Sunday, October 28, 2007

भेज रहा हूं स्नेह निमंत्रण....



शादियों में दावत उड़ाने तो हम-आप जाते ही रहते हैं। जाने से पहले आमंत्रित भी किए जाते हैं। बल्कि आमंत्रित किए जाते हैं, तभी जाते हैं। कोई अभिषेक-ऐश्वर्य टाईप के सेलिब्रेटी शादी में तो आमंत्रित करता नहीं है कि भारतीय मीडिया की तरह बेशर्मी से पहुँच जाएं। अब पता नहीं अमिताभ एंड फ़ैमिली ने उनका कैसा आवभगत किया। खाने-पीने के लिए पूछा भी या ऐसे ही विदा कर दिया। खै़र, बात आमंत्रण की हो रही थी। किसी जमाने में शादी, मुंडन, जनेउ, श्राद्ध या फिर कोई अन्य धार्मिक संस्कारों में हज्जाम (नाई)/ पंडित भोजपत्र पर निमंत्रण लेकर भेजे जाते थे। समय बदला और भोजपत्र धीरे-धीरे विलुप्त होते चले गए। उनकी जगह कागज़ के बने कार्ड ने ले लिया। तरह-तरह के कार्ड सादे, डिजाईनर, ब्लैक एंड ह्वाईट, रंगीन, फोल्डिंग, रोलिंग। कहने के मतलब की जैसा खर्च़, वैसा कार्ड। इन कार्डों में भी शादी के कार्ड सबसे मजेदार होते हैं। हों भी क्युं न भई, शादी जो है! यह कार्ड आपकी समाज में हैसियत भी तय कर देती है। कार्ड का पूरा पोस्टमार्टम किया जाता है। शादी में कितना खर्च़ हो रहा है, इसके आँकड़े भी अमुमन पड़ोसी/रिश्तेदारों को कार्ड ही मुहैया करा देते हैं। कुल मिलाकर आप कार्ड को विवाह का प्रवक्ता भी मान सकते हैं। अगर आप रिश्तेदारों को कार्ड भजते हैं, तो सबसे पहले वे उसमें अपना नाम तलाशेंगे। अगर है, तो आप सबसे अच्छे अगर नहीं या फिर ग़लती से छूट गया है, तो फिर आपकी खैर नहीं। हलांकि ऐसी ग़लतियां होती नहीं हैं, बल्कि की जाती हैं।

शादी का कार्ड लेकर निमंत्रण देने कौन जाता है, यह भी भारतीय सामाजिक व्यवस्था में काफी महत्वपूर्ण है। अगर कार्ड दूसरों के हाथों भिजवाया जाता है, तो बहुत संभावना है कि आमंत्रित न आएँ या फिर कोई बहाना बना दें। अगर कार्ड रिश्तेदारों के हाथों भिजवाते हैं तो चाँस 50-50 है। आपकी समाज में कोई हैसियत है तो लोग आएँगे अगर नहीं है तो शायद न भी आएँ। सबसे आदर्श स्थिति होती है कि शादी का कार्ड लड़के का बाप/ बड़ा भाई लेकर जाए। कार्ड तो हाथ से दे ही, साथ ही मनुहार (रिक्वेस्ट) भी करे कि... अरे आपके ही बेटे या बेटी की शादी है। बचपन से आपका स्नेह उसे प्राप्त रहा है। आशा है आगे भी आशिर्वाद बनाए रखेंगे। साथ ही कुछ राय भी ले लें जो कि अपने देश में मुफ्त मिलता है। लोग इसे देने में दानवीर कर्ण को भी पछाड़ देते हैं। राय कई तरह के हो सकते हैं, मसलन - किस टेंट वाले को ठेका दिया जाए?, मेन्यू में क्या-क्या रखा जाए?, शर्मा जी को कार्ड देना उचित होगा कि नहीं?, गहने कहाँ से बनावाए जाएँ? आदि आदि...। यह अलग बात है कि सारी चीजें आपने पहले से ही फिक्स कर रखी है। बस इतना कर दें, भारतीय मनोदशा बड़ी ही इमोशनल होती है। लोग तो आएँगे ही, साथ ही जी- जान लगाकर आपका सहयोग भी करेंगे। हमारे सामाज में सबसे बदतर स्थिति उस दुल्हे की होती जो जोश में स्वयं अपने शादी का कार्ड बांटने निकल जाता है। लोग कहते हैं "देखो तो, कितना व्याकुल/ बेहया है अपनी शादी के लिए"।

पारंपरिक कार्ड प्राय: टू फोल्डेड होता है। दायाँ भाग ज्यादा महत्वपूर्ण होता है। तो पहले उसी पर एक नज़र -

किसी भी शादी कार्ड के सबसे उपर "श्री गणेशाय नम:" लिखा होता है। इसके ठीक नीचे गणेश जी की स्तुति होती है जैसे - "वक्रतुंड महाकाय सूर्यकोटी समप्रभ निर्विघ्नं कुरु मे देव सर्व कार्येषु सर्वदा " । मान्यता है कि गणपति के नाम से शुरू किया गया कोई भी कार्य निर्विघ्न संपन्न हो जाता है। न्यूक्लियर डील से पहले अगर "सेक्यूलर सरकार" गणपति पूजा करवा लेती तो डील निश्चित रूप से पास हो गई होती। किसी-किसी कार्ड पर "सर्वमंगल-मांगल्ये शिवे सर्वाथॆ-साधीके........॥" वाला श्लोक भी लिखा मिल जाएगा।
स्तुति के ठीक नीचे "जेनरल से पार्टिकुलर" वाला भाग शुरू होता है। यह हिस्सा सबसे महत्वपुर्ण होता है। यह इंट्रो से बाडी का ट्रांजीशन प्वांईंट भी होता है।


परमपिता परमेश्वर की असीम अनुकंपा से
हमारे सुपौत्र
चिरंजीवी/ आयुष्मान - महेश
(सुपुत्र - श्रीमती चपकलिया देवी एवं श्री बूटन सिंह)
संग/ परिणय
स्वस्तिमति/ सौभाग्याकाँक्षिणी - रूबी
(सुपुत्री - श्रीमती अंजू सिंह एवं श्री ललटू सिंह)

के दांपत्य सुत्र/ बंधन/ पाणिग्रहण संस्कार के शुभ/ पुनीत अवसर पर पधार कर वर-वधु को अपने स्नेहाशीष से अभिषिक्त कर हमें अनुग्रहित करें।
या
के शुभ परिणयोत्सव के शुभ वेला पर आपकी स्नेहमयी उपस्थिति एवम् आशीष हेतु हमारा स्नेह भरा आमंत्रण।

दर्शनाभिलाषी में प्राय: लड़के/ लड़की के पिता या फिर दादा का नाम होता है। वहीं आकांक्षी में परिवार के अन्य सदस्य और (इन लॉज या कुकुरमुत्ते की tarah उग आए रिश्तेदार) का नाम ठूंस दिया जाता है। मसलन दामाद, बहनोई, मामा और घर के चवन्नी-अठन्नी। जगह के कमी के कारण कोई छूट न जाए इसलिए अंत में समस्त मिश्र\ सिंह\ प्रसाद\ श्रीवास्तव परिवार लिखकर भविष्य में होने वाले विवादों पर विराम लगाने का असफल प्रयास कर दिया जाता है। यह आदर्श स्थिति है। अब कल्पना करें कि वर या कन्या का चाचा, मामा, जीजा आदि, आदि में से कोई भी वरिष्ट सरकारी पद को सुशोभित कर रहा है या भूतकाल में कभी करता था। ऐसे में व्यक्ति के नाम के साथ उसका पद बोल्ड अक्षरों में लिखा मिलेगा। इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि व्यक्ति उस पद पर एड-हॉक बेसिस पर है या परमानेन्ट। मसलन श्री गंगा नाथ झा - भारतीय प्रशासनिक सेवा, श्री राजेंद्र सिंह - वरिष्ट अभियंता, श्री एन आर लाल - मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट। अगर रिटायर हो चुके है तो नाम से पहले छोटे अक्षर और हल्के स्याही से रि. कर्नल यू एन झा। पद को नाम से ज्यादा अहमियत दी जाती है। इसमे कुछ ग़लत भी नहीं है। शैक्सपियर ने कहा था न कि " नाम में क्या रखा है - फूल को जिस नाम से पुकारो वह फूल ही रहेगा"। या फिर "पद या संस्था हमेशा व्यक्ति से बड़ी होती है"। इन नामों का क्रम परिवार में "डिग्री आफ क्लोजनेश" का भी इंडिकेटर होता है। नाम सबसे पहले है तो आपके संबंध मधुर हैं और अंत में हैं तो आप समझ सकते हैं। और अगर नाम है ही नहीं तब तो....।

इसके अलावा हाल के वर्षों में कुछ नयी या कहें विचित्र ट्रेंड देखने को मिला है। जैसे - चुन्नू-मुन्नू के चाचा/ मामा की शादी में जलूल-जलूल आना। ये शब्द किसी बच्चे की तुतली जुबान की लगती है। हलांकि इस लेखन शैली का जन्म कब और किस बिश्खोपड़े ने किया कहना मुश्किल है।

