आस्था में अपने वाद नहीं
रहता रुचि में प्रतिवाद नहीं,
आशाविहीन से ही तो हम
अपने जीवन में पलते हैं!
अवबोध विरासत का मुश्किल,
सपनों में रमा हुआ कुछ दिल,
निष्कर्षहीन से ही कुछ हम
सत्याग्रह पथ पर चलते हैं!
रहता रुचि में प्रतिवाद नहीं,
आशाविहीन से ही तो हम
अपने जीवन में पलते हैं!
अवबोध विरासत का मुश्किल,
सपनों में रमा हुआ कुछ दिल,
निष्कर्षहीन से ही कुछ हम
सत्याग्रह पथ पर चलते हैं!
दक्षिणी दिल्ली स्थित बेर सराय। जेएनयू और आईआईटी के बीच सैंडविचड्। आप इसे बौद्धिकता और तकनीक का एरेंज्ड मैरेज कह सकते हैं। कहने का मतलब की आधुनिक और पारंपरिक शिक्षा का मिलन स्थल। 15-20 दुकानों का एक छोटा सा मार्केट, जिसमे अधिकतर दुकान किताब और स्टेशनरी का। इसके अलावा कुछ छोटे-बड़े रेस्त्रां और सेल्फ सर्विंग फुड स्टाल।यह जगह न जाने कितने सपनों के बनने और बिखरने का गवाह है। वो सपने जो मल्टीनेशनल के वातानुकूलित केबिन से लेकर सचिवालय या कलेक्ट्रियट तक फैले हुए हैं। इन सपनों में ऐसे ख्वाब भी थे जो किसी की ख़नकदार हंसी और घने काले जुल्फ़ों के साये में देखे गए थे। कुछेक ने यहां व्यवस्था परिवर्तन का सपना भी देखा व कैरियर और जवानी के बेहतरीन दिन अपनी आँखों में इंकलाब के लौ को जलाते हुए काट दिये। ऐसा ही एक शख़्स आज से तकरीबन बीस बरस पहले बनारस से दिल्ली आया था। आँखों में कुछ सपने थे, समाज के लिए कुछ ख़ास करने का जज़्बा भी था। उसने मार्क्स और चे के रास्तों को चुना। रामानंद जी की बातों से असहमत तो हुआ जा सकता है, लेकिन वे जिस प्रतिबद्धता और जुनून के साथ पिछले दो दशकों से लोगों के बीच अपनी बातों को रख रहे हैं उसे ख़ारिज़ करना मुश्किल है।
बात 1987 की है। आँखों मे भविष्य के कुछ सुनहरे ख़्वाब लिए एक नौजवान नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर उतरता है। स्टेशन से सीधे आरावली के गोद में स्थित जवाहर लाल नेहरू युनिवर्सिटी पहुंचता है। मानसून के आते ही हर साल इस विश्वविद्यालय के दहलीज़ पर दस्तक देने देश भर से हज़ारों छात्र-छात्राएँ खिंचे चले आते हैं । एक खुली दुनिया में कदम रखने के एहसास के साथ। 22 वर्ष का रामानंद भी उन हज़ारों भाग्यशालियों में से एक था। पाँच साल के इंटिग्रेटेड लैंग्वेज कोर्स में एडमिशन मिल गया था। कागज़ी औपचारिकताएं पूरी करने के बाद सतलज हॉस्टल में एक रूम भी एलाट हो गया। बात मजाक में कही गई है, लेकिन सच है कि जेएनयू- बंगाल, त्रिपुरा और केरल के बाद भारत का एक ऐसा "राज्य" है जहाँ पर मार्क्सवादी विचार हावी रहे हैं। और रामानंद के अंदर छुपे हुए परिवर्तन की चाहत रखने वाले युवा के लिए मानो जेएनयू का बौद्धिक माहौल बड़ा ही अनुकूल साबित हुआ। स्वभाविक रूप से रामानंद भी कम्युनिस्ट हो गया। जनवादी छात्र संघ में अपनी सक्रियता के कारण रामानंद अजय भवन में बैठे सीनियर कामरेडों का भी प्रिय हो गया था। मानो चिर विद्रोही को नेतृत्व मिल गया हो।
