कल चचेरे भाई नें गाँव से फ़ोन किया था। मोबाईल से! उसने बतलाया कि धनतेरस पर घर मे डीवीडी ख़रीदा गया है। आगे यह भी पता चला कि मैं दिल्ली में रहकर तकनीक के बारे में उससे कम जानता हूं। फ्लैशबैक में चला गया।
बात 1995 की रही होगी। गर्मी छुट्टी में दो महीने के लिए गाँव गया था। मेरा गाँव भारत-नेपाल सीमा से काफ़ी करीब है, इसलिए वहाँ से प्रसारित कार्यक्रम बार्डर के इस पार भी आसानी से टेलिवीजन पर देखा जा सकता है। जिस समय दिल्ली दूरदर्शन पर रामायण प्रसारित होता था, मेरे गाँव की बात तो छोड़िए, मेरे जिले में भी दो-तीन सौ से ज्यादा टीवी सेट नहीं रहे होंगे। गाँववाले उस वक्त रामायण देखने से वंचित रह गए थे। लेकिन 1995 में जब नेपाली टेलिवीजन ने किसान साबुन वाले विज्ञापन के साथ रामायण का प्रसारण शुरु किया, तो उस वक्त तक गाँव के दो-चार घरों में ब्लैक एंड ह्वाइट टीवी का किसी कमाऊ बीवी की तरह भव्य पदार्पन हो चुका था। गाँव में मेरे पड़ोस के एक घर में भी टीवी था। मैं वहीं टीवी देखने जाता था। टीवी ने गाँव में हलचल ला दी थी। एक क्रांति, जो चुपके से लोगों के घरों से होते हुए उनके दिमाग में भी अपनी जगह बना रही थी। रामायण का प्रसारण शुक्रवार को रात के आठ बजे से होता था। महिलाएँ जल्दी-जल्दी खाना पका लेती थीं। साढ़े सात बजे के बाद पूरे गाँव की एक ही मंजिल होती थी। टीवी वाले घर।
बिल्कुल सिनेमा हाल सा माहौल। व्यवस्था भी कुछ-कुछ वैसा ही। घर के मालिक दरवाज़े के पास टार्च लेकर बैठ जाते थे। बच्चों को आगे बिठाया जाता था, महिलाएं बीच में, शादी योग्य लड़कियां महिलाओं के बीच में और बड़े बुजुर्ग पीछे कुर्सीयों पर विराजते थे। गाँव के लौंडे-लफारे अगल-बगल एडजस्ट हो जाते थे। इसके अलावा जिन बच्चों को 'ट्रेक रिकार्ड' ख़राब होन के कारण प्रवेश नहीं मिल पाता था, वो बाहर से खिड़कियों पर लटक जाते थे। बिल्कुल मुंबई के लोकल ट्रेन जैसा माहौल। प्रसारण निर्बाध रूप से चले इसकी जिम्मेवारी गाँव के ही कुछ 'काबिल' लड़कों पर होती थी। मैट्रिक फेल इन लड़को के योगदान को ध्यान में रखते हुए इन्हें 'इंजीनियर साहब' कह कर संबोधित किया जाता था। अपने देश में यह लोग मास्टर साब, डाक्टर साब के बाद एकमात्र साहब थे। निर्बाध और स्पष्ट प्रसारण इन 'इंजीनियरो' के प्रतिष्ठा और कैरियर दोनों के लिए महत्वपूर्ण थे। अपने काम के प्रति इतने समर्पित और निष्ठावान कि, माँ-बाप कुहक-कुहक कर मर जाएं कि पाँच किलो गेंहूं पिसवा कर ले आओ। लेकिन क्या मज़ाल कि ये टस से मस भी हों। लेकिन जुमे के दिन ये बीस किलो वजनी बैट्री साइकिल पर लाद कर पाँच किलोमीटर दूर मधुबनी से चार्ज करा लाते थे। ब्राडकास्टिंग संबंधी इनका ज्ञान किसी भी आईआईटियन के पसीने छुड़ा सकता था। बूस्टर, चुट्टा, एंटीना, बैट्री का पानी, बैट्री प्लेट आदि इनके डिक्शनरी के शब्द थे। यह अलग बात है कि करेंट फ्लो संबंधी इनके ज्ञान पर बैंजामिन फ्रैंकलिन भी शर्मा जाएं।
इन तथाकथित 'इंजीनियरो' के बाद सबसे ज्यादा टीआरपी उन बच्चों की होती थी जो साप्ताहिकी कार्यक्रम रट लेते थे। यानी सबसे तेज़! बच्चों के इस प्रजाति को दो का पहाड़ा भले ही न याद हो, लेकिन रंगोली, चित्रहार और आने वाले रविवार को शाम पांच बजकर पैंतालिस मिनट का हिंदी फीचर फिल्म का समय देवी सरस्वती इनकी जिह्वा पर चिपका देती थीं।