कुछ कार्डों में - कृप्या गिफ्ट लेकर न आएँ भी छपा मिल जाएगा। दरअसल यह एक रिमांईडर है। रिमांईडर है कि भई, बिना गिफ्ट के कैसी शादी! लिखने का आशय होता है कि उपहार के बिना खाली हाथ झुलाते हुए आने का जोखिम न लें। उपहार लाओ तो कोई बात बने। अपनी-अपनी श्रद्धा है। मुझे लगता है कि इस लाईन का खोज़ उपहार लाने की घटती प्रवृति को ध्यान में रखकर किया गया होगा। गिफ्ट जरूर आए इसलिए मेहमानों को इमोशनली ब्लैक मेल करने के वास्ते एक शेर भी लिख दिया जाता है - शिकवा न हमें कोई मंज़ूर, न कोई बहाना होगा.....हमारी खुशियों की कसम, आपको आना होगा।

अभी हाल में एक कार्ड देखने को मिला जिसमें बांएँ साईड में सबसे नीचे लिखा था - नोट : कृप्या महिलाओं का भी निमंत्रण इसी कार्ड द्वारा स्वीकार करें ऐसे महिलाओं के लिए अलग से कोई कार्ड हिन्दुस्तान में छपता हो, यह बात मेरी जानकारी में नही थी।

आजकल हिंदी में लिखे कार्ड अपने अंग्रेज़ी भाईयों से भी ख़ासे प्रभावित दिखते हैं। उदाहरण स्वरूप आपको अब खालिश देशी कार्ड पर भी आरएसवीपी लिखा दिख सकता है। इस फ्रेंच एक्सप्रेशन का मतलब मैं पिछले दो दशकों से ढ़ूढ़ रहा हूँ।

अब एक नज़र कार्ड के बाईं साईड पर।
इधर भी सबसे उपर मोंटाज में गणेश जी का ही रिज़र्वेशन होता है। उसके नीचे गणेश मंत्र - ।। मंगलम भगवान विष्णु.....।।
इसके नीचे कार्ड का सबसे मज़ेदार हिस्से से आपका सामना होगा। टू लाईनर्स का हिस्सा। यानि दो लाईन वाले कविता, गीत, शेर, नज़्म...कुछ भी कह लीजिए। इसकी एक झलक आप भी देखिए -
कुछ रोमांटिक:
भेज रहे हैं स्नेह निमंत्रण, प्रियवर तुम्हें बुलाने को.....हे मानस के राजहंस, तुम भूल न जाना आने को।

दो फूल खिले, दो हृदय मिले, दो सपनों ने श्रृंगार किया.....दो दूर देश के पथिकों ने संग-संग चलना स्वीकार किया। (अरे भैया, काहे और कहाँ का स्वीकार)

सजा रहे यह बाग बगीचा "कालू" जैसे माली से....तुम भी सजी रहो "चमकि" अमर सुहाग की लाली से।


कुछ इमोशनल:
बाबुल तू बगिया के तरूवर, हम तरूवर की चिड़िया रे...दाना चुगते उड़ जाएं हम, पिया मिलन की घड़ियाँ रे।

कुछ ज्यादा ही इमोशनल:
बाबुल की दुआएँ लेती जा,..........।


मुझे लगता है इन कविताओं को लिखने वाले वित्तरहित कालेज के प्रोफ़ेसर रहे होंगे, जो तनख्वाह न मिलने के कारण इस क्षेत्र में भाग्य आजमाने के लिए आए होंगे।

कार्ड के इसी हिस्से में ही वैवाहिक कार्यक्रम भी छपा होता है। बचपन में कार्ड का यही हिस्सा ही सबसे ज्यादा आकर्षित करता था। अरे भाई, खाने-पीने का प्रोग्राम यहीं लिखा होता है न। जैसे -

दिनांक 08-03-2007, दिन बृहस्पतिवार - मण्डपाच्छादन एवं घृतढरी
दिनांक 10-03-2007, दिन शनिवार - रात्रि में शुभ विवाह और प्रीतिभोज

इसी प्रीतिभोज शब्द पर आँखें ठिठक जाती थीं। अब किसकी, किससे शादी हो रही है इससे बच्चे को क्या मतलब। बच्चा तो अबोध होता है न। खाएगा-पिएगा और सबसे बड़ी बात यह कि किताबों से छुट्टी। मन करता था कि शादी में पिताजी देर तक दोस्तों से बतियाते रहें। लौटने लगें तो मेजबान पिताजी को थोड़ी देर और रुकने के लिए बोलें। उन्हें भी अच्छा लगेगा और मुझे तो बहुत अच्छा लगेगा।

मज़े की बात यह है कि कार्ड किसी भी वीवीआईपी का क्यों न हो, प्रिंटर महोदय कोई भी मौका नहीं छोड़ते अपने विज्ञापन का। प्रिन्टिंग प्रेस का नाम, पता, पिन कोड, मय दूरभाष नं., इतने बोल्ड लेटर में छपा होता है जितना लड़का, लड़की या उसके बाप का भी नहीं होता है। एक बानगी यूं है -

अग्रवाल कार्डस्
दरियापुर गोला
पटना - 800012
0612 - 2680243, मो. 9835050312

पता नहीं आजतक किसी ने इस बात पर कोई आपत्ति क्यों नहीं की!

एक संभावना यह भी है कि भविष्य में वीआईपी शादियों के कार्ड को निजी कंपनियाँ स्पांसर कर सकती हैं।

इस लेख को लिखने के क्रम में एक मित्र से फोन लगाकर पूछा कि वो एकाध गणपति के श्लोक सुझाएं। ऐसे श्लोक जो प्राय: शादी के कार्डों पर लिखा होता है। उनका कहना था कि फोन लगा कर पटना में पिताजी से पूछ लो न। उन्हें याद होगा। घबरा गया......सोचा, कहीं वो न घबरा जाएँ।

Saturday, October 20, 2007

......नारे हैं नारों का क्या!


स्वाधीनता हमारा जन्म सिद्ध अधिकार है...सरफरोशी की तमन्ना.... अंग्रेजों भारत छोड़ो...तुम मुझे ख़ून दो.....दिल्ली चलो......चढ़ गुंडों की छाती पर......वोट पड़ेगा हाथी पर... नहीं तो लाश मिलेगी घाटी पर......!

चकरा गए न!!!! माफ़ कीजिए यह पिछले सौ सालों मे नारों को विकास का अगला चरण है और "सभ्यता" के विकास का भी। इन सालों में हम आजाद भी हुए, गणतंत्र भी बने और अब आर्थिक शक्ति बनने की ओर तेज़ी से अग्रसर हैं। इन वर्षों में देश की सामाजिक-आर्थिक हालात भी बदले और राजनीति का मिज़ाज़ भी। इन वर्षों में नारों ने भी एक लंबा सफ़र तय किया है। इन्हीं नारों के सहारे गोपालगंज के लालू, बिहार के गद्दी पर काबिज़ हुए, तो नारों नें ही वाजपेयी के फ़ील गुड की हवा भी निकाल कर उनके याददाश्त को संट कर दिया। तो चलिए मेरे साथ देश में "नारों" के इस अनोखे और दिलकश़ सफ़र पर।

आज़ादी मिलने के तुरंत बाद कम्युनिस्ट पार्टी नें भारत को आज़ाद मानने से ही इंकार कर दिया था। पार्टी नें 1948 में 'देश की जनता भूखी है - यह आज़ादी झूठी है' के नारे के साथ राष्ट्रव्यापी हड़ताल का आह्वान किया था। हड़ताल असफ़ल रहा और इस नारे की असफलता नें किसानो और मजदूरों के बीच कम्युनिस्टों के साख पर भी बट्टा लगा दिया।

1948 में प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के गठन के कुछ वर्षों बाद ही सोशलिस्ट पार्टी में विभाजन की प्रकिया शुरु हो गई। जय प्रकाश नारायण क्षुब्ध होकर भूदान आंदोलन में शामिल हो गए। डॉ लोहिया ने संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी (सं सो पा) नाम से एक अलग पार्टी बना लिया। पार्टी का नारा था "संसोपा ने बाँधी गाँठ....पिछड़ा पावे सौ में साठ"। वीपी मंडल ने 1978 में जब मंडल आयोग की रिपोर्ट पेश की, तो इस नारे की छाप कहीं न कहीं उसमें स्पष्ट थी। 1967 में जब दस राज्यों में पहली बार गैर काँग्रेसी सरकार बनी तो एक नारा आया था - "मधु लिमये बोल रहा है, इंदिरा शासन डोल रहा है"। लेकिन शासन डोलने से पहले ही इस रणनीति के सुत्रधार डाक्टर लोहिया स्वर्ग सिधार गए।

1970-71 में काँग्रेस नें 'गरीबी हटाओ' का नारा दिया। इस नारे का असर कुछ इतना व्यापक था कि इसने इंदिरा गाँधी को रातों-रात गरीबों का मसीहा बना दिया। मानो मैडम के राज में हिंदुस्तान अगले ही साल अमरीकी जीवन स्तर प्राप्त करने वाला था। न ऐसा हुआ, न ही ऐसा होने वाला था। जनता एक बार फिर से बेवकूफ़ बनी। 1971 में बांग्लादेश युद्ध में विजय के बाद इंदिरा गाँधी तो बाकौल वाजपेयी "चंडी" बन गई। चमचागिरी का नायाब नमूना पेश करते हुए काँग्रेसी नेता देव चंद बरूआ ने तो इंदिरा पुराण का पहला श्लोक ही लिख दिया - "काँग्रेस इज़ इंदिरा एंड इंदिरा इज़ इंडिया"

