उत्तर: ये उस दूल्हे से पूछिए, जो 'सुहाग-सेज' पर बैठी दुल्हन को भुलाकर पहले केशव पण्डित के उपन्यास को पढ़ता है तथा फिर उसी उपन्यास को 'मुंह दिखाई' में अपनी दुल्हन को भेंट कर देता है!
माफ़ कीजिएगा यह मेरा सवाल-जवाब नहीं है। यह तो प्रोमो है.....प्रोमो है केशव पण्डित के आने वाले हहाकारी उपन्यास का। ऐसा हहाकारी उपन्यास जो आपके तन, बदन और मन तीनों को सुलगा कर रख देगा। अब जरा इस तरह के अन्य प्रलयकारी उपन्यास के नामों पर एक नज़र डालिए - जूता करेगा राज, ख़ून से सनी वर्दी, कानून किसी का बाप नहीं, सोलह साल का हिटलर, धमाका करेगा रोटी, लाश पर सजा तिरंगा, खू़न बहा दे लाल मरे, शेर के औलाद, तबाही मचाएगी बिधवा, नागिन माँगे दूध, चींटी लड़ेगी हाथी से, पगली माई बोले जयहिन्द, लड़ेगा भाई भगवान से, अंधा वकील गूंगा गवाह, गंगा बहेगी अदालत में, जूता उँचा रहे हमारा, तू पण्डित मैं कसाई, बालम का चक्रव्यूह, झटका 440 वोल्ट का, बारात जाएगी पाकिस्तान, क़ातिल मिलेगा माचिस में, दहेज़ में रिवाल्वर....और भी कई अगड़म-बगड़म नाम।
जवान हो रहा था। स्कूलिया साहित्य से मन ऊब सा गया था। सुभद्रा कुमारी चौहान के वीर रस की कविताओं का रस भी सूख सा गया था। सिलेबस की किताबें काटने को दौड़ती थीं। तब इन्हीं लुगदी कागज पर लिखे जाने वाले साहित्यों ने मुझे बचाया था। कहने का मतलब पढ़ने में मेरी रूचि को बचाए रखा था। ये अगड़म-बगड़म नहीं होते तो आज मैं भी वो नहीं होता जो हूँ। और भी अच्छा हो सकता था या और भी बुरा। बाद वाले की संभावना ज्यादा थी। उस वक्त दिल को दो ही लोग सुकून देते थे। मिथुन चक्रवर्ती और वेदप्रकाश शर्मा। इन घासलेटी साहित्य से अपना दिल कुछ ऐसा लगा कि परिवार और सामाज नें 'आवारा' का तगमा तक दे दिया। पिताजी विद्यापति, प्रेमचंद और नागार्जून से जितना प्यार करते थे उससे कई गुणा ज्यादा मेरे आदर्श वेदप्रकाश शर्मा, रानू, कुशवाहा कांत या फिर गुलशन नंदा से नफरत। देश में जिस वक्त रामायण, महाभारत जैसे सीरियल सड़को को वीरान बना रहे थे, ठीक उसी समय 'वो साला खद्दरवाला' मेरे अंदर बैठे विद्रोही को सुलगा रहा था। टेलीविजन पर रामायण शुरू होते ही लोग उससे चिपक जाते थे और मैं अपने घासलेटी साहित्य से। शायद यही कारण रहा हो कि मर्यादा पुरषोत्तम राम या फिर धर्म राज के जगह मेरा आदर्श कर्नल रंजीत बना। कर्नल रंजीत जिसके पास दुंनिया के हर समस्या का समाधान था। जो सांइटिफिक तरीके से सोचता था। कमाल तो भगवान राम भी करते थे। लेकिन उनके चमत्कार में मेरे "कैसे?" का जवाब नहीं होता था। वहीं रंजीत के हर कमाल का सांईटिफिक एक्सपलानेशंस होता था। फिर चाहे वो सिगरेट के राख से क़ातिल को पकड़ना हो या डीएनए टेस्ट से मरने वाले के बारे में पता लगा लेना। उन अगड़म-बगड़म कहाँनियों के खलनायकों के नाम भी मुझे खासे आकर्षित करते थे। मसलन चक्रम, अल्फांजो, जम्बो, गोगा, टुंबकटू, कोबरा आदि आदि। कहानियों को लिखने का अंदाज इतना निराला होता था कि पाठक उस पढ़ते वक्त सिर्फ़ और सिर्फ़ उसी के होकर रह जाते थे। कुछ-कुछ वैसा ही कांसंट्रेशन जैसे वाल्मिकी या दुर्वाशा का तपस्या करते वक्त रहा होगा। संवाद ऐसे जीवंत और फिसलते हुए कि सिनेमा या सीरियल के बड़े-बड़े उस्ताद स्क्रिप्ट राइटर, कथाकार के शागिर्द बनने को मचल उठें। लेखन कौशल कि कुछ बानगी आप भी देखिए -
