Thursday, October 11, 2007

सबके मोक्ष की कामना


भाद्रपद शुक्ल पूर्णिमा से लेकर आश्विन कृष्ण अमावस्या तक सोलह दिनों का पितृपक्ष पूरे देश मे ‘महालय’ श्राद्ध पर्व के रूप में मनाया जाता है। हिंदू धर्म की पुरातन परंपरराओं में आस्था रखने वाले लोग इस पितृपक्ष में अपने स्वर्गीय पिता, पितामह, प्रपितामह, माता, मातामह आदि पितरों को श्रद्धा तथा भक्ति सहित पिंडदान देते हैं और उनकी तृप्ति हेतु तिलांजलि सहित तर्पण भी करते हैं। उत्तर भारत में पिंडदान के लिए प्रसिद्ध जगहों में इलाहाबाद, गया और बनारस का नाम विशेष रूप से लिया जाता है। गया में यह कर्मकांड फल्गू नदी के तट पर संपन्न किया जाता है। इसी गया शहर में सुरेश नारायण भी रहते हैं। बयालिस साल के सुरेश का गया शहर में ही एक छोटी सी पारचून की दुकान है। दुकान से कोई विशेष कमाई नहीं होती है। फिर भी सुरेश पिछले छ: साल से प्रत्येक वर्ष पितृपक्ष में ऐसे लोगों का पिंडदान करते रहे हैं जिनसे उनका ख़ून का रिश्ता नहीं है। न ही वे मरने वाले से कभी मिले थे। इस कर्मकांड को संपन्न करने में वे जाति या धर्म के बंधनों को भी आरे नहीं आने देते हैं। मसलन उस्ताद बिसमिल्लाह खान हों या फिर मदर टरेसा, सुरेश नें दोनों के मुक्ति के लिए पिंडदान किया है। इस वर्ष उन्होंने समझौता एक्सप्रेस, हैदराबाद बम विस्फोट और बिहार में आए भीषण बाढ़ में अपनी जान गँवाने वोले हजारों लोगों के मुक्ति के लिए पिंडदान किया। वहीं पिछले साल बिसमिल्लाह खान के लिए और 2004 में सुनामी में मारे गए लोगों के लिए यह कर्मकांड संपन्न किया। 9/11 में मारे गए लोग हों या फिर अक्षरधाम में मारे गए लोग, सुरेश नें सबके मोक्ष के लिए पिंडदान किया है। इस स्वार्थ-लोलुप कलयुग में, जहाँ व्यक्ति "मैं" से आगे सोचने की हिम्मत ही नहीं कर सकता है सुरेश विश्व बंधुत्व का वाकई एक आदर्श उदाहरण पेश कर रहे हैं।

3 comments:

Unknown said...

तसल्ली मिलती है। आज भी ऐसे लोग हमारे सामाज में बसते हैं। वाकई दिलचस्प और सीख लेने वाले इंसान हैं सुरेश भाई....

Udan Tashtari said...

अब जबकि एक मान्यता प्रचलित है पिंडदान की-ऐसे में सुरेश भाई का कार्य उल्लेखनीय है-साधुवाद. मुद्दा दूसरों और गैरों के लिये विचार करने का है, जब अपनों के लिये व्यक्ति के पास समय नहीं है. उन्हें नमन.

अनिल रघुराज said...

यही तो जीवन है भाई। असल में पिंड दान करके हम जीवन में मौत की अपरिहार्यता को ज्यादा समझने लगते हैं। सुरेश जी के अंदर यकीनन एक निर्विकार संत की आत्मा होगी।