Monday, June 10, 2013

कहां चूके आडवाणी...क्यों नहीं बन पाए दूसरा वाजपेयी?


यह पोस्ट हमने (मैं और मित्र सुशांत ने)  साल 2009 में उस वक्त लिखा था जब आमचुनाव के नतीजे आनेवाले थे। उस समय इस लेख में हमने आडवाणी की वाजपेयी से तुलना की थी। हालांकि तब से अब तक गंगा में काफी पानी बह चुका है लेकिन आडवाणी का वाजपेयीकरण उनके किसी काम नहीं आया-और बीजेपी ने कथित उदार छवि और कद्दावर बुजुर्ग की तुलना में एक सख्त छवि के नेता को अपनी कमान सौंप दी है। पिछले पांच साल से आडवाणी, देश और बीजेपी के रंगमंच पर जिस दमखम के साथ खड़े थे, उसका एक तरह से पटाक्षेप कर दिया गया है। यों यह लेख मोदी और आडवाणी की तुलना की वजाय आडवाणी और वाजपेयी की तुलना करता है, लेकिन फिर भी इस मायने में मौजूं है कि आडवाणी चूक कहां गए। हम आगे कोशिश करेंगे कि आडवाणी और मोदी की एक सकारात्मक तुलना की जाए-और ये जानने की कोशिश की जाए कि मोदी कैसे पार्टी के लिए मजबूरी सी बनते गए।

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आख़िर, आडवाणी क्यों नहीं बन पा रहे हैं वाजपेयी....?

[राजीव कुमार, सुशांत कुमार झा]

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ज़िंदगी के दौर में या तो नंबर-1 होना चाहिए या नंबर-3....नंबर-2 वालों को जल्दी उसकी छवि से निजात नहीं मिलती या फिर अक्सर नंबर-1 उसे आगे नहीं बढ़ने देता। बीजेपी के नेता लालकृष्ण आडवाणी के सियासी जिंदगी का सबसे अहम पल नजदीक आ चुका है। 16 मई को मतगणना के बाद ये साफ हो जाएगा कि आडवाणी प्रधानमंत्री बन पाएंगे या फिर सियासत से सम्मानजनक रुप से ऱुख़्सत हो जाएंगे। इतना तय है कि संघ परिवार उन्हे दूसरा मौका नहीं देने जा रहा। अगर आकड़ों के खेल में बीजेपी नजदीक आ गई तो फिर आडवाणी, मुल्क के वजीर-ए-आज़म बन जाएंगे-लेकिन जो बात आडवाणी को सालती होगी वो ये कि जिस बीजेपी को उन्होने अपने ख़ून पसीने से सींचा था, जिसका एक बड़ा संगठन और जनाधार बनाया था-उसमें वाजपेयी तो आसानी से प्रधानमंत्री बन गए लेकिन आडवाणी को अपनी स्वीकार्यता बनाने में बहुत वक्त लग गया।

कहते हैं सियासत उम्मीदों का खेल है। इसमें अक्सर दो और दो, चार नहीं होते। तो फिर तमाम काबिलियत के बावजूद आडवाणी कहां चूक गए? उन्होने कौन सी ग़लती कर दी कि बाजी हर घड़ी वाजपेयी के हाथ रही? इसे समझने के लिए हमें दोनों के व्यक्तित्व की खूबियों और खामियों पर एक नज़र डालनी होगी।

आडवाणी और वाजपेयी दोनों ही संघ के राजनीतिक स्कूल के प्रशिक्षु थे। उम्र में आडवाणी से कुछेक साल बड़े वाजपेयी ने जहां अपने करियर की शुरुआत पांञ्चजन्य के संपादक के तौर पर शुरु की थी। आडवाणी उसमें फिल्मों की समीक्षा लिखा करते थे। पाकिस्तान से आए आडवाणी का परिवार जब गुजरात में बसा और उसके बाद वे काफी वक्त तक राजस्थान में जनसंघ का काम करते रहे। बाद में वे दिल्ली मे जनसंघ का काम देखने आ गए लेकिन उनका दर्जा बड़ा नहीं था। ये वो दौर था जब जनसंघ में बलराज मधोक और नानाजी देशमुख का जलवा था, और पंडित दीनदयाल उपाध्याय और श्यामाप्रसाद मुखर्जी दुनिया को अलविदा कह चुके थे।

आडवाणी और वाजपेयी में कई असमानताएं हैं। जहां वाजपेयी कल्पनाशील और बड़े भाषणबाज के रूप में मशहूर हुए, वहीं आडवाणी तार्किक, विश्लेषक और भाषण में कमजोर हैं। वाजपेयी, अंग्रेजी में तंग हैं जबकि आडवाणी की अंग्रेजी पर जबर्दस्त पकड़ है। वाजपेयी खानेपीने के शौकीन हैं जबकि आडवाणी खानपान में संयमित हैं। आडवाणी को किताबों, फिल्मों और थियेटर का शौक है जबकि वाजपेयी परिवार के साथ ज्यादा वक्त बिताते हैं। सबसे बड़ी बात ये कि वाजपेयी बड़े कूटनीतिज्ञ हैं जबकि आडवाणी इसमें थोड़े तंग हैं।


आडवाणी में राजनीतिक विश्लषण और संगठन बनाने की बेजोड़ काबिलियत है, लेकिन अटल बिहारी वाजपेयी सियासत के खेल में उनसे ज्यादा चतुर सुजान निकले। वाजपेयी ने भारतीय समाज के स्वरुप का गहरा अध्ययन कर लिया था, जिसके तहत कोई कट्टरपंथी और अतिवादी विचार रखनेवाला राजनीतिज्ञ सियासत में कामयाब नहीं हो सकता था। वाजपेयी ने बड़ी चतुराई से अपनी शख़्सियत का निर्माण किया, वे संघ के चहेते भी बने रहे और बाहर उदारवाद का चोला बदस्तूर पहने रखा।

दूसरी बात जो अहम थी वो ये कि वाजपेयी में भाषण देने का बेजोड़ गुण था, चुटीले शब्दों की उनके पास कोई कमी नहीं थी। उनको सुनने के लिए भीड़ उमड़ती थी। हमारी पीढ़ी के लोगों ने जिस वाजपेयी को देखा है, वो उम्र के अपने आखिरी पड़ाव पर थका हुआ सियासतदान था-वाकई वाजपेयी की ऊर्जा और जोश 90 से पहले या उससे भी पहले देखने लायक थी। हमारे देश में अमूमन कामयाब सियासतदान, अच्छे भाषणकर्ता हुए हैं, आडवाणी इस मामले में भी कमजोर साबित हुए। आडवाणी ने ऐसा खुद भी स्वीकार किया है।

जहां तक चुनावी राजनीति की बात है तो वाजपेयी इसमें बहुत पहले ही सक्रिय हो गए थे, शायद मुल्क का दूसरा आम चुनाव भी उन्होने लड़ा था और संसद में अपनी काबिलियत का लोहा बड़े नेताओं से मनवाया था। वाजपेयी की लोकप्रियता तब उफान पर आ गई जब पंडित नेहरु ने संसद में उनकी तारीफ में कशीदे पढ़े- शायद वाजपेयी ने चीन के मसले पर नेहरु की नीतियों का बड़े ही तार्किक ढ़ंग से और कड़ा विरोध किया था। इसके बाद वाजपेयी ने पीछे मुड़कर नहीं देखा। उन्होने अपने करिश्माई भाषण के बदौलत सारे देश में अपनी धाक जमा ली। वे अचानक कम उम्र में ही नेताओं के बड़े कल्ब में शामिल हो गए। लेकिन उस वक्त आडवाणी क्या कर रहे थे ? आडवाणी उस वक्त जनसंघ की दिल्ली शाखा के लिए बड़े तल्लीनता से काम कर रहे थे। यहां ये बात साफ हो जाती है कि सियासत ही नहीं दूसरे पेशे में भी विज्ञापन, जनसंपर्क और छवि निर्माण का कितना बड़ा हाथ है।