"एक सिगरेट होठों के बीच दबाने पर उसने माचिस से एक तिल्ली निकाल कर मसाले पर उसके सिर को रगड़ा। चट.....की आवाज़ के साथ तिल्ली जली - लेकिन बारिश की आवाज़, बादलों की गरज और बिजली की कड़क में दबकर रह गई।"
"उसने सिगरेट में कश लगाकर कसैले धुऐं की बौछार नैना के चेहरे पर छोड़ी तथा पान का पीक ज़मीन पर थूका। नैना च़ीख पड़ी। उसने नैना की दोनों कलाइयों को आपस में मिलाकर दाहिने हाथ से पकड़ ली और बायीं हथेली को उसके होंट पर प्रेशर कुकर के ढ़क्कन की मानिन्द ही चिपका दिया"
सौदर्य बोध का भी इन लेखकों में कोई कमी नहीं होती है। और उपमा-अलंकार में तो कोई कंजूसी करते ही नहीं -
"मैं डिटेक्टिव एजेंसी खोलना चाहती हूं केशव.....ओनली फॉर लेडीज़....चारमीनार की सिगरेट गुलाबी होंठों के करीब पहुंची ही थी कि झील-सी नीली आंखो वाले केशव ने हाथ को नीचे करके सिगरेट को ऐश-ट्रे में डाल दिया और मुसकराते हुए सोफिया को देखने लगा। कोई उनतीस वर्षीय सोफिया। बला की खूबसूरत अप्सरा सी। रंग ऐसा कि मानों चांदी के कटोरे में भरे दूध में गुलाब की पंखुड़ियों को घोल दिया गया हो। आंखें ऐसी की मानो कांच की बड़ी प्यालियों में शराब डाल कर उनमें हरे रंग के जगमगाते हीरे डाल दिए गए हों। मोतियों से सफ़ेद व दमकते दांत तथा पतले-पतले, नाजुक, गुलाबी व रसीले होंठ। सुनहरे रंग के घने व लंबे केश। लम्बे कद वाला जिस्म - मानो उपर वाले ने मोम को अपने हाथों में सजा-संवार कर उसमें प्राण फूंक दिये हों।" ...... बाप रे बाप।
इन उपन्यास को लिखने वाले प्रमुख लेखकों में वेदप्रकाश शर्मा, रानू, कुशवाहा कांत, गुलशन नंदा, केशव पण्डित आदि हैं। लेकिन इनमें भी वेदप्रकाश शर्मा ने सबसे ज़्यादा नामवरी और धन दोनों कमाई। वेदप्रकाश शर्मा जिसे हिंदी साहित्यकारों की बिरादरी लेखक भी शायद ही माने की रचनाओं नें निर्मल वर्मा, कमलेश्वर या राजेंद्र यादव जैसे दिग्गजों को काफ़ी पीछे छोड़ दिया है। मेरठ के वेदप्रकाश 2005 में अपनी उम्र के पचास साल पूरे होने के मौक़े पर एक विशेषांक "काला अंग्रेज" लिखा, जो उनका 150वाँ उपन्यास था। शर्मा पिछले बीस साल से सबसे बिकाऊ लेखक हैं। उनका सबसे ज़्यादा बिकने वाला उपन्यास "वर्दी वाला गुंडा" था जिसकी क़रीब 15 लाख प्रतियाँ बिकीं. उनके दूसरे उपन्यास भी औसतन 4 लाख बिक जाते हैं। शर्मा के उपन्यास पर फ़िल्म - "बहू मांगे इंसाफ" बनी जिसमें दहेज की समस्या को नए कोण से उठाया था। इसके अलावा उनके उपन्यास 'लल्लू' पर 'सबसे बड़ा खिलाड़ी' और 'सुहाग से बड़ा' पर 'इंटरनेशनल खिलाड़ी' बन चुकी हैं. अब हैरी बावेजा 'कारीगर' बना रहे हैं, वहीं 'कानून का बेटा' पर भी एक फिल्म बनाई जा रही है. इनकी पटकथाएँ भी शर्मा लिख रहे हैं।