इंदिरा और संजय गाँधी के मनमानी के फलस्वरूप सत्तर के दशक में बड़े पैमाने पर आंदोलन हुए। छात्रों और युवाओं ने इसकी अगुआई की और इसके नेता बने डॉ. जय प्रकाश नारायण। उनके नेतृत्व में हुए छात्र आंदोलन से निकला नया नारा था, ‘संपूर्ण क्रांति अब नारा है, भावी इतिहास हमारा है।’ जेपी के विचारों ने उस समय छात्रों पर जादू का काम किया। छात्र आंदोलन ने ‘जन आंदोलन’ का रूप लेकर पूरे देश में तूफ़ान खड़ा कर दिया। इस आंदोलन का ही परिणाम था कि ’77 में कांग्रेस को दरकिनाकर कर सत्ता में जनता पार्टी की सरकार काबिज़ हो गयी। मजे की बात यह है कि इस आंदोलन से निकले तमाम बड़े नेता चोरों के सरदार साबित हुए और जनता की गाढ़ी कमाई को जातिवाद की चाशनी में लपेट कर वर्षों तक डकारते रहे। सिलसिला जारी है।

25 जून 1977 को इंदिरा गाँधी ने देश पर आपातकाल थोप दिया। भारतीय लोकतंत्र का गला घोंटा गया था वो भी नेहरू के बेटी के हाथों। वो नेहरू, जो लोकतंत्र के सबसे बड़े पैरोकार थे। इस घटना से विचलित होकर बाबा नागार्जुन ने एक कविता लिखी थी। 'इंदु जी, इंदु जी क्या हुआ आपको...सत्ता की मस्ती में भूल गयीं बाप को'। बाबा अपने कविता को और प्रभावशाली बनाने के लिए नुक्कड़-चौराहों पर नाचने भी लगते थे, और उन्हें सुनने के लिए दसियों हजार की भीड़ आती थी। लेकिन उस बेचारी भीड़ को क्या पता था कि साँप नाथ को हटाकर वो नाग नाथ को गद्दी सौंपने वाली है। आपातकाल के दौरान ही समाजवादियों नें एक और नारा गढ़ा था - "अंधकार में तीन प्रकाश- गाँधी, लोहिया, जयप्रकाश"। गाँधी और लोहिया तक तो ठीक थे लेकिन जयप्रकाश तब विवादों के घेरे में आ गए जब उन्होंने पुलिस और सेना को खुलेआम सरकार की अवमानना करने के लिए उकासाया था। जेपी के चेलों ने जबरन विधायकों को धमकाकर उनका इस्तीफा लिखवा लिया था। पूत के पाँव पालने में ही दिख गए थे।

आपातकाल के बाद जब सन् 1977 के चुनाव में कांग्रेस बुरी तरह हारी। यहां तक कि मैडम के ख़ुद का झुमका भी (राय) बरेली में गिर गया , संजय गांधी भी हार गए थे। मोरारजी भाई देसाई प्रधानमंत्री बने। जनता सरकार के विफलताओं में एक थी मँहगाई को नहीं रोक पाना। काँग्रेस नें तब नारा दिया था 'देखो भाई मोरारजी का खेल...दस रूपए हो गया कड़ुवा तेल'। यह नारा इस अंदाज़ में दिया गया था मानो काँग्रेस राज आते ही वो कड़ुआ तेल पाँच रुपए हो जाने वाला था! खैर, मैडम फिर 1978 में चिकमंगलूर से पुन: सांसद चुन ली गईं। इस चुनाव काँग्रेसियों ने नारा दिया - "एक शेरनी, सौ लंगूर - चिकमंगलूर, चिकमंगलूर"। और सही में मैडम शेरनी साबित हुईं और जनता सरकार लंगूरों का झुंड।

1977 में बनी जनता सरकार सिर्फ दो साल में भानुमती के कुनबे की तरह बिखर गई। 1979 में काँग्रेस के उकसावे में चौधरी चरण सिंह ने जनता सरकार से अपना समर्थन वापस ले लिया और काँग्रेस के समर्थन से अपनी सरकार बना ली। 1980 में काँग्रेस ने चरण सिंह सरकार को दिया अपना समर्थन वापस ले लिया और सरकार गिर गई। देश के सामने फिर से एक आम चुनाव था। इस चुनाव में जनता पार्टी के विफलताओं को भुनाते हुए काँग्रेस नें नया नारा दिया। 'सन् सतहत्तर की ललकार...अस्सी में इंदिरा सरकार'। इस जनता-ई महाभारत ने काँग्रेस के सारे पुराने पाप धो दिए और मैडम फिर से गद्दीनशीं हो गई।

31 अक्तुबर 1984 को इंदिरा गाँधी के दो अंगरक्षकों ने उनकी हत्या कर दी। काँग्रेसियों ने नया नारा दिया - "जब तक सूरज-चाँद रहेगा - इंदिरा तेरा नाम रहेगा"। अगले साल हुए आम चुनाव में पूरे हिंदुस्तान ने इस नारे को हाथों-हाथ लिया - कुछ इस अंदाज़ में कि सियासत के नौसिखुए राजीव गाँधी 415 सांसद लेकर पार्लियामेंट पहुंच गए। प्रधानमंत्री बनते ही उन्होंने सिख विरोधी दंगों की जलती घाव पर ये कहते हुए नमक छिड़क दिया कि "जब बड़ा पेड़ गिरता है तो छोटे पौधे कुचले ही जाते हैं"! ".......इंदिरा तेरा नाम रहेगा" की बाद में ऐसी दुर्गति हुई कि हर छुटभय्ये मोहल्ले लेवल के चोर उचक्के से नेता बने लोगों के मरने (या इंकाउंटर) के बाद उनके चेले इसे पंचम स्वर में गाने लगे।

3 दिसंबर 1989 को भाजपा और वामपंथियों के समर्थन से जनता दल के विश्वनाथ प्रताप सिंह प्रधानमंत्री बने। राजा मांडा के समर्थकों ने उस वक्त दो नारे इज़ाद किए थे। पहला - "राजा नहीं फकीर है - भारत की तकदीर है" और - "भारत का है एक नाथ - विश्वनाथ, विश्वनाथ"। उससे पहले बोफोर्स कांड में घिरे राजीव गाँधी पर राजा के समर्थकों ने बड़े ही व्यक्तिगत और विवादास्पद किस्म के नारे उछाले थे - "गली-गली में शोर है - राजीव गाँधी चोर है"। काँग्रेसियों ने इस नारे के जवाब में दहला जड़ा था - "चक्र नहीं यह चक्का है - वीपी सिंह उचक्का है"। नारों का यह दौड़ सचमुच राजनीतिक-सामाजिक जीवन का अवसान काल था जिसमें शिखर स्तर पर इस तरह के घटिया आरोप लगाए जा रहे थे। यह आने वाले समय की बानगी थी। अगले ही साल आडवाणी को बिहार के समस्तीपुर में रथ यात्रा के दौड़ान 23 अक्तूबर 1990 को लालू यादव नें गिरफ्तार करवा दिया और वीपी सरकार एक साल के अंदर ही शहीद हो गई। फिर काँग्रेस के समर्थन से चंद्रशेखर देश के प्रधानमंत्री बने। लेकिन उनकी सरकार भी मात्र 4 महीने ही चल पाई। देश ने फिर से एक आम चुनाव झेला। इस चुनाव में काँग्रेस ने इन पार्टियों का मज़ाक उड़ाते हुए कहा था -"अलग-अलग यह ताल देखिए - यह खिचड़ी सरकार देखिए, ताल नहीं है-मेल नहीं है, राजनीति कोई खेल नहीं है"। वहीं चंद्रशेखर की पार्टी ने अपने चार महीने के कार्यकाल के आधार पर - "चालीस साल बनाम चार महीने" के नारे के साथ चुनावी महासमर में छलांग लगाया था। इसी चुनाव में जनता दल का नारा था - "तानाशाही का पंजा हो - यहाँ ख़ूनी कमल का निशान, वोट हमारा कहाँ गिरेगा - जहाँ चक्र का है निशान"

देश की राजनीति तेज़ी से करवट बदल रही थी। मंडल और कमंडल का प्रभाव राजनीति पर बढ़ता ही चला गया। एक तरफ भाजपा और संघ ने नारा दिया - "हम कसम राम की खाते है, अब मंदिर वहीं बनाएंगे", "गर भारत में रहना हे तो बोलो वंदे मातरम्"। वहीं काँग्रेस का नारा था - "बापू हम शर्मिंदा हैं, तेरे कातिल जिंदा हैं"। नब्बे के दशक ने उत्तर भारत में पिछड़ों और दलितों का सियासत में बढ़ता हुआ दबदबा भी देखा और बसपा का मनुवादियों के ख़िलाफ अभियान ने तो मानो पूरे सामाजिक वातावरण को और विषाक्त कर दिया जिसकी शुरुआत मंडल से हुई थी। कांशीराम का नारा था - "तिलक, तराजू और तलवार - इनको मारो जूते चार"। साथ ही मायावती ने तो गाँधी को "शैतान की औलाद" तक कह दिया। उसी दौड़ में भाजपा का एक नारा था - "भारत माँ के तीन धरोहर, अटल, आडवाणी, मुरली मनोहर"। मानो देश की एक अरब जनता इन तीनों के सिवाय बेवकूफों और मूर्खों की भीड़ थी! समाजवादी पार्टी ने उसी दौड़ में एक नारा दिया था - "चलेगी साईकिल, उड़ेगी धूल, न रहेगा पंजा, न रहेगा फूल"