वाजपेयी का भाषण कला में दक्ष होना उनके हिंदी पर बेहतरीन अधिकार से भी संभव हुआ। आडवाणी ने काफी मेहनत करके हिंदी सीखी। लोग कहते हैं कि वाजपेयी अगर सियासत में नहीं होते तो एक अच्छे कवि जरुर हो सकते थे- अलबत्ता कईयों ने उनके हालिया कविताओं की बड़ी खिल्ली भी उड़ाई। बहरहाल, वाजपेयी अपनी भाषण कला और कलाबाजी के बदौलत आम जनता में एक बड़े नेता के रुप में मशहूर होते गए, लेकिन आडवाणी संघ के विचारों की कट्टरता से मुक्त नहीं हो पाए या कम से कम ऐसा दिखा नहीं पाए।

दूसरी बात जो अहम है वो ये कि आडवाणी की शख़्सियत में भले ही संघ की विचारधारा ज्यादा साफ दिखती हो, लेकिन कई लोगों की राय में वाजपेयी, संघ नेतृत्व के ज्यादा नजदीक थे। ऐसा दीनदयाल उपाध्याय और श्यामाप्रसाद मुखर्जी के ही जमाने से था। संघ नेतृत्व ने इसीलिए वाजपेयी के कामों में कभी ज्यादा दखलअंदाजी नहीं की जबकि आडवाणी को वो एक सीमा से ज्यादा छूट देने को तैयार नहीं है।


 
एक अहम बात ये भी है कि वाजपेयी ऊपर से ज्यादा उदार भले ही दिखते हों, लेकिन असलियत में वो एक एकाधिकारवादी नेता और अपने इर्द-गिर्द किसी को न पनपने देने वाले लोकतांत्रिक तानाशाह ज्यादा थे। वाजपेयी के राह में जिस किसी ने भी रोड़ा बनने की कोशिश की, उन्होने उसकी सियासी मौत का दस्तावेज लिख दिया। चाहे वो बलराज मधोक हों, या फिर नानाजी देशमुख या फिर हाल के दिनों में कल्याण सिंह, वाजपेयी ने किसी को भी नहीं छोड़ा।

आडवाणी, वाजपेयी से लाख दोस्ती और आत्मीयता के बावजूद उनके इस मानसिकता से सतर्क थे-और उन्होने कभी भी अपने आपको उनके प्रतिद्वंदी के तौर पर पेश भी नहीं किया। बल्कि राजनीतिक परिपक्वता दिखाते हुए उन्होने वाजपेयी की राह आसान बनाने के लिए रात-दिन एक कर दिया। साल 1991 में जब आडवाणी को हवाला कांड के बाद अपने पद से इस्तीफा देना प़ड़ा तो उन्होने बिना किसी हिचक के ये पद वाजपेयी को सौंप दिया। उसके बाद की कहानी तो सिर्फ़ इतिहास है।

कुछ लोग कहते हैं कि वाजपेयी इसलिए भी सबको स्वीकार्य हो गए कि समाजिक रुप से ब्राह्मण होने का उन्हे फ़ायदा मिला। हलांकि वाजपेयी (और शायद पंडित नेहरु भी) उन गिने चुने नेताओं में थे जिन्होने बड़े करीने से अपनी छवि को इन चीजों से मुक्त कर रखा था। राष्ट्रीय स्तर की राजनीति में इन बातों का ज्यादा महत्व भी नहीं है, लेकिन बारीक स्तर पर कई दफा कई चीजें बिना शोर शराबे के काम करती है। वाजपेयी ब्राह्मण परिवार से हैं जबकि आडवाणी सिंधी। मंडल के उस घनघोर युग में जब पूरे देश के खासकर उत्तर भारत के ब्राह्मण और सवर्ण अपने आपको हाशिए पर पा रहे थे, वाजपेयी के उदय ने एक बड़े वर्ग को बीजेपी की तरफ मोड़ दिया था, इसमें कोई शक नहीं।

इसके आलावा हिंदुस्तान की सवर्ण मीडिया ने भी वाजपेयी के प्रति जर्बदस्त दीवानगी दिखाई। वाजपेयी जितने उदारवादी थे नहीं, उससे ज्यादा उदारवादी उन्हे बताया जाता रहा। वाजपेयी ने कभी भी संघ से अपनी मोहब्बत को नहीं छुपाया, उन्होने अपने आप को आजीवन स्वयंसेवक बताया-संघ के अंदुरुनी हल्कों में ऊंचाई पाने के लिए उन्होने शादी तक नहीं की- वो वाजपेयी कैसे उदार हो गए? जिस वाजपेयी ने बाबरी ध्वंस के वक्त जमीन सपाट कर देने की बात की थी वो वाजपेयी उदार कैसे हो गए ? क्या कोई इस बात को भूल सकता है कि ये वाजपेयी की हुकूमत ही थी जिस वक्त गुजरात में दंगे हुए थे। वाजपेयी ने सिर्फ जुबानी जमाखर्च के आलावा क्या किया था?

साफ़ है वाजपेयी ने बड़े करीने से अपने इमेज और आभा मंडल बनाई, हिंदुस्तान की जनता जिसकी दीवानी होती गई। जनता में यहीं लोकप्रियता वाजपेयी को अपने गठबंधन के दलों में भी स्वीकार्य बना गई। आडवाणी यहीं चूक गए। आडवाणी ने अपनी सारी जिंदगी बीजेपी के ढ़ांचे को बनाने में खपा दिया, लेकिन वो अपनी इमेज का ढांचा नहीं बना पाए। इसमें कोई शक नहीं कि 90 के दशक में बीजेपी का आधार वोट आडवाणी के ही अयोध्या आंदोलन की उपज था जिसे वाजपेयी ने बाद में अपने इमेज के बल पर गठबंधन की शक्ल में ढ़ाल लिया। जबकि उस गठबंधन को बनाने में भी आडवाणी का योगदान था।

आडवाणी अभी तक सोमनाथ रथ यात्रा और बाबरी ध्वंस की छवि से अपने को मुक्त नहीं कर पाए हैं। इसकी कोशिश उन्होने बड़ी देर से शुरु की जब उन्होने जिन्ना की शान में कसीदे पढ़े। कुल मिलाकर आडवाणी ने बहुत देर से अपने को वाजपेयी के सांचे में ढ़ालने की कोशिश की है- जो काम वाजपेयी ने 50 साल पहले शुरु कर दिया था। 2009 का हिंदुस्तान काफी बदल चुका है-लेकिन वाजपेयी व्यक्तित्व के मामले में आमलोगों के दिलों -दिमाग इतनी बड़ी लकीर खींच गए हैं कि आडवाणी अब भी उनके सामने बौने लगते हैं। अब सवाल ये है कि क्या 16 मई को आनेवाले नतीजों में जनता उन्हे वाजपेयी-2 का दर्ज़ा देगी? चलिए देखते हैं...।