इन उपन्यासों के लेखकों के हिसाब से उनका पात्र भी यूनिक होता है और उनकी पसंद भी। मसलन सुरेंद्र मोहन पाठक के हीरो सुनील और विमल मँहगे "डनहिल" या "लकी स्ट्राईक" सिगरेट का ही कश लेगा। वहीं केशव पण्डित के कहानियों का हीरो केशव मुफलिसी में जीता है और सस्ते "चारमीनार" को धूककर ही संतुष्ट दिखता है। इसी प्रकार सुरेंद्र मोहन पाठक के "ब्लास्ट" अख़बार का रिपोर्टर सुनील जिस होटल या रेस्त्रां में जाता था घटना या दुर्घटना भी वहीं होता था।
लगभग हरेक उपन्यास के पीछे लेखक के आगामी उपन्यास का टीज़र जरूर छपता है। इन टीज़रों को इतने आकर्षक ढ़ग से लिखा जाता है कि पाठक अगली उपन्यास को ख़रीदने को मजबूर सा हो जाता है। एक बानगी इसकी भी पढ़िये -
"इस बार दिमाग के जादूगर इंस्पेक्टर विजय की टक्कर अपनी ही बीवी सोफिया से हो रही है।"
"मुजरिमों को तिगनी का नाच नचाने वोले केशव पण्डित का दिमाग अपना चमत्कार दिखला पाएगा या सिर्फ़ घूम कर ही रह जाएगा?"
"बिल्कुल नए 'थीम' नये 'आइडिया' पर लिखा गया बेहद रोचक, तेज़ रफ़्तार और सस्पेंस से भरपूर उपन्यास, जो आपके धैर्य की भरपूर परीक्षा लेगा!"
इन उपन्यासों को गौर से पढ़ने पर एक दिलचस्प बात यह सामने आई कि लगभग सभी प्रकाशक मेरठ के ही हैं। यह भी एक शोध का विषय हो सकता है। उपन्यास के पीछे या बीच में छपे विज्ञापन भी काफ़ी मनोरंजक होते है और प्राय: एक ही तरह के होते हैं। मसलन -
"जोरो शाँट रिवाल्वर -जानवरों को डराने के लिए, आत्मरक्षा और नाटकों के लिए। रिवाल्वर के साथ बारह कारतूस मुफ़्त में प्राप्त करें।"
"मात्र 30 दिनों में अंग्रेज़ी सीखें"
इसके अलावा कद बढ़ाने की दवा, इंद्रजाल, वशीकरण अंगुठी, मुकेश के दर्द भरे नगमे, रेकी, रफी के सदाबहार हिट्स, सिंहासन बत्तीसी, बिक्रम बेताल आदि सरीखे किताबों का विज्ञापन। पाँच से ज़्यादा किताब मंगाने पर VPP मुफ़्त।
यह भी देखने में आता है कि इस तरह के उपन्यास बस स्टेंड या रेलवे स्टेशनों पर ही ज़्यादा बिकता है। इसकी भी मनोवैज्ञानिक विश्लेषण होनी चाहिए।
हिंदी की ऐसी हलकी फुलकी, मनोरंजक किताबें हाथों हाथ बिकती हैं जिन्हें साहित्य की श्रेणी में रखने में भी शायद आलोचकों को झिझक हो। अब आलोचकों को यह तथ्य स्वीकार कर लेना चाहिए कि मनोरंजक पुस्तक लोकप्रिय होते हैं। अब यह समय आ गया है कि गंभीर साहित्य लिखने का तरीक़ा भी बदले ताकि ज़्यादा से ज़्यादा लोगों को आकर्षित किया जा सके। निश्चित रूप से ज़्यादातर हिंदी पाठक बदलती जीवनशैली के कारण सस्ते साहित्य की ओर खिंचा चला जाता है। अगर गंभीर साहित्य लिखने वाले लोग वेद प्रकाश शर्मा या सुरेंद्र मोहन पाठक के उपन्यास पढ़ लें, तो वे भी सोचने को मजबूर हो जाएँगे कि वे क्यों पाठकों को अपनी ओर आकर्षित करते हैं. निजी तौर पर कहूँ तो मैंने सभी तरह की किताबें पढ़ी हैं. उन लेखकों में मुंशी प्रेमचंद भी हैं और वेदप्रकाश शर्मा भी। अपने-अपने क्षेत्र में दोनों ही महान हैं. दोनों का अपना अलग मुक़ाम है। आप उनकी तुलना कैसे कर सकते हैं, क्या के एल सहगल भांगड़ा या रॉक संगीत गा सकते हैं? वही बात इन दोनों लेखकों की भी है। आप क्या सोचते हैं????