1992 आ गया और जेएनयू के पाँच साल कैसे बीत गए रामानंद को पता भी नहीं चला। विदा होने का समय आ गया था। बाहर आने के बाद भी रामानंद जनवादी संगठनों से जुड़ा रहा। मुनीरका में एक रूम ले लिया और वहीं से रोजी रोटी के लिए ट्राँसलेशन का भी काम करने लगा। नौकरी करने में रूचि थी नहीं, सो कभी प्रयास भी नहीं किया। जम्मू से कन्याकुमारी तक पाँच सालों तक लगभग हर कम्युनिस्ट रैली में भाग लेता रहा। चे, मार्क्स, माओ आदि के विचार तो जु़बानी याद हो गए थे। लाल राजनीति में कुछ ऐसे रम गया कि ट्रांसलेशन करने का समय नहीं मिल पाता था। दो जून के रोटी के भी लाले पड़ने लगे थे। बेरोजगार थे, मसलन किसी ने बेटी का हाथ इनके हाथों में देना गवारा नहीं किया। पैसे कि इतनी किल्लत कि कभी-कभी भूखे भी सोना पड़ता था। आनेवाले 2-3 सालों में हालात कुछ इस कद़र बद़ से बद़तर हुए कि कई बार रामानंद अपना मानसिक संतुलन खो बैठा। 1997 के वसंत तक हालात हाथ से बाहर जा चुका था। कुछ समाजसेवी संगठनों ने उसे शहादरा के मेंटल असाईलम में भर्ती करा दिया। सरकारी इलाज चलने लगा। हालत सुधरने लगी। पाँच साल के बाद 2002 में डाक्टरों के एक टीम नें रामानंद का जाँच कर ठीक होने का एन ओ सी जारी कर दिया। बाहर आने पर दुनियां बदल चुकी थी। नेहरू-गाँधी के फेबियन समाजवाद को नरसिम्हा राव की खुली अर्थव्यवस्था निगल रही थी। परिवार वालों ने नाता पहले ही तोड़ लिया था अब दोस्तों ने भी मुँह मोड़ लिया। न सर के उपर छत था, न दो जून की रोटी की व्यवस्था।
बात 1987 की है। आँखों मे भविष्य के कुछ सुनहरे ख़्वाब लिए एक नौजवान नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर उतरता है। स्टेशन से सीधे आरावली के गोद में स्थित जवाहर लाल नेहरू युनिवर्सिटी पहुंचता है। मानसून के आते ही हर साल इस विश्वविद्यालय के दहलीज़ पर दस्तक देने देश भर से हज़ारों छात्र-छात्राएँ खिंचे चले आते हैं । एक खुली दुनिया में कदम रखने के एहसास के साथ। 22 वर्ष का रामानंद भी उन हज़ारों भाग्यशालियों में से एक था। पाँच साल के इंटिग्रेटेड लैंग्वेज कोर्स में एडमिशन मिल गया था। कागज़ी औपचारिकताएं पूरी करने के बाद सतलज हॉस्टल में एक रूम भी एलाट हो गया। बात मजाक में कही गई है, लेकिन सच है कि जेएनयू- बंगाल, त्रिपुरा और केरल के बाद भारत का एक ऐसा "राज्य" है जहाँ पर मार्क्सवादी विचार हावी रहे हैं। और रामानंद के अंदर छुपे हुए परिवर्तन की चाहत रखने वाले युवा के लिए मानो जेएनयू का बौद्धिक माहौल बड़ा ही अनुकूल साबित हुआ। स्वभाविक रूप से रामानंद भी कम्युनिस्ट हो गया। जनवादी छात्र संघ में अपनी सक्रियता के कारण रामानंद अजय भवन में बैठे सीनियर कामरेडों का भी प्रिय हो गया था। मानो चिर विद्रोही को नेतृत्व मिल गया हो।