इस समय तक लालू यादव बिहार में पिछड़ों के मसीहा बन चुके थे। लालू के समर्थकों का नारा था - "जब तक रहेगा समोसे में आलू, तब तक रहेगा बिहार में लालू"। यह नारा तकरीबन डेढ़ दशक तक बिहार की हक़ीकत बना रहा। समोसे में आलू की तरह बिहार में लालू तो जम गए, लेकिन बिहार के विकास का महल, बालू की तरह ढ़ह गया। लालू का मिज़ाज तो इतना चढ़ गया कि चारणों ने नए नारे तक गढ़ लिए - "बहार हो, बरसात हो, गर्मी हो या ठंडा - लाल किले पर 15 अगस्त को लालू फहराएगा झंडा"। लालू जी लाल किले पर तो नहीं चढ़ पाए लेकिन चारा घोटाले नें उन्हे "लाल कोठी" जरूर दिखा दी।

1996 में जब वाजपेयी की तेरह दिनी सरकार शहीद हो गई तो भगवा बिग्रेड का नारा था - "राजतिलक की करो तैयारी, अबकी बारी अटल बिहारी"। संघियों का समानांतर नारा चल ही रहा था - "जो हिंदू हित की बात करेगा - वही देश पर राज करेगा"। भाजपाईयों ने नारा गढ़ने में सबको पीछे छोड़ दिया। जैसे - "चप्पा, चप्पा भाजपा और भाईयों, बहनों भूल न जाना - फूल छोड़ कर दूर न जाना"। भाजपा अनुप्रास-अलंकार की विशेषज्ञ बन गयी। आडवाणी के जुबान से 'भय, भूख और भ्रष्टाचार व शुचिता और सुशासन' फूल की तरह झड़ने लगे। ये बात अलग है कि बाद में तहलका से लेकर अन्य कई घोटालों ने 'पार्टी विद् डिफरेंस' की कलई खोल कर रख दी। प्रख्यात साहित्यकार राजेंद्र यादव ने तो भगवा पार्टी को भग-वा घोषित कर दिया!

2004 का आम चुनाव भाजपा ने "इंडिया शायनिंग" के खुशनुमा माहौल में लड़ा था। लेकिन जनता ने केसरिया पार्टी की निकर उतार दी। काँग्रेसियों ने नारा दिया - "पिछली बारी अटल बिहारी, अबकी बारी बहू हमारी"। पंजा का नया नारा था - "देश की आँधी, सोनिया गाँधी", "काँग्रेस का हाथ, आम आदमी के साथ"। लेकिन न तो सोनिया देश की आँधी बन पाईं और न ही पंजा गरीबों का हाथ, जैसा कि कालांतर में स्पष्ट हो गया। अलबत्ता काँग्रेस ने जोड़-तोड़ कर वामपंथियों के सहयोग से सरकार जरूर बना ली। अब, जब कि मँहगाई फिर से बढ़ रही है भगवा बिग्रेड काँग्रेस का मजाक उड़ा रही है - "काँग्रेस की लात, आम आदमी के साथ"। हाँ पिछले लोक सभा चुनाव में अमेठी में चुनाव प्रचार के दौड़ान काँग्रेसियों ने एक नारे को रामचरितमानस की तरह गाया था - "अमेठी की डंका - बेटी प्रियंका"। लेकिन लगता है बेटी को परमानेंनटली ससुराल भेज दिया गया है।

मजे की बात ये है कि इस बीच माया मेम साब के नेतृत्व में बसपाईयों ने सारे नारों की माँ-बहन एक कर दी। 2007 के विधान सभा चुनाव में तिलक-तराजू को जूते मारने वाले पार्टी ने चोला ही बदल लिया। बसपा का नया नारा था - "पंडित शंख बजाएगा, हाथी बढ़ता जाएगा""हाथी नहीं गणेश है, ब्रह्मा-विष्णु महेश है"। पंडितों ने तो और भी कमाल किया, उन्होंने दलितों के साथ सुरीली राग भैरवी गाई - "पत्थर रख लो छाती पर, वोट पड़ेगा हाथी पर"। यह अवसरवादी जातिवाद का नायाब नमूना था। शेर और बकरी एक ही घाट पर पानी पीने लगे।

इसी चुनाव में मथुरा विधानसभा क्षेत्र से एक प्रत्याशी ने तो गजब का नारा दिया। उसका नारा था- ‘आई ऐम नॉट द बेस्ट, बट आई ऐम द रिचेस्ट’ यानी मैं सबसे अच्छा प्रत्याशी नहीं हूँ लेकिन सबसे मालदार हूँ। उसका आशय था कि यदि उसे चुना गया तो वो आर्थिक गोलमाल नहीं करेगा। भाई साब अभी भी जनता को भोलेनाथ समझ रहे थे।

बहरहाल, एक महत्वपूर्ण नारा तो छूट ही गया। सरकार नें जब उच्च शिक्षा में आरक्षण लगाने की कोशिश की तो सवर्ण छात्रों ने नारा गढ़ने में जबर्दस्त "योग्यता" का परिचय दिया - "अर्जून नहीं यह कर्ज़न है - प्रतिभा का विसर्जन है".....................।

सिलसिला जारी है। मेरी जानकारी में ये कुछेक नारे थे। और भी कई होंगे.........आपको कुछ याद आ रहा है????

Thursday, October 18, 2007

अपनी-अपनी खोज़....!


गुगल के नाम से लगभग हर कंप्यूटर इस्तेमाल करने वाला वाकिफ़ होगा। लैरी पेज और सर्जे ब्रिन द्वारा 1996 में स्थापित यह कंपनी रोज़ नए-नए आयाम स्थापित कर रही है। इसके संवृद्धि दर का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि, आज अगर कोई माइक्रोसाफ्ट से इस्तीफा देता है तो अस्सी फ़ीसदी संभावना रहती है कि वह गूगल ही ज्वाईन करेगा। दुनिया के इस सबसे बड़े सर्च इंजन ने अपनी वेबसाइट का इस्तेमाल करने वालों के बारे में एक आंकरा जारी किया है जो बेहद ही दिलचस्प है। इन आंकरों में बताया गया है कि किस देश के लोग गूगल पर क्या सर्च करना ज्यादा पसंद करते हैं। मसलन मिस्र, भारत और तुर्की में सबसे ज्यादा "सेक्स" शब्द को खोजा जाता है। वहीं जर्मनी, मेक्सिको और आस्ट्रिया में सबसे ज्यादा खोजा जाने वाला शब्द "हिटलर" है।
नीचे किस देश में कौन सा शब्द ज्यादा खोजा गया है उसकी सूची दी जा रही है:

"जिहाद" - मोरक्को, इंडोनेशिया और पाकिस्तान
"आतंकवाद" - पाकिस्तान, फिलीपीन्स, ऑस्ट्रेलिया
"हैंगओवर" - आयरलैंड, ब्रिटेन और अमरीका
"ईराक" - अमरीका, ऑस्ट्रेलिया और कनाडा
"तालिबान" - पाकिस्तान, ऑस्ट्रेलिया और कनाडा
"टॉम क्रूज़" - कनाडा, अमरीका और ऑस्ट्रेलिया
"ब्रिटनी स्पियर्स" - मेक्सिको, वेनेज्वेला और कनाडा
"होमोसेक्सुअल" - फिलिपीन, चिली और वेनेज्वेला
"लव" - फिलिपीन, ऑस्ट्रेलिया और अमरीका
"बटाक्स" - ऑस्ट्रेलिया, अमरीका और ब्रिटेन
"वियाग्रा" - इटली, ब्रिटेन और अमरीका
"डेविड बेकहम" - वेनेज्वेला, ब्रिटेन और मेक्सिको
"केट मॉस" - आयरलैंड, ब्रिटेन और मेक्सिको
"डॉली बस्टर" - चेक गणराज्य, आस्ट्रिया और स्लोवाकिया
"कार बम" - ऑस्ट्रेलिया, अमरीका और कनाडा
"मिरजुआना" - कनाडा, अमरीका और आस्ट्रिया
"आईएईए" - आस्ट्रिया, पाकिस्तान और ईरान



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Friday, October 12, 2007

दहेज़ में रिवाल्वर

प्रश्न: रहस्य व रोमांच के धागे, कलम रूपी सुई में पिरोकर रोचक व तेज़ रफ्तार वाले कथानक का 'ताना-बाना' बुनने वाले केशव पण्डित के थ्रिलर, सस्पेंस और रोमांस से फुल हहाकारी उपन्यास सबसे ज़्यादा क्यों पढ़े जाते हैं?