40 comments:
मिथुन चक्रबर्ती (प्रभुजी) और वेद प्रकाश शर्मा...वाह उस्ताद वाह...
कहाँ हैं आपके चरण कमल, आज का दिन तो धन्य हो गया आप जैसा मित्र पाकर...
शायद आपने वेद प्रकाश शर्मा का "मिस्टर चैलेन्ज" भी पढा हो, मुझे तो बेहद पसन्द आया था । इसी से याद आया कि इस बार भारत जाकर वेद प्रकाश शर्मा के पुराने उप्न्यास भी खरीदने हैं ।
भाई,मान गये. गजब का विष्लेषण किया है घासलेटी साहित्य का. यह एक शोधपरक आलेख है जो अनेकों अन्य शोधों के लिये जमीन बन सकता है. बेहतरीन.
वेद प्रकाश शर्मा, रानु, केशव पंडित, गुलशन नन्दा आदि को समय समय पढ़ा है किन्तु न के ही बराबर मगर धूम से होती उनकी पुस्तकों की बिक्री का जायजा तो रेल्वे स्टेशनों और बस स्टेंडो पर लिया ही है.
बधाई इस आलेख के लिये.
भाई मज़ा आ गया। लगता है आपने बहुत गहराई से पढ़ाई कि है। "तबाही मचाएगी बिधवा, नागिन माँगे दूध, चींटी लड़ेगी हाथी से, पगली माई बोले जयहिन्द" काफी मजेदार टाईटिल भी होते हैं...जारी रहिए....
कर्नल आपने इस "नैना" का दिल जीत लिया। कैसे सोच लेतो हो आप इतनी दूर तक। बेहतरीन विश्लेषण है। पास होते तो "डनहिल" या "लकी स्ट्राईक" का कश ज़रूर लगवाती। मज़ा आ गया...कसम से...।
सही विश्लेषण किया जी आपने. आगे भी इंतजार रहेगा..
गज़ब फुफकारी लेख लिख मारा उस्ताद जी। ये जोरो शाट रिवाल्वर के चक्कड़ में मैं भी ठगा गया था एक बार। सोचा था उस घटमा को फिर से याद न करूं। लेकिन आज फिर 15 साल बाद ठगे जाने पर पापा द्वारा की गई पिटाई याद आ गई। शानदार लिखा है।
मज़ा आ गया। रंग जमा दिया आपने। सारा टेंशन काफूर हो गया। ऐसे ही मन को बहलाने और दिमाग को झकझोड़ने वाले इश्यू पर लिखते रहिए। अच्छा लगा।
राजीव बाबू...बढ़िया है। भई अपने फैन्स के लिस्ट में इस नाचीज़ को भी शुमार कर लें। वैसे मेरा मानना है इस तरह के साहित्य का मार्केट कभी ख़त्म नहीं होगा। हैरी पार्टर भी तो इसी को अंग्रेजी भाई है।
iतुमने तो नास्टलजिया दिया गुरू.पढना तो मैंने इसे 8वीं कक्षा में ही शुरू कर दिया था, लेकिन भाई साहब के डर से अभी तक ये लेटनाइट रीडिंग या आउट आफ होम रीडिंग(मेरे गाँव के दोस्त सुभाष के दमकल बाले घर में-ज्ञात हो कि उसने पहला गुटका कक्षा 4 में खाया था और आजकल बिहार सरकार के अधीन शिक्षक है) के ही श्रणी में आता था।फिर अपन, 10वीं वोर्ड तक आते-2 बोल्ड हो गये और शर्मा जी और पाठक जी, मुंशी जी व चटर्जी के साथ-2 नजर आने लगे। एक बात और यहीं वह दौर था जब हम सत्यकथा, मनोहर कहांनियां(इन दोनों की घर में थोडी इज्जत थी और ये कादम्बिनी और माया से थोडी ही नीचे थी-कुल मिलाकर इन्हें सबर्ण पत्रिका कहा जा सकता था, कुछ-कुछ ओबीसी टाइप जिसका छुआ पानी ब्राह्मण पी सकता है-कादम्बनी और माया ब्राह्मण पत्रिकाएं थी),फिल्मीकलियां, मायापुरी भी पढने लगे थे। नंदन,चंदामामा और सुमनसौरभ बचपना लगने लगा था-मूँछें उगनी शुरू हो गयी थी और हमने अपने रूम में आइना लगवा लिया था।
यहीं वो दौर था जब गुलशन नंदा और रानू ने हमें आध्यात्मिक किस्म के प्यार का मतलब समझाया था। अचानक हमने पाया कि पडोस की सारी लडकियों से मुझे प्रेम हो गया है। और अचानक जातिबाद,गोत्रबाद और खापबाद से नफरत होने लगी थी।
क्या बात है,आपने तो पी एच डी की तैयारी कर ली लगती है. बहुत खुब.