टीवी देखने के बहाने हुए इस सोशल गेदरिंग ने कई लोकल लेवल प्रेम प्रसंगों के संभावनाओं को भी जन्म दिया था जो असमय ही कहीं परंपराओं के कब्रस्तान में दफ्न हो गयी। जमाने के पहरे और सामाजिक बंधन से मुक्ति का शायद ही इससे अच्छा कोई और विक्लप रहा हो। रूढ़ीवादी मान्यताएं चूर हो रही थी। छोटे भाई-बहन, सहेलियाँ, हमउम्र भाभियां, लव लेटर के वाहक बन चुके थे। अलबत्ता यह उस दौर की बात है जब सिर्फ़ भाभी की बहन या फिर बहन की ननद तक ही प्रेम विवाह आदर्श माना जाता था। खैर, धीरे-धीरे ही सही, टीवी को सामाजिक मान्यता मिलने लगी थी। और रामायण जैसे सीरियल ने तो घर में टीवी के अनिवार्यता और भी मुखर रूप से सामने रखा था। कह सकते हैं कि धर्म ने तकनीक और बाजार को वैधता प्रदान करने की काफी सफल कोशिश की थी।
ख़ैर, घड़ी में आठ बजते ही बिल्कुल स्तब्धता छा जाती थी। और शुरू हो जाता था कालजयी सीरियल 'रामायण'।
4 comments:
अच्छा खांका खींचा है।
राजीव भाई मजा आ गया.. सचमुच वे दिन भी क्या थे।
रोज शाम को आता कृषि दर्षन तक नहीं छोड़ते थे। रामायण से भी पहले रविवार की शाम को विक्रम और वेताल उसके बाद दादा दादी की कहानियाँ और उसके बाद हिन्दी फिल्म.. आहा!
फिल्म शुरु होते ही उसके प्रमाण पत्र में कितने रील की पिक्चर है देखने की होड़ लगती थी, यह पता नहीं था कि 16 या 17 रील की फिल्म होए का क्या मतलब है पर साहब..
सचमुच आपने बचपन याद दिला दिया।
एक बाट और कहनी है आप लेख को जस्टीफाई की बजाय लेफ्ट अलाईन में लिखें क्यों कि फायर फॉक्स में सब गड़बड़ दिखता है।
धन्यवाद
बहुत ख़ूब, क्या बात है! .....याद आ गया गाँव का बचपन। हाय, कहाँ गए वो दिन।
क्या कमाल का वर्णन किया है भाई..सचमुच रामायण को भारतीय टेलिविजन युग-युग तक याद रखेगा। महाभारत तक आते-आते लोग थोडे परिपक्व हो गये थे, और उसको आस्थावस नहीं बल्कि विशुद्ध मनोरंजन बस देखते थे। य़ा कहिए कि उसकी सफलता में पचास फीसदी से ज्यादा का योगदान तो अकेले राही मासूम रजा के स्क्रिप्ट की थी जो लोगों की जुवान पर आज तक याद है। रामायण के साथ ये एडवान्टेज नहीं था, फिर भी वो आस्था के ज्वार में कमाल कर गय़ी। खैर, बात टीवी की हो रही थी तो कुछ और भी सिरीयल जो शरीफाना समझे जाते थे उनका जिक्र भी जरुरी है-वुनियाद, हमलोग, डा बाग्ले की दुनियां और वो एक सीरियल जिसमे नूतन जी टालीगंज की वहू बनकर आती थी। लेकिन गांव की बात करें, विशेषकर बिहार-यूपी के गांवों की तो ये टालीगंज की वहूएं बिजली के आभाव में अपनी दर्द भरी कहानी आम जनता को नहीं सुना पाई..वहां तो टीवी का बैटरी रंगोली, रामायण और चित्रहार देखने के लिए ही रिजर्व रहता था। हां एक बात जो सागर नाहर जी ने कहा है कि लोगों में ये भी होड लगा रहता था कि मुआ फिल्म कितने रील का है जिसने सबसे पहले उन बारीक अक्षरों में लिखे सेंसरवोर्ड के प्रमाणपत्र से रील के आकार को पढ कर उसकी घोषणा कर दी उसे 'सवसे तेज' होने का प्रमाणपत्र स्वत:मिल जाता था और उसकी टीआरपी सवसे हाई होती थी। अलबत्ता हम तो भैया टीवी में काम करने के बावजूद आजतक नहीं समझ पाए कि यो ससुरी रील कितने लंबाई चौडाई की होती है?
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