Saturday, November 13, 2010

काबुल वाया नई दिल्ली

बराक ओबामा जा चुके हैं। जाते-जाते वो हमारी कानों को वो बातें सुना गए जिसे सुनने के लिए हम कब से व्याकुल थे। लेकिन शोर-शराबा खत्म होने के बाद अब वक्त आ गया है जब हम गिफ्ट बॉक्स को खोलें और देखें कि दिया गया आश्वासन हमारे कितने काम का है। सबसे पहले बात सुरक्षा परिषद में भारत के स्थाई सदस्यता की, ओबामा और उनके सलाहकार जानते है कि भारत के लिए स्थाई सीट का रास्ता काफी लंबा और मुश्किल भरा है। सिर्फ अमरीका के समर्थन से कुछ नहीं होगा। मान लीजिए चीन तैयार भी हो जाता है लेकिन जापान, जर्मनी, दक्षिण अफ्रिका और ब्राजील का क्या होगा जिनका दावा भारत से कम मजबूत तो नहीं ही है। ये देश भारत को रोकने के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं बशर्ते इन्हें भी स्थाई सीट दे दी जाए।

अगर अमरीका, भारत से रिश्तों के प्रति सचमुच गंभीर है तो उसे हमारे अफगनिस्तान संबंधित चिंताओं पर ज्याद गौर करना चाहिए था। भारतीय सांसदों को संबोधित करते हुए अगर ओबामा कहते कि "अब से वाशिंगटन अपनी अफगानिस्तान संबंधित निति और फ़ैसलों में भारत को पाकिस्तान से कम तव्वजो नहीं देगा", तो ये बात सुरक्षा परिषद के लॉलीपाप से बेहतर और ज्यादा मुक्कमल होता। अफगानिस्तान से हमारा रिश्ता पाकिस्तान से कहीं कमतर नहीं रहा है। ऑपरेशन इनड्युरिंग फ्रिडम के शुरुआत से ही भारत करजई सरकार को हर तरह से मदद देती आ रही है। वो चाहे अफगानिस्तान को फिर से खड़ा करने के लिए बुनियादी जरूरतों का सामान हो, या फिर पेट भरने के लिए खाना। भारत हर संभव वहां के नागरिकों को मदद देता रहा है।

अमरीका, अफगानिस्तान में तालिबान से युद्ध लड़ रहा है। और इस लड़ाई को जीतने के लिए वो सिर्फ़ और सिर्फ़ पाकिस्तान पर निर्भर है। अमरीकी ड्रोन से मारे गए हर एक तलिबानी का जगह लेने के लिए अल-कायदा और जवाहरी जैसे आतंकी संगठन भष्मासुर की तरह सैकड़ों लड़ाकों को खड़ा कर देता है। अमरीका, अफगानिस्तान में बुरी तरह फंस चुका है और इस लड़ाई का अंत दूर-दूर तक नहीं दिख रहा है। वह यह भी जानता है कि आतंकी संगठनों का मुख्यालय पाकिस्तान सीमा के अंदर फाटा क्षेत्र में है, जहां से इनके आका इन्हें संचालित कर रहे हैं। इन आतंकी संगठनों को आईएसआई से मिल रहे खुले समर्थन की बात भी अमरीका से छिपी नहीं है।

पाकिस्तान का यह दोहरा खेल तब तक चलेगा जब तक उसे लगता रहेगा कि अमरीका के पास पाकिस्तान के साथ और उसकी शर्तों पर काम करने के अलावा कोई विक्लप नहीं है। जरदारी सरकार, ख़ासकर पाकिस्तानी सेना को जिस दिन अंदाजा लग जाएगा कि अमरीका पाकिस्तान के बिना भी अफगानिस्तान में ज़ंग जीत सकता है उसी दिन आईएसएआई पर लगाम लग जाएगी और अमरीका के लिए अफगानिस्तान में रास्ता आसान हो जाएग। भारत अमरीका के लिए यहां अच्छा विकल्प मुहैया कराता है। अमरीका को भारत के साथ-साथ रूस से भी बात करनी चाहिए। भारत और रूस को साथ लेकर अमरीका निश्चित रूप से यह जंग जीत सकता है। मुझे नहीं लगता कि मौजूदा परिस्थियों में रूस अमरीका का साथ देने को तैयार नहीं होगा।

कुछ विशेषज्ञ की राय हो सकती है कि इसके बाद पाकिस्तान अमरीकी ड्रोन को पाकिस्तान के अंदर घुस कर अतंकी ठिकनों का सफाया करने से रोक सकता है और यहां तक कि खुल कर तालिबान के समर्थन में आ सकता है। जब पाकिस्तान तालिबान द्वारा इस्तेमाल की जा रही पुरानी तकनीक को मुकाबला नहीं कर सकती, तब ड्रोन की उन्नत तकनीक से मुकाबला पाकिस्तान के बस की बात नहीं है। जहां तक तलिबान के समर्थन में खुल कर आने की बात है, पाकिस्तान को इसके खतरे का पूरा एहसास है । अभी कुछ महीनों पहले ही तालिबान राजधानी इस्लामाबाद से मात्र 60 किलोमीटर दूर बुनेर तक आ पहुंची थी। पाकिस्तान के पसीने छूटने लगे थे, और इस घटना की याद अभी तक वहां के हुक्मरानों को होगी।

ऐसे में ओबामा प्रशासन अगर भारत से रिश्तों के प्रति सचमुच गंभीर है तो दिसंबर में होने वाली अपनी अफगानिस्तान समीक्षा बैठक में भारत की अफगानिस्तान में रोल पर फिर से गौर करेगी। अगर इस समीक्षा बैठक में अमरीका पाकिस्तान को साफ-साफ संदेश देने में सफ़ल हो जाती है तो अफगनिस्तान में उसके लिए चीजें काफी आसान हो सकती है।

Sunday, October 24, 2010

मैं भी ओलंपिक की बात क्यों करने लगा हूं....