सुरेन्द्र मोहन पाठक के सुनील को बहुत पढ़ा है.
फिल्मो की तरह जिसे लुगदी साहित्य कहा जाता है, ने भी हिन्दी को लोकप्रिय बनाया है.
sahitya ka jo anand hai wo aapki kalam sai barik nikla hai...ek ek shabd par rukne ko ji chahata hai..aisa lagta hai jisai har chiz saf saf ho gayi ho aur yahi safai hi sahitya ka anand hai aur uski pariniti bhi..
आसाधारण प्रयास....ह्यूमर, ज्ञान और मानसिक जुगाली के लिए खुराक, तीनों है आपके लेख में। असल में ये लेखक सपनों को बेचते हैं। मंहगाई, बेरोज़गारी, गरीबी जैसे समस्याओं से जकड़े देश में ये सपनों वाली किताबें बड़ी राहत है। गौर कीजिए ये किताबें एयरपोर्ट पर नहीं बिकती हैं। दोस्त मैंने तो जम कर इन किताबों का लुत्फ उठाया है। जिंदगी के आपाधापी में इन्हें भूल भी गया था। लेकिन इंदौर की यादें फिर से जगमगा उठीं।
गुड वर्क......यादों के सफ़र पर ले जाने के लिए। पापा के फेवरेट थे वेदप्रकाश शर्मा। मैं भी चोरी से पढ़ लेती थी। पापा तो नहीं रहे लेकिन उनकी किताबें अभी भी मैंने संभल कर रखा हुआ है। आपने बचपन के दिन के पलछिन लौटा दिए। धन्यवाद.....खूब लिखिए...लिखते रहिए।
Boss Aapne to ek baar phir se muje comment likhane par mazboor kar diya kiyoki main bhi es daur se guzar chuka hoon aur ek baar us chhup chhup ke novel padhana yaad dila diya..........
wah! sri man samaj ki wastwik tasbir ko apne jis tarah se dimag ki sui ke jarie sabdo ke dhage bune hai wo kabile tarif hai! Agar sahi dil se puchhe to gambhir sahitkar bhi kabhi n kabhi ved prakash jaise sahitkar ke sahitya se achhute nahi honge! sahi puchhe to bachpan main ved prakash jaise sahitakaro ki bhasa hi dil ko chhuti thi. baki sab to kapiyon ke panno ko!... bachapan ke gyan ko jawan karne ka isase aur accha tarika sayad hi ho!...
आप सभी का शुक्रिया। ऐसे लिखने से पहले सोचा नहीं था कि रिस्पांस इतना शानदार मिलेगा। अच्छा लगता है जब लोग आपको सराहते हैं। उत्साह भी बढ़ता है और अपने आप पर भरोसा भी बढ़ जाता है। फिर से आभार...आते रहिए।
सारे साहित्यकारों की ऐसी-तैसी कर दी। एक कापी राजेंद्र यादव को भी भेज दें। अच्छी बात यह लगी कि आपने गंभीर विषय को मजेदार ढ़ंग से सामने रखा। सोचने के लिए भी विवश करता है। कभी जबलपुर आईये और देखिए कितनी धूम है ऐसे उपन्यासों की। दूसरी बात यह कि मालिकान और लेखक दोनों एक ही होते हैं, इसलिए धंधा कभी नुकासान दे ही नहीं सकता। अगले धमाके का इंतजार है।
Bandhu u r a very good story teller...u hv a style....ur narrative never drags...u put across ur points in a subtle way...n after reading ur latest blog, i m really amazed at the profundity of ur thought...u hv all the makings of a very good writer...keep it up!!
Its really interesting.