1992 आ गया और जेएनयू के पाँच साल कैसे बीत गए रामानंद को पता भी नहीं चला। विदा होने का समय आ गया था। बाहर आने के बाद भी रामानंद जनवादी संगठनों से जुड़ा रहा। मुनीरका में एक रूम ले लिया और वहीं से रोजी रोटी के लिए ट्राँसलेशन का भी काम करने लगा। नौकरी करने में रूचि थी नहीं, सो कभी प्रयास भी नहीं किया। जम्मू से कन्याकुमारी तक पाँच सालों तक लगभग हर कम्युनिस्ट रैली में भाग लेता रहा। चे, मार्क्स, माओ आदि के विचार तो जु़बानी याद हो गए थे। लाल राजनीति में कुछ ऐसे रम गया कि ट्रांसलेशन करने का समय नहीं मिल पाता था। दो जून के रोटी के भी लाले पड़ने लगे थे। बेरोजगार थे, मसलन किसी ने बेटी का हाथ इनके हाथों में देना गवारा नहीं किया। पैसे कि इतनी किल्लत कि कभी-कभी भूखे भी सोना पड़ता था। आनेवाले 2-3 सालों में हालात कुछ इस कद़र बद़ से बद़तर हुए कि कई बार रामानंद अपना मानसिक संतुलन खो बैठा। 1997 के वसंत तक हालात हाथ से बाहर जा चुका था। कुछ समाजसेवी संगठनों ने उसे शहादरा के मेंटल असाईलम में भर्ती करा दिया। सरकारी इलाज चलने लगा। हालत सुधरने लगी। पाँच साल के बाद 2002 में डाक्टरों के एक टीम नें रामानंद का जाँच कर ठीक होने का एन ओ सी जारी कर दिया। बाहर आने पर दुनियां बदल चुकी थी। नेहरू-गाँधी के फेबियन समाजवाद को नरसिम्हा राव की खुली अर्थव्यवस्था निगल रही थी। परिवार वालों ने नाता पहले ही तोड़ लिया था अब दोस्तों ने भी मुँह मोड़ लिया। न सर के उपर छत था, न दो जून की रोटी की व्यवस्था।
खैर, जैसे-तैसे रामानंद की ज़िंदगी चलती रही। वह कभी किसी दुकान के आगे, तो कभी किसी बेसमेंट में रात गुज़ारता रहा। खाने-पीने की व्यवस्था भी कुछ ऐसी ही थी। कभी किसी नें खिला दिया तो कभी कुछ पैसे अनुवाद से मिल गए। रामानंद की दिनचर्या आज भी अव्यवस्थित है। कभी रामानंद दीवारों पर अपने विचार लिखता है तो कभी हाथ से लिखे हुए पेम्पलेट बाँटता है। उसके आठ-दस घंटे जेएनयू के केंद्रीय पुस्तकालय में जरूर बीतते हैं। कभी उन्माद में वह व्यवस्था को गाली देता है या बातचीत के दौरान विक्षिप्त सा हो जाता है। शिक्षा व्यवस्था से लेकर अंतराष्ट्रीय राजनीति जैसे विषयों पर रामानंद के विचार बहुत ही मुखर हैं। भारत में कम्युनिज़्म के भविष्य के बारे में पूछे जाने पर रामानंद कहते हैं कि "ये सवाल एक पत्रकार होने के नाते आप कर रहे हैं? बल्कि आपको तो आगे बढ़कर उसका झंडा थामना चाहिए।" उनका आगे कहना है कि "आज की दुनियां में जो सबसे अच्छा उपलब्ध विकल्प है चाहे जिस रूप में भी हो - वह कम्युनिज्म ही है। कम्युनिज़्म का मतलब ये कतई नहीं है कि ये