कॉमनवेल्थ गेम तो खत्म हो गया लेकिन इसके साथ ही बहुत कुछ भी बदल गया लगता है। गेम्स से कुछ दिन पहले तक जो लोगों में आक्रोश था वो गेम शुरु होने के बाद में खत्म होने लगा। मेडलों की चकाचौध में लोग भूलने लगे कि कुछ दिन पहले तक कलमाड़ी खलनायक जैसा लगता था। सोने और चांदी की खनक ने कलमाड़ी का भी बॉडी लैग्वेज बदल कर रख दिया था। हमारे पालिटिकल क्लास ने इसे बेहतरीन मौके के रुप में भुनाया। सरकार ने गेम खतम होने के तुरंत बाद इसके जांच की घोषणा कर दी। इससे फायदा ये होना था कि अब लोग सरकार को परम इमानदार मान लेते और कुछेक लोगों को बंद कर दिया जाता। हाल तक जनता की याददाश्त कमजोर होती थी, अब थोड़ी बढ़ी है-लेकिन आम जनता जो गांवो कस्बों में रहती है वो अब दूसरे मसलों की बात करने लगी है। मैं खुद एक महीना पहले तक जितना कलमाड़ी के बहाने भ्रष्टाचार को गरियाता था वो अब खत्म हो गया है। मेरे दोस्तों से मेरी बातचीत में अब कलमाड़ी नहीं आता। बल्कि मैं अक्सर अपने खिलाड़ियों पर गर्व करने लगता हूं। ज्यादा वक्त ऐसे ही बीतने लगा है। मुझे वो हसीन सपने आने लगे हैं कि हम ओलंपिक में चीन को पछाड़ देंगे। हम एक दिन ओलंपिक की तैयारी करेंगे। अपने मुल्क में ओलंपिक करवाएंगे।
यहीं से कलमाड़ी की संभावनाएं फिर से शुरु होती है। कलमाड़ी कह चुके हैं कि भारत को ओलंपिक करवाना चाहिए। मेरी सोच, जो मेरे जैसे करोड़ो युवाओं की सोच है उसे कलमाड़ी फिर से कैश करने के लिए तैयार बैठा है। बहुत जल्दी, शायद साल भर के भीतर ही जांच एजेंसिया कलमाड़ी को क्लीन चिट भी दे देगी। मुझे यकीन हो चला है कि वो इतना कच्चा खिलाड़ी नहीं है कि उसने पेपर वर्क में कोई कसर छोड़ी होगी।
कॉमनवेल्थ गेम में हमारा प्रदर्शन, वाकई अद्भुद था। हमारी पुलिस, हमारी व्यवस्था और हमारा व्यवहार सुचारु ही था। हमारे खिलाड़ियों ने बहुत अच्छा किया। लेकिन क्या वाकई इसमें कलमाड़ी का कोई योगदान था?? खिलाड़ियों की ट्रेनिंग या शहर की सुरक्षा उसके जिम्मे तो कतई नहीं थी। उस पर जो आरोप लगे वो अभी भी मौंजूं है। कलमाड़ी को इसका जवाब देना चाहिए। कॉमनवेल्थ गेम की ओपनिंग और क्लोजिंग सेरीमॉनी ने लोगों का मिजाज ही बदल दिया। कलमाड़ी पर लगे सारे आरोप धुंए की तरह उड़ गए।
लेकिन कलमाड़ी अभी भी चालें चल रहे है। शायद अगली बार पूरे देश के बजट का आधा वो ओलंपिक पर झोंकवा दे। गेम के बाद मेरे पापा भी ओलंपिक की बात करने लगे है, और अक्सर मैं भी। लेकिन मैं चाहता हूं कि सिस्टम ठीक हो जाए। वो कलमाड़ी जैसे लोगों के हाथों में न हो।

Monday, June 21, 2010

के पतिया लय जाओत रे मोरा प्रियतम पासे...

पिताजी पटना से मैथिली लोक संगीत की कुछ सीडी लाए थे। उससे पहले मैथिली गीतों में मुझे वो क्लास नजर नहीं आता था या हमने उस क्लास को खोजने की ही कोशिश नहीं की थी। मैथिली के गीतों को मैं एक अरसे के बाद सुन रहा था। दिल्ली में मीडिया की, और वो भी एक अंग्रेजी चैनल की नौकरी आपको किस कदर अपनी जड़ों से काट देने के लिए उकसाती है इसका एहसास मुझे अचानक ही हुआ। मैथिली भक्ति संगीत का वो गाना जो भगवान शिव को समर्पित था-वो इस हद तक क्सासिकल था कि मुझे लगा कि अगर ये बंगाली या कन्नड़ में होता वहां के लोग इसे न्यूयार्क तक बेच आते। लेकिन नहीं, शायद मैथिली, अवधी या ब्रज जैसी भाषाओं को ये नसीब नहीं। वहां का संगीत, वहां का साहित्य और वहां की संस्कृति किस कदर एक स्लो डेथ की तरफ बढ़ रही है इसका विश्लेषण शायद बड़े विमर्श की मांग करता है।
जब दुनिया ग्लोबल नहीं हुई थी शायद मेरी भाषा इतनी नीरीह नहीं थी। उसमें काफी दम था, वो खिलखिलाती थी तो लोगबाग जरुर ध्यान देते थे। हिंदुस्तान के सतरंगी बगिया में बंगाली, उडिया, कन्नड़, अवधी और ब्रजभाषा की तरह वो भी एक खूबसूरत फूल थी। लेकिन जमाने ने जब करवट ली तो ये तय हो गया कि देश में छोटी-2 भाषाओं के लिए कोई जगह नहीं है। बात करें उत्तर भारत की तो मेरी भाषा हिंदी के विस्तारवाद का शिकार हो गई, ये कहने में मुझे कोई झिझक नहीं। मैथिली हिंदी से मिलती जुलती तो है लेकिन वो भाषाई और सांस्कृतिक रुप से बंगाली के ज्यादा निकट है। मिथिला का क्लचर भी बंगाल से ज्यादा मिलता जुलता है। माछ- भात (मछली-चावल) अभी भी वहां का सर्वप्रिय भोजन है, लेकिन ग्लोबलाईजेशन के बाद करवाचौथ भी पहुंचने लगा है। मेरी इन पंक्तियों का करवाचौथ से कोई विरोध नहीं है, लेकिन दुख की बात ये कि लोग अपनी सांस्कृतिक प्रतीकों को तेजी से भूलते जा रहे हैं।

मैथिली की अपनी एक अलग लिपि थी, अपना व्याकरण था और खड़ी हिंदी से पुराना इतिहास भी। ये उत्तर भारत की एक क्लासिकल भाषा है जिसमें लेखन की एक प्राचीन परंपरा है। शायद इसी वजह से इसमें भोजपुरी की तरह अश्लीलता का पुट नहीं आ पाया। कवि कोकिल विद्यापति मिथिलांचल के ही थे। लेकिन मिथिलांचल का इलाका जब बंगाल के विभाजन के बाद बिहार का हिस्सा बना तो हिंदी के वर्चस्व के तले ये भाषा धीरे-धीरे अपना असर खोती गई है। मुझे याद आता है, मेरे बचपन के समय तक पटना की चेतना समिति एक बड़ा सांस्कृतिक केंद्र था और वहां बड़े आयोजन होते थे। लेकिन धीरे-धीरे लोग हिंदी अंग्रेजी की तरफ बढ़ते गये और मैथिली सिर्फ घरों में सिमट कर रह गई-वो भी मां के आंचल तले, पत्नी की बांहों में भी नहीं।

आज मैथिलभाषी लोग अपनी भाषा बोलने में हीनता का अनुभव करने लगे हैं। सभी लोग तो नहीं लेकिन एक वर्ग ऐसा तो जरुर बन गया है। लोगों को ये बताते हुए शर्म आती है कि उनका घर सहरसा या दरभंगा है। मां-बाप की आंखे बच्चों को पॉप संगीत पर थिरकते देख चमक उठती है, मानो वे सदियों से इस इलाके में रहे पिछड़ेपन और गरीबी की जिल्लत से एकबारगी ही मुक्ति पा गए हों। लेकिन शायद ये मेरी भाषा के साथ ही नहीं हो रहा। ये त्रासदी उन सारी भाषाओं की है जो आकार में छोटी हैं, और नौकरी व कारोबार के अनुकूल नहीं है। हिंदुस्तान में जिंदा रहने के लिए हिंदी-अंग्रेजी का ज्ञान जरुरी हो गया है, कल्चर और मातृभाषा तो सेकेंडरी चीज हो गई है।