I am proud of u boy.
prabhash Jha
IBS, hyderabad
काफी मज़ेदार रूप में च़ीजों को अभिव्यक्त कर लेते हैं। मजा आ रहा है...कसम से। कहना चाहती हूं कि दोनों तरह के साहित्य में मुक़ाबला कड़ा है। मैं दोनों को साहित्य मानती हूं। और मानना भी चाहिए। अगर मुक्तिबोध या फिर अज्ञेय की लेखनी आम आदमी को समझ में ही न आए तो वो फिर किस काम का है। कहा गया है न कि लिटरेचर का कैरेक्टर समाजवादी होता है। आपके लुगदी कागज़ वाला साहित्य आम जन मानस को सुलभता से उपलब्ध है और लोग उससे जुड़ते भी हैं तो फ़िर उन्हें साहित्य की श्रेणी में आवश्य रखा जाना चाहिए। बल्कि मेरा मानना है कि इस विषय पर गंभीर विमर्श आवश्य होनी चाहिए।
हिंदी का पाठक एक ख़ास किस्म के संक्रमण के दौर से गुजर रहा है. इस पर एक तरफ़ तो टीवी चैनल और ऐसी ही तकनीक के विविध रुपों का आतंक है, तो दूसरी ओर है बाज़ार में बिक रहा लुगदी साहित्य. एक तरफ़ "तरुणी तृण पर विचरण कर रही है" जैसे वाक्य विन्यास हैं तो दूसरी तरफ़ साहित्य के नाम पर भाषायी जादू दिखाने वाला "नहीं था के कारण में होने का बोध" जैसी आकाशीय साहित्य. इस दौर में इतनी बड़ी मात्रा में कुड़ा-करकट लिखा जा रहा है कि पाठक अच्छा साहित्य तलाश ही नहीं पा रहा है. यह सच है कि साहित्य हमेशा से समाज में अल्पसंख्यकों के लिए रहा है, लेकिन शायद ही साहित्य के सामने कभी इस तरह अस्तित्व का संकट पैदा हुआ होगा.
जिस प्रकार दुल्हन वही जो पिया मन भाए। उसी तरह साहित्य वही जो पढ़ने में मनोरंजक, ज्ञानवर्धक और समकालीन समस्यों को समेटे हुए हो। आप इस सभी मानकों पर खड़े उतरे हैं। इसी प्रकार मनोरंजक थीम उठाते रहिए।
kya rajeev bhai, aapnay jo likha hai usnay to tabhiyat hi hari kar di. bachpan may gharwalo ki maar khanay kay baad bhi vedprakash ko padhhnay may jo maja milta tha vo baris may baikar pakoday khanay say kahi kam nahi tha. bachpan may sub log to apna future plan kar rahay thay aur hum janab vedprakash kay ek charit vikas kay sath milkar usa ko nestnadbood karnay kay sapnay dekhay thay. aur plan karnay walay sab usa chalay gayay vikas ki kahani pt. g khatam kar di. aur hum rah gayay yaha logo ko kattar may khaday huay gubar dekhtay rahay. maza aa gaya rajiv bhai.
ज़हर, मौत का सामान है...लेकिन एक नशा भी। ऐसा नशा जो जीने के पागलपन को उस पराकाष्ठा पर ले जाता है....जिसने खाया वही जाना।
लेकिन डॉ. वन्दना अग्रवाल जैसे मर्मज्ञ ने इस ज़हर को छुआ ही नहीं और न ही हिम्मत जुटाई होगी। इन जैसे लोगों के साथ दिक्कत यही है कि ये अपनी सोच पर अड़े रहते हैं.....आम जन-मानस तक पहुँच ही नहीं पाते कभी।
ऐसा भी सुना है कि अज्ञेय ने कभी कहा था कि जिसे मुझे पढ़ना है, उसे मेरे स्तर तक पहुँचना होगा। लेकिन पहुँचाएगा कौन? अगर हमारे साहित्यकार तथा डॉ. वन्दना जैसे ज्ञानी लोग लेखन को बजाए बोझिल, भारी-भरकम शब्दों से लबरेज तथा कठिन बनाने के, सरल एवं रोचक बनाकर पेश करते तो आज साहित्य की ऐसी स्थिति नहीं होती की उसकी दुर्दशा पर डिबेट किया जाए बल्कि हमलोग उसकी उपलब्धि पर चर्चा कर रहे होते।
अगर बाज़ार की बात करें तो रद्दी से भी कम कीमत से बटखरे पर तुलते देखा है साहित्य को। और इसी बाज़ार में नीले-पीले, बेहद फटेहाल स्थिति में भी आधे से कम मुल्य पर नहीं मिलते। अन्यथा न लेते हुए कहीं से भी इसे ज़हर की वकालत न समझा जाए, न ही ये है।
साफ बात है, साहित्य को ज़हर नहीं लेकिन नशा बनाने की जरूरत है। इस मुहिम में जुटे राजीवों-रविशों-अविनाशों के प्रति कम-से-कम कृतघ्न तो नहीं ही होना चाहिए।
पुन:श्च, कम-से-कम एक बार मेरी ये इच्छा है कि डॉ. वन्दना जी की लेखनी से रू-ब-रू होऊं।
किंचित् मेरा मानना है कि साहित्य को पाठक पढ़ें न कि लाइब्रेरी के दीमक।
I m neither a linguist nor an critic but one thing which I could easily access is that people like Dr. ,a self proclaimed critic of Hindi Literature ,always tries to confine the colloquial language into a hardcore jargons of Hindi Literature which only person like her could understand and interpret.