उत्तर: ये उस दूल्हे से पूछिए, जो 'सुहाग-सेज' पर बैठी दुल्हन को भुलाकर पहले केशव पण्डित के उपन्यास को पढ़ता है तथा फिर उसी उपन्यास को 'मुंह दिखाई' में अपनी दुल्हन को भेंट कर देता है!

माफ़ कीजिएगा यह मेरा सवाल-जवाब नहीं है। यह तो प्रोमो है.....प्रोमो है केशव पण्डित के आने वाले हहाकारी उपन्यास का। ऐसा हहाकारी उपन्यास जो आपके तन, बदन और मन तीनों को सुलगा कर रख देगा। अब जरा इस तरह के अन्य प्रलयकारी उपन्यास के नामों पर एक नज़र डालिए - जूता करेगा राज, ख़ून से सनी वर्दी, कानून किसी का बाप नहीं, सोलह साल का हिटलर, धमाका करेगा रोटी, लाश पर सजा तिरंगा, खू़न बहा दे लाल मरे, शेर के औलाद, तबाही मचाएगी बिधवा, नागिन माँगे दूध, चींटी लड़ेगी हाथी से, पगली माई बोले जयहिन्द, लड़ेगा भाई भगवान से, अंधा वकील गूंगा गवाह, गंगा बहेगी अदालत में, जूता उँचा रहे हमारा, तू पण्डित मैं कसाई, बालम का चक्रव्यूह, झटका 440 वोल्ट का, बारात जाएगी पाकिस्तान, क़ातिल मिलेगा माचिस में, दहेज़ में रिवाल्वर....और भी कई अगड़म-बगड़म नाम।

जवान हो रहा था। स्कूलिया साहित्य से मन ऊब सा गया था। सुभद्रा कुमारी चौहान के वीर रस की कविताओं का रस भी सूख सा गया था। सिलेबस की किताबें काटने को दौड़ती थीं। तब इन्हीं लुगदी कागज पर लिखे जाने वाले साहित्यों ने मुझे बचाया था। कहने का मतलब पढ़ने में मेरी रूचि को बचाए रखा था। ये अगड़म-बगड़म नहीं होते तो आज मैं भी वो नहीं होता जो हूँ। और भी अच्छा हो सकता था या और भी बुरा। बाद वाले की संभावना ज्यादा थी। उस वक्त दिल को दो ही लोग सुकून देते थे। मिथुन चक्रवर्ती और वेदप्रकाश शर्मा। इन घासलेटी साहित्य से अपना दिल कुछ ऐसा लगा कि परिवार और सामाज नें 'आवारा' का तगमा तक दे दिया। पिताजी विद्यापति, प्रेमचंद और नागार्जून से जितना प्यार करते थे उससे कई गुणा ज्यादा मेरे आदर्श वेदप्रकाश शर्मा, रानू, कुशवाहा कांत या फिर गुलशन नंदा से नफरत। देश में जिस वक्त रामायण, महाभारत जैसे सीरियल सड़को को वीरान बना रहे थे, ठीक उसी समय 'वो साला खद्दरवाला' मेरे अंदर बैठे विद्रोही को सुलगा रहा था। टेलीविजन पर रामायण शुरू होते ही लोग उससे चिपक जाते थे और मैं अपने घासलेटी साहित्य से। शायद यही कारण रहा हो कि मर्यादा पुरषोत्तम राम या फिर धर्म राज के जगह मेरा आदर्श कर्नल रंजीत बना। कर्नल रंजीत जिसके पास दुंनिया के हर समस्या का समाधान था। जो सांइटिफिक तरीके से सोचता था। कमाल तो भगवान राम भी करते थे। लेकिन उनके चमत्कार में मेरे "कैसे?" का जवाब नहीं होता था। वहीं रंजीत के हर कमाल का सांईटिफिक एक्सपलानेशंस होता था। फिर चाहे वो सिगरेट के राख से क़ातिल को पकड़ना हो या डीएनए टेस्ट से मरने वाले के बारे में पता लगा लेना। उन अगड़म-बगड़म कहाँनियों के खलनायकों के नाम भी मुझे खासे आकर्षित करते थे। मसलन चक्रम, अल्फांजो, जम्बो, गोगा, टुंबकटू, कोबरा आदि आदि। कहानियों को लिखने का अंदाज इतना निराला होता था कि पाठक उस पढ़ते वक्त सिर्फ़ और सिर्फ़ उसी के होकर रह जाते थे। कुछ-कुछ वैसा ही कांसंट्रेशन जैसे वाल्मिकी या दुर्वाशा का तपस्या करते वक्त रहा होगा। संवाद ऐसे जीवंत और फिसलते हुए कि सिनेमा या सीरियल के बड़े-बड़े उस्ताद स्क्रिप्ट राइटर, कथाकार के शागिर्द बनने को मचल उठें। लेखन कौशल कि कुछ बानगी आप भी देखिए -



"एक सिगरेट होठों के बीच दबाने पर उसने माचिस से एक तिल्ली निकाल कर मसाले पर उसके सिर को रगड़ा। चट.....की आवाज़ के साथ तिल्ली जली - लेकिन बारिश की आवाज़, बादलों की गरज और बिजली की कड़क में दबकर रह गई।"




"उसने सिगरेट में कश लगाकर कसैले धुऐं की बौछार नैना के चेहरे पर छोड़ी तथा पान का पीक ज़मीन पर थूका। नैना च़ीख पड़ी। उसने नैना की दोनों कलाइयों को आपस में मिलाकर दाहिने हाथ से पकड़ ली और बायीं हथेली को उसके होंट पर प्रेशर कुकर के ढ़क्कन की मानिन्द ही चिपका दिया"




सौदर्य बोध का भी इन लेखकों में कोई कमी नहीं होती है। और उपमा-अलंकार में तो कोई कंजूसी करते ही नहीं -




"मैं डिटेक्टिव एजेंसी खोलना चाहती हूं केशव.....ओनली फॉर लेडीज़....चारमीनार की सिगरेट गुलाबी होंठों के करीब पहुंची ही थी कि झील-सी नीली आंखो वाले केशव ने हाथ को नीचे करके सिगरेट को ऐश-ट्रे में डाल दिया और मुसकराते हुए सोफिया को देखने लगा। कोई उनतीस वर्षीय सोफिया। बला की खूबसूरत अप्सरा सी। रंग ऐसा कि मानों चांदी के कटोरे में भरे दूध में गुलाब की पंखुड़ियों को घोल दिया गया हो। आंखें ऐसी की मानो कांच की बड़ी प्यालियों में शराब डाल कर उनमें हरे रंग के जगमगाते हीरे डाल दिए गए हों। मोतियों से सफ़ेद व दमकते दांत तथा पतले-पतले, नाजुक, गुलाबी व रसीले होंठ। सुनहरे रंग के घने व लंबे केश। लम्बे कद वाला जिस्म - मानो उपर वाले ने मोम को अपने हाथों में सजा-संवार कर उसमें प्राण फूंक दिये हों।" ...... बाप रे बाप।




इन उपन्यास को लिखने वाले प्रमुख लेखकों में वेदप्रकाश शर्मा, रानू, कुशवाहा कांत, गुलशन नंदा, केशव पण्डित आदि हैं। लेकिन इनमें भी वेदप्रकाश शर्मा ने सबसे ज़्यादा नामवरी और धन दोनों कमाई। वेदप्रकाश शर्मा जिसे हिंदी साहित्यकारों की बिरादरी लेखक भी शायद ही माने की रचनाओं नें निर्मल वर्मा, कमलेश्वर या राजेंद्र यादव जैसे दिग्गजों को काफ़ी पीछे छोड़ दिया है। मेरठ के वेदप्रकाश 2005 में अपनी उम्र के पचास साल पूरे होने के मौक़े पर एक विशेषांक "काला अंग्रेज" लिखा, जो उनका 150वाँ उपन्यास था। शर्मा पिछले बीस साल से सबसे बिकाऊ लेखक हैं। उनका सबसे ज़्यादा बिकने वाला उपन्यास "वर्दी वाला गुंडा" था जिसकी क़रीब 15 लाख प्रतियाँ बिकीं. उनके दूसरे उपन्यास भी औसतन 4 लाख बिक जाते हैं। शर्मा के उपन्यास पर फ़िल्म - "बहू मांगे इंसाफ" बनी जिसमें दहेज की समस्या को नए कोण से उठाया था। इसके अलावा उनके उपन्यास 'लल्लू' पर 'सबसे बड़ा खिलाड़ी' और 'सुहाग से बड़ा' पर 'इंटरनेशनल खिलाड़ी' बन चुकी हैं. अब हैरी बावेजा 'कारीगर' बना रहे हैं, वहीं 'कानून का बेटा' पर भी एक फिल्म बनाई जा रही है. इनकी पटकथाएँ भी शर्मा लिख रहे हैं।




इन उपन्यासों के लेखकों के हिसाब से उनका पात्र भी यूनिक होता है और उनकी पसंद भी। मसलन सुरेंद्र मोहन पाठक के हीरो सुनील और विमल मँहगे "डनहिल" या "लकी स्ट्राईक" सिगरेट का ही कश लेगा। वहीं केशव पण्डित के कहानियों का हीरो केशव मुफलिसी में जीता है और सस्ते "चारमीनार" को धूककर ही संतुष्ट दिखता है। इसी प्रकार सुरेंद्र मोहन पाठक के "ब्लास्ट" अख़बार का रिपोर्टर सुनील जिस होटल या रेस्त्रां में जाता था घटना या दुर्घटना भी वहीं होता था।




लगभग हरेक उपन्यास के पीछे लेखक के आगामी उपन्यास का टीज़र जरूर छपता है। इन टीज़रों को इतने आकर्षक ढ़ग से लिखा जाता है कि पाठक अगली उपन्यास को ख़रीदने को मजबूर सा हो जाता है। एक बानगी इसकी भी पढ़िये -




"इस बार दिमाग के जादूगर इंस्पेक्टर विजय की टक्कर अपनी ही बीवी सोफिया से हो रही है।"




"मुजरिमों को तिगनी का नाच नचाने वोले केशव पण्डित का दिमाग अपना चमत्कार दिखला पाएगा या सिर्फ़ घूम कर ही रह जाएगा?"