विचारधारा शासन के रूप में कंटिन्यू करे - बल्कि वह तो लगातार बदलते जीवन मूल्यों को कंटिन्यू करने का पक्षधर है।" वर्तमान शैक्षणिक व्यवस्था पर प्रश्नचिन्ह उठाते हुए उनका कहना है कि इसमें गंभीर खामियाँ हैं और इसपर विचार होना चाहिए। सबसे पहले तो ये कि विद्यालय स्तर तक भाषा की शिक्षा पूर्ण हो जानी चाहिए और विश्वविद्यालय स्तर पर इसकी पढ़ाई नहीं होनी चाहिए। उनका स्पष्ट इशारा अंग्रेज़ी शिक्षा की तरफ है जिसकी वजह से गरीब और ग्रामीण पृष्टभूमि के बच्चे उच्च शिक्षा में मात खा जाते हैं। शायद यह रामानंद का भोगा हुआ यथार्थ है जिसने उन जैसे न जाने कितने ही ग्रामीण और कस्बाई युवाओं के लिए जेएनयू के अंग्रेज़ी माहौल में पग-पग पर दिक्कतें खड़ी की होंगी। उन्होंने इसमें अनुवाद माफिया की भूमिका की तरफ भी इशारा किया जो नहीं चाहता कि देश के सब लोग एक माध्यम में शिक्षा ग्रहण कर सकें। शायद यह बात रामानंद नें अनुवाद करने के अपने अनुभव से सीखा है, जब उन्होंने देखा कि छोटे स्तर पर भी किस तरह पुस्तक विक्रेता उनके अनुवाद करने के काम के विरोधी हैं। सबसे महत्वपूर्ण बात जो उन्होंने कहा वो ये कि उच्च शिक्षा सिर्फ़ नौकरी का माध्यम बन रही है, उसमें समाज को कुछ भी वापस लौटाने का बोध बिल्कुल नहीं है। इस बात पर विचार होना चाहिए। रामानंद का यह भी कहना है कि उच्च स्तर पर सामाजशास्त्र, भूगोल और इतिहास की पढ़ाई साथ-साथ होनी चाहिए। क्योंकि इन्हें अलग-अलग पढ़ाने का कोई मतलब नहीं है।
बावजूद इसके, रामानंद के मन में अपने घर बनारस की याद रह- रह के हिलोर मारती है। वह बनारस के घाट,बनारस की मस्ती और संकटमोचक मंदिर को नहीं भूल पाता। पता नहीं यह कैसा विरोधाभास है कि एक कम्युनिस्ट होने के वाबजूद रामानंद धर्म को नहीं भूला है। या यह रामानंद का अपना अभिनव कम्युनिज़्म है जिसमें धर्म और उसकी विचारधारा साथ-साथ चल सकते हैं। लेवाइस और पिज्जा जेनरेशन के प्रतीक बेर सराय के अधिकांश दमकते हुए युवा चेहरों के लिए रामानंद पागल और शिक्षित कामचोर के आलावा कुछ भी नहीं है- लेकिन रामानंद की शायद एकमात्र गलती यहीं थी उसने एक अदद नौकरी नहीं की और वक्त उसके हाथ से रेत की तरह फिसलता चला गया।
आज भी रामानंद, अक्सर जाते-आते किसी भी आदमी से संजय नाम के शख़्स के बारे में जरूर पूछता है। पता नहीं यह संजय है कौन? शायद संजय उसका कोई अज़ीज़ दोस्त था या वह आवेश में कहीं संजय गाँधी की ख़बर तो नहीं लेना चाहता? समझना मुश्किल है।
साक्षात्कार सहयोग- सुशांत कुमार झा
फ़ोटो - अमित कुमार
5 comments:
बढ़िया विषय है। इस तरह के लोग हम आपको रोज़ नज़र आते हैं। लेकिन लोग इन्हें इगनोर कर देते हैं। जबकि ये भी हमारे समाज के ही अंग हैं। इन्हें भी सम्मान मिलना चाहिए जिसके ये हकदार हैं।