Did she ever tried to feel the taste of hinterland or the people of subaltern class. Premchand ,Agyeya ,Nirala……. by no means serve the purpose of enlightenment for those who really need that. If a common people find hard to discern what she(Dr.) had written whether she has commended or condemned the writing then how a person whose world rotates round bread and butter(salt) would be able to differentiate what is worth reading and what’s not .
One more thing which she has highlighted about the crisis for existence……. ,I would rather say that-- there has always been a crisis of literature for common people because most of the reader runs toward badge value of writer, not because theme /story /idea have influenced them .It is this type of writing (Col Ranjeet,SM Pathak….) which has again and again rekindled the inspiration of youth towards Hindi otherwise there are hell lot of people who starts from Harry potter and ends at Milton. And why is this discrimination ? just because it is written and printed in “Lugdi Kagaj” let me remind u Mam, you need to go thoroughly through Nabokov,Lawrence,Conard,Poe,Wells…….. what type of metaphor / slang they have used and what are their theme of stories.In a nutshell I would say that if Piccaso paints a nude women its an art if the same is done from a rural boy its social exploitation.
बंधू मज़ेदार है। आपके सारे किस्से-कहानी पढ़ डाले। आपने गंभीर और मनोरंजक साहित्य के बीच में बहस भी शुरू करवा दी। लेकिन आपने अपने नाम के साथ "अविवाहित" क्यों लिख रखा है। बाबा बाजपेयी या फिर चाचा कलाम बनने का इरादा तो नहीं। दोनों के सफलता का मंत्र उनके अविवाहित रहने में ही छुपा है।
As expected, great work again. you are moving from strength to strength da. Bahut sahi tha
पढ़ कर अच्छा लगा। लोग कुछ भी कहें लेकिन इन उपन्यासों का योगदान साक्षरता बढ़ाने में भी महत्वपुर्ण रहा है। कम से कम इसी बहाने लोग कुछ न कुछ तो पढ़ ही लेते हैं।
bada shodhparak vishleshan hai bhai!
parichay me avivahit likhna zaroori hai?
बहुत खूब क्या लिखा है भाई साहब .मजा आ गया ,आगे भी लिखते रहिएगा मुझे भी बहुत कुछ याद आ गया.धन्यवाद
bahut badhiya bhai...apan sab guzrein hein in galiyon se...zara surendra mohan pthak ke sunil bhai multani, vimal aadi ka tafsara bhi kariyega...