"बिल्कुल नए 'थीम' नये 'आइडिया' पर लिखा गया बेहद रोचक, तेज़ रफ़्तार और सस्पेंस से भरपूर उपन्यास, जो आपके धैर्य की भरपूर परीक्षा लेगा!"


इन उपन्यासों को गौर से पढ़ने पर एक दिलचस्प बात यह सामने आई कि लगभग सभी प्रकाशक मेरठ के ही हैं। यह भी एक शोध का विषय हो सकता है। उपन्यास के पीछे या बीच में छपे विज्ञापन भी काफ़ी मनोरंजक होते है और प्राय: एक ही तरह के होते हैं। मसलन -



"जोरो शाँट रिवाल्वर -जानवरों को डराने के लिए, आत्मरक्षा और नाटकों के लिए। रिवाल्वर के साथ बारह कारतूस मुफ़्त में प्राप्त करें।"




"मात्र 30 दिनों में अंग्रेज़ी सीखें"




इसके अलावा कद बढ़ाने की दवा, इंद्रजाल, वशीकरण अंगुठी, मुकेश के दर्द भरे नगमे, रेकी, रफी के सदाबहार हिट्स, सिंहासन बत्तीसी, बिक्रम बेताल आदि सरीखे किताबों का विज्ञापन। पाँच से ज़्यादा किताब मंगाने पर VPP मुफ़्त।


यह भी देखने में आता है कि इस तरह के उपन्यास बस स्टेंड या रेलवे स्टेशनों पर ही ज़्यादा बिकता है। इसकी भी मनोवैज्ञानिक विश्लेषण होनी चाहिए।

हिंदी की ऐसी हलकी फुलकी, मनोरंजक किताबें हाथों हाथ बिकती हैं जिन्हें साहित्य की श्रेणी में रखने में भी शायद आलोचकों को झिझक हो। अब आलोचकों को यह तथ्य स्वीकार कर लेना चाहिए कि मनोरंजक पुस्तक लोकप्रिय होते हैं। अब यह समय आ गया है कि गंभीर साहित्य लिखने का तरीक़ा भी बदले ताकि ज़्यादा से ज़्यादा लोगों को आकर्षित किया जा सके। निश्चित रूप से ज़्यादातर हिंदी पाठक बदलती जीवनशैली के कारण सस्ते साहित्य की ओर खिंचा चला जाता है। अगर गंभीर साहित्य लिखने वाले लोग वेद प्रकाश शर्मा या सुरेंद्र मोहन पाठक के उपन्यास पढ़ लें, तो वे भी सोचने को मजबूर हो जाएँगे कि वे क्यों पाठकों को अपनी ओर आकर्षित करते हैं. निजी तौर पर कहूँ तो मैंने सभी तरह की किताबें पढ़ी हैं. उन लेखकों में मुंशी प्रेमचंद भी हैं और वेदप्रकाश शर्मा भी। अपने-अपने क्षेत्र में दोनों ही महान हैं. दोनों का अपना अलग मुक़ाम है। आप उनकी तुलना कैसे कर सकते हैं, क्या के एल सहगल भांगड़ा या रॉक संगीत गा सकते हैं? वही बात इन दोनों लेखकों की भी है। आप क्या सोचते हैं????

Thursday, October 11, 2007

सबके मोक्ष की कामना


भाद्रपद शुक्ल पूर्णिमा से लेकर आश्विन कृष्ण अमावस्या तक सोलह दिनों का पितृपक्ष पूरे देश मे ‘महालय’ श्राद्ध पर्व के रूप में मनाया जाता है। हिंदू धर्म की पुरातन परंपरराओं में आस्था रखने वाले लोग इस पितृपक्ष में अपने स्वर्गीय पिता, पितामह, प्रपितामह, माता, मातामह आदि पितरों को श्रद्धा तथा भक्ति सहित पिंडदान देते हैं और उनकी तृप्ति हेतु तिलांजलि सहित तर्पण भी करते हैं। उत्तर भारत में पिंडदान के लिए प्रसिद्ध जगहों में इलाहाबाद, गया और बनारस का नाम विशेष रूप से लिया जाता है। गया में यह कर्मकांड फल्गू नदी के तट पर संपन्न किया जाता है। इसी गया शहर में सुरेश नारायण भी रहते हैं। बयालिस साल के सुरेश का गया शहर में ही एक छोटी सी पारचून की दुकान है। दुकान से कोई विशेष कमाई नहीं होती है। फिर भी सुरेश पिछले छ: साल से प्रत्येक वर्ष पितृपक्ष में ऐसे लोगों का पिंडदान करते रहे हैं जिनसे उनका ख़ून का रिश्ता नहीं है। न ही वे मरने वाले से कभी मिले थे। इस कर्मकांड को संपन्न करने में वे जाति या धर्म के बंधनों को भी आरे नहीं आने देते हैं। मसलन उस्ताद बिसमिल्लाह खान हों या फिर मदर टरेसा, सुरेश नें दोनों के मुक्ति के लिए पिंडदान किया है। इस वर्ष उन्होंने समझौता एक्सप्रेस, हैदराबाद बम विस्फोट और बिहार में आए भीषण बाढ़ में अपनी जान गँवाने वोले हजारों लोगों के मुक्ति के लिए पिंडदान किया। वहीं पिछले साल बिसमिल्लाह खान के लिए और 2004 में सुनामी में मारे गए लोगों के लिए यह कर्मकांड संपन्न किया। 9/11 में मारे गए लोग हों या फिर अक्षरधाम में मारे गए लोग, सुरेश नें सबके मोक्ष के लिए पिंडदान किया है। इस स्वार्थ-लोलुप कलयुग में, जहाँ व्यक्ति "मैं" से आगे सोचने की हिम्मत ही नहीं कर सकता है सुरेश विश्व बंधुत्व का वाकई एक आदर्श उदाहरण पेश कर रहे हैं।

Monday, October 8, 2007

ज़िंदगीनामा - रामानन्द रमना

आस्था में अपने वाद नहीं
रहता रुचि में प्रतिवाद नहीं,
आशाविहीन से ही तो हम
अपने जीवन में पलते हैं!
अवबोध विरासत का मुश्किल,
सपनों में रमा हुआ कुछ दिल,
निष्कर्षहीन से ही कुछ हम
सत्याग्रह पथ पर चलते हैं!

दक्षिणी दिल्ली स्थित बेर सराय। जेएनयू और आईआईटी के बीच सैंडविचड्। आप इसे बौद्धिकता और तकनीक का एरेंज्ड मैरेज कह सकते हैं। कहने का मतलब की आधुनिक और पारंपरिक शिक्षा का मिलन स्थल। 15-20 दुकानों का एक छोटा सा मार्केट, जिसमे अधिकतर दुकान किताब और स्टेशनरी का। इसके अलावा कुछ छोटे-बड़े रेस्त्रां और सेल्फ सर्विंग फुड स्टाल।यह जगह न जाने कितने सपनों के बनने और बिखरने का गवाह है। वो सपने जो मल्टीनेशनल के वातानुकूलित केबिन से लेकर सचिवालय या कलेक्ट्रियट तक फैले हुए हैं। इन सपनों में ऐसे ख्वाब भी थे जो किसी की ख़नकदार हंसी और घने काले जुल्फ़ों के साये में देखे गए थे। कुछेक ने यहां व्यवस्था परिवर्तन का सपना भी देखा व कैरियर और जवानी के बेहतरीन दिन अपनी आँखों में इंकलाब के लौ को जलाते हुए काट दिये। ऐसा ही एक शख़्स आज से तकरीबन बीस बरस पहले बनारस से दिल्ली आया था। आँखों में कुछ सपने थे, समाज के लिए कुछ ख़ास करने का जज़्बा भी था। उसने मार्क्स और चे के रास्तों को चुना। रामानंद जी की बातों से असहमत तो हुआ जा सकता है, लेकिन वे जिस प्रतिबद्धता और जुनून के साथ पिछले दो दशकों से लोगों के बीच अपनी बातों को रख रहे हैं उसे ख़ारिज़ करना मुश्किल है।