शायद, ग्लोबलाईजेशन का ये जरुरी नतीजा है। आपको वहीं सोचना,खाना, ओढ़ना और पहनना है जो सुदूर अमेरिका में हो रहा है या कम से कम दिल्ली-मुम्बई में तो जरुर हो गया है। विडियोकॉन टॉवर के इस चमचमाते ग्लास हॉउस में बैठकर सोच रहा हूं कि क्या दरभंगा या मधुबनी का काली मंदिर चौक वाकई रहने के लिए बहुत नामाकूल जगह थी ? क्या आनेवाले वक्तों में हिंदुस्तान की सतरंगी बगिया वाकई सतरंगी रह पाएगी...।

Sunday, June 13, 2010

आपकी ईमानदारी एक ब्रांड तो है ही

Honesty भले ही बेस्ट पालिसी नहीं रह गई हो......लेकिन आपकी ईमानदारी एक ब्रांड तो है ही...अब बलबीर भाटिया को ही देख लीजिए...ऑटो चलाते है, लेकिन अपनी ब्रांडिंग करना नहीं भूलते। ईमानदारी को ही अपना यूएसपी बना लिया....टाटा और रिलायंस का अंतर समझते हैं। ख़ैर तश्वीर नई दिल्ली रेलवे स्टेशन से ली गई है। दस लाख रूपए कम नहीं होते लेकिन ईमानदारी की भी भला कोई क़ीमत लगा पाया है।

Thursday, January 14, 2010

हैती में कुदरत का कहर

ज़मींदोज शहर पोर्ट ओ प्रिंस- हैती की राजधानी...!

तुम कैसे बच गए मसीहा..!
तबाही...सिर्फ़ तबाही..!

इंसान...कितना लाचार...!

© PICS COURTSEY – LA TIMES\ TELEGRAPH\ TIMES ONLINE

Saturday, January 9, 2010

'कारपोरेट' चाय...!

ये चाय मामूली चाय नहीं है। यह ठंढ़ी होने की वजह से केस स्टडी बन चुकी है। यह अपने आप में कॉरपोरेट जगत के महान सिद्धांतो को समेटे हुए है। कटवारिया सराय के मकान नंबर xyz के फोर्थ फ्लोर पर सैमसंग का एक सिस्टम है, जिसके सामने यह चाय रखी हुई है। 'कॉरपोरेट कुली' 10 बजे उठता है। उठते ही ऑफ़िस के बकाया कामों को निपटाने के लिए ‘सिस्टम’ से जा चिपकता है। बीच में लड़कियों के फ़ोन...न्यू ईयर विश, बर्थ डे की बधाईयां...। चाय ठंढ़ी हो गई है। मलाई तैरने लगी है।
44 रूपए किलो चीनी और 60 रू के लिप्टन के पैक से निकली चाय पत्ती...हमारे उदीयमान अर्थशास्त्री इस चाय की क़ीमत 3रु 45 पैसा कूतते हैं। चूंकि ये ठंढी हो गई है, इसलिए देश की जीडीपी साढ़े तीन रूपए घाटे में जा रही है। लेकिन इसी के साथ एक रिवाइवल पैकेज भी है जो सत्यम के रिवायवल पैकेज से कम नहीं है।
सवाल यह है कि हमारा Objective क्या है?
“PRIMARY OBJECTIVE” – To re-instate the position of एक कप चाय without diluting the BRAND VALUE of same without un-altering the positioning. (कड़क चाय)

Secondary:- To increase the frequency of Tea drinkers (चाय पियक्कड़) and to have a positive rub off for our brands( फिर से कड़क) with increased category penetration.( एक बट्टा दो कप)

“MISSION” – To protect and promote the interests of tea drinkers while serving the needs of its members. (चाय की तलब)

“VISION” – To strive for highest possible standards in day to day life and quality of products.

"GOAL" - To be on the top of the mind recall for every tea users, thus we need to be on every household. ( ताकि लोगों को ये एहसास रहे कि ये बर्बादी है और बिना किसी ग्लानि वोध के ऐसा सभी लोग करें)

इस प्रोजेक्ट रिपोर्ट में बहुत कम निवेश का जिक्र है-मसलन..चाय को फिर गर्म करने में लगा खर्च-30 पैसा और उसे एक बेहतरीन कप में बेहतरीन रोमांटिक गाना गुनगुनाते हुए पेश करना। इसे आप आपर्चुनिटी कोस्ट (यानी ऐसा काम जो आपने किया बिल्कुल नहीं है लेकिन अफसोस इस बात का कर रहे हैं कि अगर करते तो इतना फायदा होता) कह सकते हैं जो आपकी बीवी द्वारा चाय को फिर से बनाने की सूरत में 0 रुपया है जबकि रामपाल द्वारा बनाए जाने की सूरत में 7 पैसा प्रति कप बैठता है। प्रोजेक्ट रिपोर्ट तैयार करने में कंपनी के बेहतरनी एक्जक्यूटिव का लगा वक्त और उसका ह्यूमेन रिसोर्स प्रति कप 3 पैसा बैठता है और अगर इस तरह के 5 करोड़ कप चाय को रिवाईव किया जाता है तो मुनाफा तकरीबन 18 करोड़ रुपये का है।

तो लीजिए तैयार है गरम चाय और इसका क़ॉरपोरेट रिवाईवल प्लान।

नोट- इस प्रोजेक्ट को तैयार करने में संजीव कुमार और सुशांत झा का अहम य़ोगदान है लेकिन मनेजमेंट के आला अधिकारियों ने उनका नाम चेतन भगत की तरह बेहद पतले अक्षरों में सिर्फ क्रेडिट रोल में दिया है। दरअसल, ऐसा कंट्रैक्ट में ही था!

Tuesday, January 5, 2010

पटना तू भी बदलने लगा...!

आज ही अपने गृह शहर पटना से लौटा हूं। शीत-लहर के कारण कमोबेश सभी गाड़ियां देर से चल रही हैं। लेकिन इसे संयोग कहिए या कुछ और कि मेरी गाड़ी विक्रमशिला बिल्कुल नीयत समय पर दिल्ली पहुंच गई। वहां सब ठीक-ठाक चल रहा है। पिछड़ेपन के लबादे को पीछे छोड़ बिहार अब तेजी से विकास की ओर बढ़ रहा है। केंद्रीय सांख्यिकी संगठन (सीएसओ) के नवीनतम आंकड़ों ने भी इसकी पुष्टि कर दी है। बिहार नई मिरेकल इकॉनमी बन गया है। पटना की सड़कों पर राज्य के बढ़े हुए कांफिडेंस की झलक दिख जाती है। कई नए शापिंग मॉल, नए मल्टीप्लेक्स, फाईव स्टार रेस्त्रां, सड़कों पर लंबी गाड़ियां, नियॉन लाईट्स से जगमगाते मल्टीनेशनल कंपनियों के दफ्तर और लोगों के अंदर नई ऊर्जा, ये सब मुझे पटना में दिखा। मोना टॉकिज अब मल्टीप्लेकस बन गया है। किसी ज़माने में 10 रू में डीसी की टिकट मिलती थी, वहीं 'थ्री इडियट्स' देखने के लिए मुझे इस बार डेढ़ सौ रूपए खर्च करना पड़ा। कई नए लोकल मीडिया संस्थान के ऑफिस खुल गए हैं। पिताजी के कई मित्रों से राज्य की स्थिति पर बात हुई। नीतीश कुमार के कई प्रशंसक मिले, कई आलोचक भी। लेकिन मुख्यमंत्री का कोई निंदक नहीं मिला..। कानून व्यवस्था भी की हालत भी पहले से काफी सुधर गई है। पहले जहां गोली-बम की आवाज़ आम सी हो गई थी, वहीं इस बार बम के धमाकों के बिना थोड़ा सूना-सूना लग रहा था! चौक-चौराहों पर पुलिस मुस्तैद दिखी। शराब के ठेकों की संख्या बढ़ गई है। लेकिन 1 जनवरी को कोई सड़क पर पी कर हंगामा करता नहीं दिखा। पटना कॉलेज में एक क्लास लेने का मौका मिला। बैचलर इन जर्नलिज्म के अंतिम वर्ष के छात्रों से बात करने पर उनके अंदर अंग्रेज़ी सीखने की लालसा दिखी। इंजीनयरिंग, मेडिकल के कोचिंग तो पहले से ही बहुत थे, इस बार अंग्रेज़ी सीखाने वाले कई नए संस्थान कुकुरमुत्तों की तरह उग आए हैं। बिहारी छात्र सिर्फ इंग्लिश में मार खा जाता है, लेकिन शायद अब मर्ज़ पकड़ में आ गया है। इधर फूड हैबिट भी तेज़ी से बदल रहा है। किसी ज़माने में लिट्टी-चोखा को राज्य के पिछड़ेपन का प्रतीक माना जाता था, लेकिन पटना में मुझे कई ऐसे रेस्त्रां मिले जहां बड़ी शान से लिट्टी-चोखा को मैन्यू में सबसे उपर जगह दिया गया था।

