचारिक रूप से कैप्टन चुन लिए गए। सहमति बनाकर टीम का नामकरण भी कर दिया गया। यमराज एलेवन। टीम का सदस्य मैं भी था। खेल के दौरान ही चुन्नी बाबू के व्यक्तित्व के बारे में बहुत कुछ पता चला। मसलन हमारे चुन्नी बाबू बहुत ही "यार टाईप" के लोग थे। उसूलों के पक्के! और सबसे बड़ा उसूल की दोस्ती में उसूल नहीं देखते। हम दोनों में कुछ ऐसी बनी की कुछ दिनों में ही चुन्नी बाबू टीम मेट से रूम मेट हो गए। मैदान के ठीक सामने एक गर्ल्स हास्टल भी था। हास्टल क्या था किसी एनआरआई का खंडहर था जिसे ठोक पीट कर हास्टल का शक्ल दे दिया गया था। बारह-पंद्रह लड़कियाँ रहती थीं। शाम के वक्त छत पर या बाहर बरामदे में से चाय की चुस्कियाँ लेते हुए या बाल संवारते हुए ये कन्याएँ हमारे खेल का लुत्फ़ भी उठाती थीं। और हम उनके दर्शन का लाभ। चौके-छक्के लगने पर लड़कियाँ कभी-कभी तालियों से हौसला अफ़जाई भी कर दिया करती थीं। तालियों का जवाब भी उन्हें स-सम्मान सीटी से दे दिया जाता था। लड़कियों को देखते ही खेल की रफ़्तार भी ते़ज़ हो जाती थी। चौकों-छक्कों की झड़ी लग जाती। विकेट चटखने लगते थे। अपने जगह से न हिलने वाले आलसी खिलाड़ी भी डाइव मार-मार कर फील्डिंग करने लगे थे। बिल्कुल ग्लूकान डी जैसा असर।


हास्टल की प्रत्येक लड़की टीम के किसी न किसी लड़के की "वो" बन गई थी और बाकी के लिए "भाभी"। यही बात लड़कियों के लिए कितना सच था कहना मुश्किल है। लड़कियों को देख चुन्नी बाबू को भी जोश आता था, जैसे औरों को। बाकी लड़को ने दिल में ही मोहब्बत का आशियाँ बनाया। सपनों मे ही गीत गुनगुनाए। लड़कियों के सामने आते ही उनका कान्फिडेंस जवाब दे जाता था, सो कभी किसी ने रिस्क नहीं लिया। मगर अपने चुन्नी बाबू अलग मिट्टी के बने थे। मानना था कि प्यार किया तो डरना क्या? लेकिन ऐसा सिर्फ़ मानना था। डर तो भूत को भी लगता है। फिर अपने चुन्नी बाबू तो इंसान थे। खैर, चुन्नी बाबू की पसंद श्वेता नाम की एक लड़की थी। तीखे नैन-नक्श वाली इस लड़की का पूरा नाम श्वेता चावला था। पंजाबी कुड़ी श्वेता लेडी श्री राम कालेज से अंग्रेज़ी में ग्रेजुएशन कर रही थी। चुन्नी बाबू उसके प्यार में ऐसे मचले कि अपना भूत और भविष्य दोनों ही भूल बैठे। दिन रात उसी के याद में डूबे रहते। प्रेयसी के लिए कविता भी करने लगे। खाना-पीना भी कम कर दिया। बस मचलते रहते थे। दोस्तों ने धिक्कारा भी। कहा पढ़ाई-लिखाई करने आए हो सो उसी पर कांसंट्रेट करो। लड़की तो माया है- आज तुम्हारे पास तो कल किसी और के पास। कुछ ने ताना मारा कि होश में आ जाओ, पागल मत बनो। तुम तो प्यार करते हो...लेकिन क्या वो भी तुम्हें प्यार करती है? यक्ष प्रश्न था।



क्रमश:

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