बात 1987 की है। आँखों मे भविष्य के कुछ सुनहरे ख़्वाब लिए एक नौजवान नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर उतरता है। स्टेशन से सीधे आरावली के गोद में स्थित जवाहर लाल नेहरू युनिवर्सिटी पहुंचता है। मानसून के आते ही हर साल इस विश्वविद्यालय के दहलीज़ पर दस्तक देने देश भर से हज़ारों छात्र-छात्राएँ खिंचे चले आते हैं । एक खुली दुनिया में कदम रखने के एहसास के साथ। 22 वर्ष का रामानंद भी उन हज़ारों भाग्यशालियों में से एक था। पाँच साल के इंटिग्रेटेड लैंग्वेज कोर्स में एडमिशन मिल गया था। कागज़ी औपचारिकताएं पूरी करने के बाद सतलज हॉस्टल में एक रूम भी एलाट हो गया। बात मजाक में कही गई है, लेकिन सच है कि जेएनयू- बंगाल, त्रिपुरा और केरल के बाद भारत का एक ऐसा "राज्य" है जहाँ पर मार्क्सवादी विचार हावी रहे हैं। और रामानंद के अंदर छुपे हुए परिवर्तन की चाहत रखने वाले युवा के लिए मानो जेएनयू का बौद्धिक माहौल बड़ा ही अनुकूल साबित हुआ। स्वभाविक रूप से रामानंद भी कम्युनिस्ट हो गया। जनवादी छात्र संघ में अपनी सक्रियता के कारण रामानंद अजय भवन में बैठे सीनियर कामरेडों का भी प्रिय हो गया था। मानो चिर विद्रोही को नेतृत्व मिल गया हो।

1992 आ गया और जेएनयू के पाँच साल कैसे बीत गए रामानंद को पता भी नहीं चला। विदा होने का समय आ गया था। बाहर आने के बाद भी रामानंद जनवादी संगठनों से जुड़ा रहा। मुनीरका में एक रूम ले लिया और वहीं से रोजी रोटी के लिए ट्राँसलेशन का भी काम करने लगा। नौकरी करने में रूचि थी नहीं, सो कभी प्रयास भी नहीं किया। जम्मू से कन्याकुमारी तक पाँच सालों तक लगभग हर कम्युनिस्ट रैली में भाग लेता रहा। चे, मार्क्स, माओ आदि के विचार तो जु़बानी याद हो गए थे। लाल राजनीति में कुछ ऐसे रम गया कि ट्रांसलेशन करने का समय नहीं मिल पाता था। दो जून के रोटी के भी लाले पड़ने लगे थे। बेरोजगार थे, मसलन किसी ने बेटी का हाथ इनके हाथों में देना गवारा नहीं किया। पैसे कि इतनी किल्लत कि कभी-कभी भूखे भी सोना पड़ता था। आनेवाले 2-3 सालों में हालात कुछ इस कद़र बद़ से बद़तर हुए कि कई बार रामानंद अपना मानसिक संतुलन खो बैठा। 1997 के वसंत तक हालात हाथ से बाहर जा चुका था। कुछ समाजसेवी संगठनों ने उसे शहादरा के मेंटल असाईलम में भर्ती करा दिया। सरकारी इलाज चलने लगा। हालत सुधरने लगी। पाँच साल के बाद 2002 में डाक्टरों के एक टीम नें रामानंद का जाँच कर ठीक होने का एन ओ सी जारी कर दिया। बाहर आने पर दुनियां बदल चुकी थी। नेहरू-गाँधी के फेबियन समाजवाद को नरसिम्हा राव की खुली अर्थव्यवस्था निगल रही थी। परिवार वालों ने नाता पहले ही तोड़ लिया था अब दोस्तों ने भी मुँह मोड़ लिया। न सर के उपर छत था, न दो जून की रोटी की व्यवस्था।

खैर, जैसे-तैसे रामानंद की ज़िंदगी चलती रही। वह कभी किसी दुकान के आगे, तो कभी किसी बेसमेंट में रात गुज़ारता रहा। खाने-पीने की व्यवस्था भी कुछ ऐसी ही थी। कभी किसी नें खिला दिया तो कभी कुछ पैसे अनुवाद से मिल गए। रामानंद की दिनचर्या आज भी अव्यवस्थित है। कभी रामानंद दीवारों पर अपने विचार लिखता है तो कभी हाथ से लिखे हुए पेम्पलेट बाँटता है। उसके आठ-दस घंटे जेएनयू के केंद्रीय पुस्तकालय में जरूर बीतते हैं। कभी उन्माद में वह व्यवस्था को गाली देता है या बातचीत के दौरान विक्षिप्त सा हो जाता है। शिक्षा व्यवस्था से लेकर अंतराष्ट्रीय राजनीति जैसे विषयों पर रामानंद के विचार बहुत ही मुखर हैं। भारत में कम्युनिज़्म के भविष्य के बारे में पूछे जाने पर रामानंद कहते हैं कि "ये सवाल एक पत्रकार होने के नाते आप कर रहे हैं? बल्कि आपको तो आगे बढ़कर उसका झंडा थामना चाहिए।" उनका आगे कहना है कि "आज की दुनियां में जो सबसे अच्छा उपलब्ध विकल्प है चाहे जिस रूप में भी हो - वह कम्युनिज्म ही है। कम्युनिज़्म का मतलब ये कतई नहीं है कि ये विचारधारा शासन के रूप में कंटिन्यू करे - बल्कि वह तो लगातार बदलते जीवन मूल्यों को कंटिन्यू करने का पक्षधर है।" वर्तमान शैक्षणिक व्यवस्था पर प्रश्नचिन्ह उठाते हुए उनका कहना है कि इसमें गंभीर खामियाँ हैं और इसपर विचार होना चाहिए। सबसे पहले तो ये कि विद्यालय स्तर तक भाषा की शिक्षा पूर्ण हो जानी चाहिए और विश्वविद्यालय स्तर पर इसकी पढ़ाई नहीं होनी चाहिए। उनका स्पष्ट इशारा अंग्रेज़ी शिक्षा की तरफ है जिसकी वजह से गरीब और ग्रामीण पृष्टभूमि के बच्चे उच्च शिक्षा में मात खा जाते हैं। शायद यह रामानंद का भोगा हुआ यथार्थ है जिसने उन जैसे न जाने कितने ही ग्रामीण और कस्बाई युवाओं के लिए जेएनयू के अंग्रेज़ी माहौल में पग-पग पर दिक्कतें खड़ी की होंगी। उन्होंने इसमें अनुवाद माफिया की भूमिका की तरफ भी इशारा किया जो नहीं चाहता कि देश के सब लोग एक माध्यम में शिक्षा ग्रहण कर सकें। शायद यह बात रामानंद नें अनुवाद करने के अपने अनुभव से सीखा है, जब उन्होंने देखा कि छोटे स्तर पर भी किस तरह पुस्तक विक्रेता उनके अनुवाद करने के काम के विरोधी हैं। सबसे महत्वपूर्ण बात जो उन्होंने कहा वो ये कि उच्च शिक्षा सिर्फ़ नौकरी का माध्यम बन रही है, उसमें समाज को कुछ भी वापस लौटाने का बोध बिल्कुल नहीं है। इस बात पर विचार होना चाहिए। रामानंद का यह भी कहना है कि उच्च स्तर पर सामाजशास्त्र, भूगोल और इतिहास की पढ़ाई साथ-साथ होनी चाहिए। क्योंकि इन्हें अलग-अलग पढ़ाने का कोई मतलब नहीं है।

बावजूद इसके, रामानंद के मन में अपने घर बनारस की याद रह- रह के हिलोर मारती है। वह बनारस के घाट,बनारस की मस्ती और संकटमोचक मंदिर को नहीं भूल पाता। पता नहीं यह कैसा विरोधाभास है कि एक कम्युनिस्ट होने के वाबजूद रामानंद धर्म को नहीं भूला है। या यह रामानंद का अपना अभिनव कम्युनिज़्म है जिसमें धर्म और उसकी विचारधारा साथ-साथ चल सकते हैं। लेवाइस और पिज्जा जेनरेशन के प्रतीक बेर सराय के अधिकांश दमकते हुए युवा चेहरों के लिए रामानंद पागल और शिक्षित कामचोर के आलावा कुछ भी नहीं है- लेकिन रामानंद की शायद एकमात्र गलती यहीं थी उसने एक अदद नौकरी नहीं की और वक्त उसके हाथ से रेत की तरह फिसलता चला गया।
आज भी रामानंद, अक्सर जाते-आते किसी भी आदमी से संजय नाम के शख़्स के बारे में जरूर पूछता है। पता नहीं यह संजय है कौन? शायद संजय उसका कोई अज़ीज़ दोस्त था या वह आवेश में कहीं संजय गाँधी की ख़बर तो नहीं लेना चाहता? समझना मुश्किल है।