लेकिन विकास की इस बयार में कुछ चीजें छूट भी गई हैं। मसलन सड़क पर गाड़ियों की संख्या तो बढ़ गई हैं लेकिन रोड की चौड़ाई नहीं बढ़ पाई है। विकास के तमाम फायदे कहीं पटना में ही न सिमट कर रह जाएं ये खतरा बरकरार है। इसकी वजहें भी है। हाल के सालों में पटना में रीयल स्टेट की कीमतें दिल्ली-मुम्बई के बराबर होने लगी है। पटना उन कुछ चुनिंदा शहरों में शुमार हो गया है जहां से हवाई यात्रा करनेवाले लोगों की संख्या में भारी बढ़ोत्तरी हुई है।
जाहिर है, ये चीजें एक खतरनाक ट्रेंड की तरफ इशारा कर रही है। इसका मतलब ये है कि पूरे बिहार में विकास के नाम पर पनपने वाला पैसा पटना में जमा होने लगा है-जो राज्य में आनेवाले वक्त में भारी आर्थिक असामनता का पूर्वाभ्यास है।

ये अच्छा है कि राज्य में 11 फीसदी जीडीपी बृद्धि उद्योंग या कारोबार की बदौलत नही आया है। इसमें कृषि और ग्रामीण क्षेत्र का भारी योगदान है। दूसरी बात ये कि राज्य में जीडीपी बृद्धि इतना ज्यादा इसलिए भी दिख रहा है कि बिहार की अर्थव्यवस्था का आकार बहुत ही छोटा है। सरकार अगर इसी तरह समाजिक क्षेत्रों, सड़क, बिजली और शिक्षा पर अपना ध्यान फोकस करती रहे तो बिहार को एक टिकाऊ विकास मिल पाएगा जो पूरे देश में एक मॉडल होगा।

Sunday, November 22, 2009

अपने दादा को याद करिये राहुल गांधीजी !

[सुशांत झा]
सीएनबीसी में बड़े पैमाने पर हुई छंटनी के बाद बरबस ही फिरोज गांधी की याद आ गई। फिरोज गांधी को भारतीय इतिहास में सार्वजनिक उपक्रमों की मजबूती के लिए आवाज उठानेवाले लोगों में से याद किया जाएगा जिन्होने संसद में जनहित के कई बड़े मुद्दे उठाए। लेकिन उससे भी ज्यादा फिरोज गांधी को जिस बात के लिए याद किया जाएगा वो है साल 1956 का वो कानून जिसने मीडिया वालों को विधायिका से संबंधित मामलों की रिपोर्टिंग करने में बड़ी मदद की। इससे पहले मीडिया के लोग अगर संसद में हो रही किसी कार्यवाही को छापते थे तो ये उनका निजी रिस्क होता था। सांसद उनपर विशेषाधिकार प्रस्ताव के तहत कार्रवाई कर सकते थे। ऐसा अक्सर होता था कि पत्रकार विवादास्पद मुद्दों की रिपोर्टिंग से बचने की कोशिश करते। लेकिन 1956 में फिरोज गांधी की कोशिशों से संसद ने एक कानून पास किया जिसके तहत पत्रकारों को संसदीय कार्यवाही को छापने का निर्भीक अधिकार दिया गया भले ही इसमें किसी पर कोई आरोप ही क्यों न लग रहा हो।
फिरोज गांधी ने भ्रष्टाचार के खिलाफ मोर्चा ही खोल रखा था। वे संसद के जिस कोने में बैठते थे उसे आज भी फिरोज कार्नर कहा जाता है। उन्होने एलआईसी में एक बड़े घोटाले को संसद में उठाया था जिसके तहत कलकत्ता के एक बड़े शेयर दलाल हरिदास मुंदरा की गिरफ्तारी हुई थी और नेहरु केबिनेट के कद्दावर मंत्री टी टी कृष्णमाचारी को इस्तीफा देना प़ड़ा था। न्यायमूर्ति एम सी चागला जांच आयोग ने पाया कि एलआईसी के पैसे का दुरुपयोग बड़े पैमाने पर मुंदरा के शेयरों की खरीद के लिए की गई थी जिसका बाजार भाव काफी नीचे था। ये नेहरुजी के काल में और आजाद भारत में सबसे बड़ा और पहला घोटाला था जिसको फिरोज गांधी ने उजागर किया था और नेहरु सरकार की काफी किरकिरी हुई थी। माना जाता है कि इस वजह से फिरोज गांधी और इंदिरा गांधी में और भी दूरी बढ़ गई थी।

लेकिन मुद्दे पर लौटते हुए बात करे तो फिरोज गांधी के पोते और राहुल गांधी में अपने दादा का कोई लक्षण नहीं दिखाई देता। आजकल राहुल गांधी को गौर से सुनता हूं। वे गरीबी, शिक्षा, रोजगार जैसे मुद्दों पर खूब बोलते हैं। कभी-कभी भ्रम होता है कि राहुल गांधी कहीं वामपंथी मिजाज के तो नहीं हो गए क्योंकि ये सब काम तो अमूमन वामपंथियों का होता था! राहुल गांधी मीडिया के बड़े हीरो हैं, उनकी तस्वीर लोग देखना चाहते हैं, कन्याएं उनपर फिदा हैं(एक मुम्बई में रहने वाले सलीम खान के बेटे पर भी लोग फिदा है)। हिंदुस्तान का विपक्ष एक नहीं है, वो साम्प्रदायिक और जातीय बातें करता है और लोग पिछले 20 सालों में उससे ऊब गए हैं। ऐसे में लोगों का कांग्रेस प्रेम स्वभाविक है।

लेकिन राहुल गांधी नौकरियों की हो रही छंटनी और महंगाई पर अपनी जुबान नहीं खोलते। इसे क्या माना जाए। सीएनबीसी में हुई बड़े पैमाने पर छंटनी तो महज एक नमूना भर है। देशभर में ऐसी छंटनियां हर रोज संगठित-असंगठित क्षेत्र में हो रही है लेकिन राहुल गांधी जिस युवाओं के आदर्श की बात करते हैं क्या उन्हे सचमुच कुछ नहीं दिखाई देता ? कम से कम मीडिया में हो रही छंटनी से ही वे इसकी शुरुआत करते जिसने उनकी इमेज बनाने में बड़ा रोल अदा किया है।