JAI HO JAI HO GURU DEV AAP NE LADAKPAN YAAD DILA DIYA 7-8 ME PADTE HUYE HAME BHI NAVAL ROG LAG GAYA THA SURU SURU ME UPAR COVER PAR CHAPE CHITRA DEKH KAR NAVAL KHARIDTATE THE JAB KAHANI ME DIMAG LAGNE LAGA TAB VEDPRAKASH SHARMA KA HAMARE JIWAN ME AVTAR HUA FIR TO JESE RATON KI NEED UD GAYI DIN KA CHAIN UD GAYA RAAT RAAT BHAR SARDIYON ME RAZAI SAR KE UPAR KAR KE TARCH KI HALKI ROSNI ME NAVAL PADNE KA MAZA TRAIN MAI SAFAR KARTE SAMAY BACHAPAN ME JO WINDO SEAT PAYARI LAGTI THI WO BEKAR OR UPPER KI BEKAR SEAT PAYARI LAGNE LAGI UPPER KI SEAT OR VEDPRAKASH SHARMA KE NAVAL KA SATH WAH BHAI WAH WO ANAND AATA THA JAISE BAHUT DER SE RUKI HUI LAGHUSHANKA VISARJAN KE BAAD AATA HE AAJ MAIN 35 SAAL KA HUN SAMAY KAM MILTA HAI KAAM SE MAGAR JAB BHI MOKA MILTA HAI IN KAGAZ KI LUGDION KE PREMPAS KE TEER SE APNE AAP KO BACHA NAHI PATA OR AAP NE UNHI BAATON AR YAADON KO BILKUL VEDPRAKASH SHARMA KE HI SABDON MAIN HAMARE SAMNE EK PREMIKA KI TARAH BADE YAAR SE RAKH DEYA DE OR PURANI YAADON ME JANE KE LIYE MAZBOOR KAR DIYA HE DHANYA HO GURUDEV DHANYA HO
हे राजीव ..
'घासलेटी साहित्य ' के एक और प्रेमी से मिलकर बेहद ख़ुशी हुई. बंदा खुद भी इसी साहित्य में रच बस कर बड़ा हुआ है . आपकी लेखनी ने पुराने दिनों को ताज़ा कर दिया..
Guru Likhne se rok nahi paaya khud ko, yaad dila di,jab agle din exam hota aur raat ko Alfanso aur Vijay Vikas me khoe rahte the, arre Tumbkatu aur 1 aur tha jo pure world pe kabja karna chahta tha are wo Singhi, bejor bhai, bejor, dhanyawad, yado ki ganga me dubki lagwane ka
Arvind Singh
Bhopal
वाह.. अच्छा विश्लेषण था.. आज कर्नल रंजीत को सर्च मारा..आपका भी ब्लॉग मिला..और आपके ब्लॉग से ढेर सारे घासलेटी साहित्य की जानकारी..वैसे रोमांच और सेक्स के तडके को लेकर रीमा भारती बेस्ट रही हैं.. उनके बारे में भी जानकारी देनी चाहिए थी..
JAY HO GURUVAR
AAPNE JAISA LIKHA HAI AAVARA HONE KA TAMGA TO MUJHE BHI MIL CHUKA HAI
MAGAR PARYAYVACHI HAI ''GANDA''
KYONKI KUCH LOG MANTE HAI KI IN NAVELS ME ASHLIL KATHANAK JAYDA HOTE HAI
VAISE JO LOG AISA MANTE HAI VO BHI ISKO PADAKAR ISIKE MUREED HO JAYENGE
THANKS GURUVAR --
AAPNE JITNE BHI NAM GINAYE HAI UN SABHI KO MAIN AAJ HI KHARIDATAA HOON ------
JAY HO GURUVAR
AAPNE JAISA LIKHA HAI AAVARA HONE KA TAMGA TO MUJHE BHI MIL CHUKA HAI
MAGAR PARYAYVACHI HAI ''GANDA''
KYONKI KUCH LOG MANTE HAI KI IN NAVELS ME ASHLIL KATHANAK JAYDA HOTE HAI
VAISE JO LOG AISA MANTE HAI VO BHI ISKO PADAKAR ISIKE MUREED HO JAYENGE
THANKS GURUVAR --
AAPNE JITNE BHI NAM GINAYE HAI UN SABHI KO MAIN AAJ HI KHARIDATAA HOON ------
बेहतरीन लेख लिखा है आपने,राजीव जी।हिंदी पल्प फिक्शन के प्रति मेरा झुकाव कुछ ही दिनों से हुआ है। अभी तक केवल केशव पंडित का 'शादी करूंगी यमराज से', सुरेन्द्र मोहन पाठक जी की 'कोलाबा कांस्पीरेसी' और राजभारती की 'प्यासी आत्मा' पढ़ी है। लेकिन इनको पढ़ने के बाद दूसरे लेखकों को भी पढ़ने की इच्छा जागृत हुई है। इसका कारण इन उपन्यासों के कथानक का कसाव है जो कहीं भी पाठक को बोरियत का इल्म नहीं होने देता। और इनमे अंदाजेबयाँ की शैली ऐसी होती है कि पढ़कर मज़ा आ जाता है।
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यक़ीनन पुरानी यादें ताज़ा हो गयीं
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