रामानंद सर को मैं भी जानता हूँ। ये जेएनयू में हमारे सीनियर हुआ करते थे। क्या वो आज भी बेर सराय में ही हैं या कहीं और? आपने सटीक जानकारी दी है। एक चीज़ और थी जिसका जिक्र शायद उन्होंने नहीं किया या आपसे छुपा लिया। इनकी एक दोस्त\प्रेमिका भी हुआ करती थी जो शायद SSS में थीं। दोनो अक्सर गंगा पर साथ नज़र आते थे। उनके बारे में भी पता कीजिए। कोई बंगाली लड़की थी। पता चलने पर इनके इस हालत के कारणों पर भी प्रकाश पड़े शायद। ऐसे सीनियर होने के कारण इनसे हमारा संवाद कम ही हो पाता था। और अगर मेरी यादाश्त सही है तो कामरेड संजय इनके रूम पार्टनर हुआ करते थे। मेरा नाम देवेश बरुआ है और मैं असम सरकार में राजभाषा अधिकारी हूँ। रामानंद सर से संबंधित जानकारी आप मुझे मेरे मेल पर भेज सकते हैं...devi.shb@gmail.com
रामानंद सर को मैं भी जानता हूँ। ये जेएनयू में हमारे सीनियर हुआ करते थे। क्या वो आज भी बेर सराय में ही हैं या कहीं और? आपने सटीक जानकारी दी है। एक चीज़ और थी जिसका जिक्र शायद उन्होंने नहीं किया या आपसे छुपा लिया। इनकी एक दोस्त\प्रेमिका भी हुआ करती थी जो शायद SSS में थीं। दोनो अक्सर गंगा पर साथ नज़र आते थे। उनके बारे में भी पता कीजिए। कोई बंगाली लड़की थी। पता चलने पर इनके इस हालत के कारणों पर भी प्रकाश पड़े शायद। ऐसे सीनियर होने के कारण इनसे हमारा संवाद कम ही हो पाता था। और अगर मेरी यादाश्त सही है तो कामरेड संजय इनके रूम पार्टनर हुआ करते थे। मेरा नाम देवेश बरुआ है और मैं असम सरकार में राजभाषा अधिकारी हूँ। रामानंद सर से संबंधित जानकारी आप मुझे मेरे मेल पर भेज सकते हैं...devi.shb@gmail.com
एक बार तो लगा कि तुम लोगों ने अपने (छुपे हुए) क्रांतिकारी विचार रामानंद जी के सहारे व्यक्त कर दिए हैं लेकिन फिर पूरा पढ़ कर याद आया कि कोई रामानंद जी हैं तो जिनसे मैं भी बेर सराय में मिली थी,लेकिन तब तो इनकी हालत काफी खराब थी अभी फोटो में तो काफी सही लग रहे हैं।(काफी अच्छी फोटोग्राफी कर लेते हैं अमित....)
सिर्फ फोटो खींचकर और इंटरव्यू लेकर ही आ गए या कुछ और भी......यानी झंडा लेकर कब निकल रहे हो?
कैसा संयोग है कि अचानक इस ब्लॉग पर आना हुआ और ज़िन्दगीनामा - रामानन्द रमना के बारे में पढ़ कर हैरानी हुई... क्योंकि हर साल छुट्टियों मे भारत आने पर 'वसंत कुंज' से दिल्ली के दूसरे स्थानो पर जाने के लिए ज़े एन यू रोड से ही गुज़रना पड़ता है और यह चेहरा जाना पहचाना लगा जो बिना उद्देश्य इधर उधर घूमता कभी कभी दिखाई दे जाता था. हमेशा उत्सुकता होती थी और होती रहती है जब कुछ ऐसे लोग रास्ते मे मिल जाते है जिनका अतीत सुनहरा होता है लेकिन वर्तमान भटक जाता है और भविष्य गुम हो जाता है.
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