Friday, November 20, 2009

अगहन की रात, जेठ का मज़ा

तारीख़ 20 नवंबर 2009
आज बहुत ही ख़ास दिन है और लंबे अंतराल के बाद हमारी मित्र मंडली ने मिलने का प्रोग्राम बनाया है। कुछ पुरानी यादों को ताज़ा करना है और कुछ नई ग्रामीण से लेकर अन्तरराष्ट्रीय समस्याओं की खाल खींचनी है। सारा बंदोबस्त हो चुका है। घास पात बिरादरी के लिए पनीर है, तो नॉन वेज के लिए देसी मुर्गे की आवाज़ अभी खामोश की गई है...साथ ही मदिरा के दौर का इंतजाम भी चौकस है। आज किसी भी तरह की कमी नहीं होगी पिछली बार की भूल का एहसास है, जब दारु बीच में ही खत्म हो गई थी और हमारे बौद्धिक ज्ञान का लेवल अचानक माइनस में चला गया था। लेकिन इस बार ऐसा नहीं होगा। जब जब हम ऐसी मुलाकात करते हैं तो लगता है कि ये हमारे सालाना जलसे का दिन है। आमंत्रण भी सबको दिया जा चुका है। ऋषि अपनी लंबी गाड़ी से अपने प्रिय सेवक रामफल के साथ आदतन देर रात को ही कदम रखेगा, जबकि सुशांत अपनी प्यारी बदरपुर बॉर्डर की ब्लू लाइन की सेवा का आनंद उठाते आ रहे हैं। मैंने और राजीव ने अवकाश ले लिया है ताकि आयोजन में कोई कमी ना हो। हम अपनी छुट्टी का पूरा सदुपयोग कर रहे हैं। अपनी ऊर्जा स्तर को बढ़ाना, बिना नहाए ही भोजन किया, धूप का सेवन कर खुद को तरोताजा करना। कुछ लोगों को आपत्ति हो सकती है कि नहाया क्यों नहीं तो भाइयों बता दें देश लोकतांत्रिक है सो ये अपन की मर्जी है। हमने कुछ तस्वीरें भी खिंचवाई है ताकि जब बड़े आदमी बन जाएं तो लोग इसे संभालकर इस्तेमाल करें। राजीव के यहां काम करने वाला लौंडा राजेश हमसे दुगुने उत्साह में है और इस बार पता लगा वो हमसे बड़ा पत्रकार है। किसी ज्ञान में कोई कमी नहीं और किसी खबर की फ्लैश चलते ही तुरंत खबर देना...सो हमने डिसाइड किया कि जब हम 'बास' बनेंगे तो इसे इनपुट में जगह दी जाएगी। घर के नीचे बैठी कुतिया भी सुबह से ही अंगड़ाई ले रही है कि आज तो अच्छी दावत मिलने वाली है शायद वो हमारे उत्साह को देखकर लबरेज है। सूरज भी आज आकाश से सलामी दे रहा था कि भाइयों रात को तो नहीं रहूंगा लेकिन मुझे भी याद रखना सो उसकी भी अर्जी रख ली गई है। पहले भी मैं कई दफा ज्यादा हो गया लिखता बहुत कम हूं लेकिन ये ज़िक्र कर चुका हूं कि सुशांत का कोई जोड़ नहीं जितनी कमनीय उनकी काया है वैसा ही दिमाग वो हमारे लिए बैटरी का काम करते हैं। जबकि काला साहेब हमारे कबीर हैं, 'नियरे निंदक राखिए'। हर बात पर सजग करने वाले यही उसकी बात है कि हमारे लिए वो दिलो जान से प्यारा है लेकिन कभी कभी कुछ अतिरेक उसके जरिए हो ही जाता है। राजीव अभी गुशलखाने में है और मुझे ये जिम्मेदारी दी गई है कि इसे लिखकर तुरत एक आमंत्रण सबको भेज दिया जाए। सो भाई लोग इस हुल्लड़बाज़ी संग्रह में आपका स्वागत है.... कार्यक्रम स्टार्ट आहे......आपको सादर इनिविटेशन....अपने खतरा उठाते हुए आइये...।
विनीत
राजीव कुमार(पत्तरकार)
राघवेंद्र(पत्तरकार)

राघवेंद्र त्रिपाठी

Sunday, November 15, 2009

अजब गज़ब - हवा में आदमी

ये तश्वीर ब्रिटिश अख़बार डेली मेल से ली गई है। ब्रिटेन में इस साल के सबसे भयंकर तूफ़ान ने इस शख़्स को हवा में तीन फीट तक उठा दिया।
ख़बर को विस्तार से यहां देख सकते हैं - http://www.dailymail.co.uk/news/article-1227958/Biggest-storm-year-sweeps-Britain-feet-flooding-gales-lightning-strikes.html