साक्षात्कार सहयोग- सुशांत कुमार झा
फ़ोटो - अमित कुमार

Wednesday, October 3, 2007

एक्सक्लूसिव बिहारी शब्दकोष


आरकुट पर दिशाहीन विचरण कर रहा था। तभी बिहारी कम्यूनिटी पर एक पोस्ट नज़र आया। पोस्ट में एक्सक्लूसिव बिहारी शब्द सुझाने को कहा गया था। मतलब ऐसे शब्द या वाक्य जो सिर्फ़ बिहार में बोली और समझी जाती है। कुछ शब्द वहीं से कंट्रोल सी कर लिया और कुछ को स्वयं अपने मेमोरी से जोड़ा। और तैयार हो गया यह मिनी डिक्शनरी। बिहार स्पेशल शब्दकोष। अधिकतर शब्द तदभव ही हैं। मगह, मैथिली, अंगिका, भोजपूरी और मसाले के रूप में पटनिया। लोगों का मानना है कि पटना में मगही भाषा बोली जाती है। लेकिन मैं इससे सहमत नहीं हूं। पटना में पटनिया बोली जाती है जो पूरे राज्य की भाषाओं और राष्ट्रभाषा हिंदी का मिश्रण है। पेश है शब्दकोश के कुछ जाने-पहचाने शब्द:

" कपड़ा फींच\खींच लो, बरतन मईंस लो, ललुआ, ख़चड़ा, खच्चड़, ऐहो, सूना न, ले लोट्टा, ढ़हलेल, सोटा, धुत्त मड़दे, ए गो, दू गो, तीन गो, भकलोल, बकलाहा, का रे, टीशन (स्टेशन), चमेटा (थप्पड़), ससपेन (स्सपेंस), हम तो अकबका (चौंक) गए, जोन है सोन, जे हे से कि, कहाँ गए थे आज शमावा (शाम) को?, गैया को हाँक दो, का भैया का हाल चाल बा, बत्तिया बुता (बुझा) दे, सक-पका गए, और एक ठो रोटी दो, कपाड़ (सिर), तेंदुलकरवा गर्दा मचा दिया, धुर् महराज, अरे बाप रे बाप, हौओ देखा (वो भी देखो), ऐने आवा हो (इधर आओ), टरका दो (टालमटोल), का हो मरदे, लैकियन (लड़कियाँ), लंपट, लटकले तो गेले बेटा (ट्रक के पीछे), की होलो रे (क्या हुआ रे), चट्टी (चप्पल), काजक (कागज़), रेसका (रिक्सा), ए गजोधर, बुझला बबुआ (समझे बाबू), सुनत बाड़े रे (सुनते हो), फलनवाँ-चिलनवाँ, कीन दो (ख़रीद दो), कचकाड़ा (प्लास्टिक), चिमचिमी (पोलिथिन बैग), हरासंख, चटाई या पटिया, खटिया, बनरवा (बंदर), जा झाड़ के, पतरसुक्खा (दुबला-पतला आदमी), ढ़िबरी, चुनौटी, बेंग (मेंढ़क), नरेट्टी (गरदन) चीप दो, कनगोजर, गाछ (पेड़), गुमटी (पान का दुकान), अंगा या बूशर्ट (कमीज़), चमड़चिट्ट, लकड़सुंघा, गमछा, लुंगी, अरे तोरी के, अइजे (यहीं पर), हहड़ना (अनाथ), का कीजिएगा (क्या करेंगे), दुल्हिन (दुलहन), खिसियाना (गुस्सा करना), दू सौ हो गया, बोड़हनझट्टी, लफुआ (लोफर), फर्सटिया जाना, मोछ कबड़ा, थेथड़लौजी, नरभसिया गए हैं (नरवस), पैना (डंडा), इनारा (कुंआ), चरचकिया (फोर व्हीलर), हँसोथना (समेटना), खिसियाना (गुस्साना), मेहरारू (बीवी), मच्छरवा भमोर लेगा (मच्छर काट लेगा), टंडेली नहीं करो, ज्यादा बड़-बड़ करोगे तो मुँह पर बकोट (नोंच) लेंगे, आँख में अंगुली हूर देंगे, चकाचक, ससुर के नाती, लोटा के पनिया, पियासल (प्यासा), ठूँस अयले (खा लिए), कौंची (क्या) कर रहा है, जरलाहा, कचिया-हाँसू, कुच्छो नहीं (कुछ नहीं), अलबलैबे, ज्यादा लबड़-लबड़ मत कर, गोरकी (गोरी लड़की), पतरकी (दुबली लड़की), ऐथी, अमदूर (अमरूद), आमदी (आदमी), सिंघारा (समोसा), खबसुरत, बोकरादी, भोरे-अन्हारे, ओसारा बहार दो, ढ़ूकें, आप केने जा रहे हैं, कौलजवा नहीं जाईएगा, अनठेकानी, लंद-फंद दिस् दैट, देखिए ढ़ेर अंग्रेज़ी मत झाड़िए, लंद-फंद देवानंद, जो रे ससुर, काहे इतना खिसिया रहे हैं मरदे, ठेकुआ, निमकी, भुतला गए थे, छूछुन्दर, जुआईल, बलवा काहे नहीं कटवाते हैं, का हो जीला, ढ़िबड़ीया धुकधुका ता, थेथड़, मिज़ाज लहरा दिया, टंच माल, भईवा, पाईपवा, तनी-मनी दे दो, तरकारी, इ नारंगी में कितना बीया है, अभरी गेंद ऐने आया तो ओने बीग देंगे, बदमाशी करबे त नाली में गोत देबौ, बड़ी भारी है-दिमाग में कुछो नहीं ढ़ूक रहा है, बिस्कुटिया चाय में बोर-बोर के खाओ जी, छुच्छे काहे खा रहे हो, बहुत निम्मन बनाया है, उँघी लग रहा है, काम लटपटा गया है, बूट फुला दिए हैं, बहिर बकाल, भकचोंधर, नूनू, सत्तू घोर के पी लो, लौंडा, अलुआ, सुतले रह गए, माटर साहब, तखनिए से ई माथा खराब कैले है, एक्के फैट मारबौ कि खुने बोकर देबे, ले बिलैया - इ का हुआ, सड़िया दो, रोटी में घी चपोड़ ले, लूड़ (कला), मुड़ई (मूली), उठा के बजाड़ देंगे, गोइठा, डेकची, कुसियार (ईख), रमतोरई (भींडी), फटफटिया (राजदूत), भात (चावल), नूआ (साड़ी), देखलुक (देखा), दू थाप देंगे न तो मियाजे़ संट हो जाएगा, बिस्कुट मेहरा गया है, जादे अक्खटल न बतिया, एक बैक आ गया और हम धड़फड़ा गए, फैमली (पत्नी), बगलवाली (वो), हमरा हौं चाहीं, भितरगुन्ना, लतखोर, भुईयां में बैठ जाओ, मैया गे, काहे दाँत चियार रहे हो, गोर बहुत टटा रहा है, का हीत (हित), निंबुआ दू चार गो मिरची लटका ला चोटी में, भतार (पति शायद), फोडिंग द कापाड़ एंड भागिंग खेते-खेते, मुझौसा, गुलकोंच(ग्लूकोज़)।"

कुछ शब्दों को आक्सफोर्ड डिक्शनरी ने भी चुरा लिया है। और कुछ बड़ी-बड़ी कंपनियाँ इन शब्दों को अपनें ब्रांड के रूप में भी यूज़ कर रही हैं। मसलन
- देखलुक - मतलब "देखना" - देख --- लुक (Look)
- किनले - मतलब "ख़रीद" - KINLEY (Pepsi Mineral Water)
- पैलियो - मतलब "पाया" - Palio (Fiat's Car)
- गुच्ची - मतलब "छेद" - Gucci (Fashion Products)


अब बिहार में आपका नाम कैसे बदल जाता है उसकी भी एक बानगी देखिए। यह इस्टेब्लिस्ड कनवेंशन है कि आपके नाम के पीछे आ, या, वा लगाए बिना वो संपूर्ण नहीं है। मसलन....
- राजीव - रज्जीवा
- सुशांत - सुशांतवा
- आशीष - अशीषवा
- राजू - रजुआ
- रंजीत - रंजीतवा
- संजय - संजय्या
- अजय - अजय्या
- श्वेता - शवेताबा

कभी-कभी माँ-बाप बच्चे के नाम का सम्मान बचाने के लिए उसके पीछे जी लगा देते है। लेकिन इसका कतई यह मतलब नहीं कि उनके नाम सुरक्षित रह जाते हैं।
- मनीष जी - मनिषजीवा
- श्याम जी - शामजीवा
- राकेश जी - राकेशाजीवा

अब अपने टाईटिल की दुर्गति देखिए।
- सिंह जी - सिंह जीवा
- झा जी - झौआ
- मिश्रा - मिसरवा
- राय जी - रायजीवा
- मंडल - मंडलबा
- तिवारी - तिवरिया

ऐसे यही भाषा हमारी पहचान भी है और आठ करोड़ प्रवासी-अप्रवासी बिहारियों की जान भी। डिक्शनरी अभी भी अधूरी है। आप इसमें अपने शब्द जोड़कर और भी समृद्ध बना सकते है। तरीका बेहद आसान है। नीचे लिखे केमेंट्स पर क्लिक् करें। अपना संदेश लिखे....फिर अपने ज़ी-मेल आई-डी भरकर पब्लिश क्लिक कर दे।



Monday, October 1, 2007

महात्मा गाँधी - (October 2, 1869 – January 30, 1948)


दे दी हमें आज़ादी बिना खड्‌ग बिना ढाल
साबरमती के संत तूने कर दिया कमाल