Saturday, November 14, 2009

सचिन ग्रेट हैं..लेकिन जीत का चस्का तो गावस्कर ने लगाया था।

आज सचिन अंतराष्ट्रीय क्रिकेट में 20 साल पूरा कर रहे हैं। इन 20 वर्षों में सचिन ने सफ़लता के कई मुकाम खड़े किये। कितनी ही रिकार्डें ध्वस्त की...कई नए कीर्तिमान बनाए...इस खेल की नई परिभाषाएं गढ़ीं। क्रिकेट प्रेमियों का भरपूर मनोरंजन भी किया। लेकिन क्या सचिन इतिहास के सबसे महान क्रिकेटर हैं?? सच है, सचिन ने वन डे और टेस्ट में जो रनों का पहाड़ खड़ा किया है, वो अपने आप में मिसाल है, और आने वाले सालों साल तक कोई खिलाड़ी उनके रिकार्ड के आसपास भी पहुंचता नहीं दिखाई दे रहा है। लेकिन व्यक्तिगत रन और महानतम होना, दो अलग-अलग बातें हैं। मेरे जेनरेशन के लोगों ने सुनिल गावस्कर को कम ही खेलते देखा है। लेकिन मुझे वो सचिन से महान और बेहतरीन बल्लेबाज लगते हैं। ये विचार बिल्कुल ही व्यक्तिगत हैं।
सचिन अंतराष्ट्रीय क्रिकेट में 1989 में आए। ये वो समय था जब भारत में नेहरूवियन समाजवाद अपनी अंतिम दिनों को गिन रहा था। समाज व्यापक बदलावों के लिए कुलबुला रही थी। अगले कुछ ही सालों में मनमोहन सिंह ने भारतीय बाजार को धीरे-धीरे आर्थिक ताक़तों के लिए खोल दिया था। बाजार का दम भी सचिन को उस मुकाम तक पहुंचाने में मदद करने वाली थी, जहां वो आज हैं। हम गुलामी की मानसिकता से बाहर निकल रहे थे। दुनिया से दो-दो हाथ करने की हमारी बेताबी हिलोरें ले रही थी। सचिन, हमारी मानसिकता के इसी बदलाव के प्रतीक बने। मैं तो उस वक्त बहुत छोटा था, लेकिन आज मुड़ कर किताबों के माध्यम से उस वक्त को देखता हूं, तो बदलाव स्पष्ट दिखता है। उस समय विदेशों में हमारी दो तरह से पहचान होती थी। एक टैक्सी चलाने वाला हिन्दुस्तानी, दूसरा सीलिकन वैली में पहुंचे नए रंगरूटों की फौज, जो आने वाले समय में भारत की पहचान बनने वाले थे। विश्व मंच पर ‘ब्रांड इंडिया’ का आगाज़ हो चुका था। हमारी ये नई पोजीशन हमें सूकून भी दे रही थी। उससे पहले हमें ‘सपेरों के मुल्क’ का ही प्रतिनिधित्व करते थे। एक परसेपस्न थी कि हम आलसी हैं, जो कर्म से ज्यादा भाग्य पर यकीन रखते हैं। ये अलग बात थी की कर्म की सबसे बड़ी बाईबल ‘गीता’ हमारी धरती पर ही लिखी गई थी। किसी पश्चिम के विद्वान नें हमें विश्व का सबसे बड़ा ‘अराजक लोकतंत्र’ तक कहा था।
गावस्कर ने ऐसे तेज़ गेंदबाजों का सामना किया जो क्रिकेट इतिहास में पहले कभी नहीं देखा था, न ही आगे देखा। लेकिन इससे भी बड़ी बात यह थी कि पहली बार कोई देशी जीतने की मांईडसेट से खेलने उतरा था। गावस्कर से पहले हम खेलने के लिए खेलत थे, जीतने के लिए नहीं। मैदान के चारों और लगने वाले गावस्कर के चौकों, छक्कों से कड़कड़ाहट से हमारी तंद्रा टूटी। खेल की भावना तो हमारे अंदर थी, लेकिन जीतने का ख़्वाब पहली बार हमने गावस्कर की आंखों से ही देखा था। गावस्कर पहले भारतीय क्रिकेटर थे, जिन्होंने विरोधी टीम की आंखों में घूरा। जिसकी शाट्स की चमक गेंदबाजों को विस्मृत कर देती...चौधिया देती। आप इसे मनोवैज्ञानिक इंजीयरिंग कह सकते हैं। आज हरभजन या सचिन अगर विरोधियों की आंखों में विजय भाव से घूर सकते हैं, तो इसका श्रेय गावस्कर को ही जाता है। ऐसा भी नहीं है कि उस वक्त हमारी टीम में गावस्कर से बेहतर खिलाड़ी नहीं थे...लेकिन हौसले का आभाव तो था ही। सैकड़ों वर्षों की गुलामी मानसिकता मैदान पर भी दिख जाती। गावस्कर ने इसी जिंक्स को तोड़ा था। पहला खिलाड़ी जिसने आस्ट्रेलिया में आस्ट्रेलिया के ख़िलाफ वॉक आउट करने की हौसला दिखलाया। भारतीय क्रिकेट का प्रथम पुरूष जो अपनी कमजोरियों को समझता था, फिर भी जीतने के लिए ही मैदान में उतरता था। वो विजय भाव से खेलता, हार उसे यकीनन मंजूर नहीं था। जीतने का चस्का हमें गावस्कर ने ही लगाया था।

1989 में जब सचिन आए, उस वक्त तक गावस्कर ने उनके लिए ज़मीन तैयार कर दी थी। 84 में भारत विश्व कप जीत चुका था। क्रिकेट के मक्का लार्ड्स में तिरंगा लहराया जा चुका था। भारत अब जीतने लगा था। हम विरोधियों की आंखों में झांकने की हिम्मत करने लगे थे। एक देश और समाज के रूप में भारत कांफिडेंट हो गया था। हमारे अंदर औपनिवेशिक सोच की जगह वैश्विक सोच ने ले ली थी। दुनिया भी मानने लगी थी, हम किसी से कमतर नहीं हैं...हम भी जीत सकते हैं। सचिन इन्हीं लग्जरी के बीच ग्रांउड पर उतरे थे। गावस्कर ने अपनी ज़मीन ख़ुद ही तैयार की थी...नियम ख़ुद ही गढ़ा था। सचिन अपने लिए खेलने उतरे थे, गावस्कर ने देश के लिए ग्रांउड वर्क किया था।

गावस्कर को क्रिकेट ही नहीं भारतीय मानसिकता के पुनर्जागरण का श्रेय भी जाता है। अगर हमारे लिए क्रिकेट धर्म है...सचिन भगवान हैं...तो गावस्कर निश्चित ही उस भगवान से बड़े हैं। क्रिकेट का पहला विद्रोही...और शायद सेट ट्रेंड से इसी बगावती सोच के कारण गावस्कर ने कभी हेलमेट पहन कर नहीं खेला...कभी नहीं। और कल्पना कीजिए उन्होंने किस तरह के गेदबाजों का सामन किया..माइकल होल्डिंग, एंडी राबर्टस, जोएल गार्नर, डेनिस लिली, जैफ थॉमसन, मैल्कम मार्शल, बॉब विल्स, सर रिचर्ड हैडली, इमरान ख़ान, सरफ़राज नवाज़, वसीम अकरम...। ये सब लगातार 90 की रफ़्तार से तेज़ गेदबाजी करने में सक्षम थे। और एक भी गेंद सन्नी को छू तक नहीं सकी...। क्या हम कल्पना कर सकते हैं कि सचिन इन गेंदबाजों का सामना बिना हेलमेट के कर पाते।

गावस्कर के मांइड सेट को इस उदाहरण से बेहतर समझा जा सकता है। 84 विश्व कप की फ़ाइनल में भारत के हाथों हारने के बाद वेस्ट इंडीज टीम भारत खेलने आई थी। मार्शल की टीम घायल शेर की तरह दहाड़ रही थी। कानपूर में मार्शल की बांउसर खेलते वक्त गावस्कर के हाथ से बल्ला फिसल गया...लोगों ने सोचा कि गावस्कर की क्रिकेट कैरियर खत्म होने वाली है। लेकिन दिल्ली में होने वाली अगले मैच में गावस्कर ने मार्शल को ऐसा धोया कि उनकी वो पारी क्रिकेट इतिहास बन गई। गावस्कर ने 96 रन बनाए थे, जो उस वक्त बहुत बड़ी बात थी। वो भी अगर सामने वेस्ट इंडीज जैसी टीम हो तो इतना रन सोचना भी गुनाह करने जैसा था। उनकी यही बागी तेवर उन्हें बाकी बल्लेबाजों से मीलों आगे ले जाती है। वो सचिन की तरह नहीं थे, जो दवाब में बुरी तरह लड़खड़ा जाते हैं।
एक बात और, सचिन की टीम में हमेशा तीन-चार अच्छे बल्लेबाज रहे हैं। उनके समकक्ष खेलने वालों में राहुल द्रविड़, सौरव गांगुली, लक्ष्मण, सहवाग, अजहर, मांजरेकर, कांबली जैसे बड़े नाम रहे हैं, जिनका सहयोग निश्चित रूप से सचिन को मैदान पर मिलता रहा है। वहीं गावस्कर की टीम में विश्वनाथ और मोहिंदर अमरनाथ जैसे कुछ ही गिने-चुने नाम थे। यहां तक कि उस वक्त हमारी टीम को ढ़ाई बल्लेबाज की टीम के नाम से बुलाया जाता था। काश....काश! गावस्कर के पास भी सचिन जैसे समकक्ष बल्लेबाज होते या फिर उनका भी जन्म सचिन के समय होता, जब भारत कांफिडेंट हो चुका था.....तो शायद ही कोई पूछता...क्या....सचिन क्रिकेट इतिहास के सबसे बेहतरीन बल्लेबाज है??