अगस्त की आठ तारीख़, साल का भी संयोग 2008। घड़ी की सूई ज्यों हीं आठ बज कर आठ मिनट और आठ सेकेंड पर पहुँची, प्रकाश किरणों की चकाचौंध के बीच ओलंपिक के इतिहास ने बीजिंग आगमन की दस्तक दी। मैं दफ्तर में टेलीविजन सेट से चिपक कर बैठा था। मैं अकेला ही क्यूं, दुनिया भर में अरबो लोगों ने इस ऐतिहासिक पल का लाईव प्रसारण देखा। यह अपने आप में इतिहास का एक अनूठा अध्याय था। अपने पराक्रम, कौशल, शक्ति और श्रेष्टता को लेकर चीन ने ग्रेट वाल के बाहर पूरी दुनिया के साथ संवाद स्थापित कर लिया।
पिछले दस वर्षों से चली आ रही ओलंपिक की अथक तैयारी का निचोड़ इस समारोहों में साफ़ दिखा, जिसमें चीन के स्वर्णिम अतीत से आधुनिक युग तक की द्रुत क़दमताल में जितने पड़ाव आए उन सबकी झलक दिखलाने की कोशिश की गई। बीजिंग के आसमान में शानदार आतिशबाजी के ज़रिए चीन ने मानो ये याद दिलाने की कोशिश की कि बारूद उसी की देन है। इतना ही नहीं चीन की दीवार, छपाई कला, रेशम के कारोबार से लेकर उन सबकी झलकियाँ देखने को मिली जो दुनिया को चीन की देन हैं।
लेकिन सवाल यह कि दुनिया को, आख़िर चीन क्या जताना चाहता है। "इतिहास", मार्क्स ने कहा था कि "अपने आप को दोहराता है : पहली बार त्रासदी के रूप में और दूसरी बार (तमाशा) प्रहसन के रूप में।" हलांकि चीन में त्रासदी की कभी कमी नहीं रही। लेकिन इतना बड़ा तमाशा दुनिया, पहली बार देख रही है। चीन में हिंसा कोई नई बात नहीं है। 1949 में माओ त्से तुंग के अगुआई में कम्युनिस्ट पार्टी नें विनाशकारी गृहयुद्ध में कोओमिंकांग पार्टी को हराकर जनवादी गणतंत्र की स्थापना की थी। हिंसा की घटनाएं जो उस समय शुरु हुईं वो लगातार चलती रहीं। बाद में इस हिंसा का रुख आम जनता की और मुड़ गया। शीत युद्ध के दौड़ान कम्युनिस्ट पार्टी नें सत्ता पर अपनी पकड़ और मजबूत की। अस्सी के दशक में चीन नें आयरन कर्टेन को कुछ ढ़ीला किया, लेकिन फिर भी अत्याचार की घटनाएं कम नहीं हुईं। एक ओर जहाँ आर्थिक सुधारों ने देश के 25 करोड़ जनता को गरीबी रेखा से उपर उठाया वहीं थ्यान-मेन स्क्वेयर जैसी वीभत्स घटनाएं भी सामने आईं। 1989 में सरकार नें थ्यान-मेन स्क्वेयर पर विरोध कर रहे सैकड़ों छात्रों को मरवा दिया। आर्थिक महाशक्ति बनने की आक्रामक आकांक्षा और वैश्विक मंच पर स्वनिर्णय की इच्छा के बीच चीन अभी भी आधुनिकीकरण और आधुनिकता के बीच के संक्रमण में फंसा हुआ है।
यह तो कहानी थी त्रासदी की, अब बात तमाशे की। 08।08.08 के ठीक 08:08:08 बजे बीजिंग में 29वां ओलंपिक गेम्स शुरू हो जाती है। एक साथ दिमाग में कई चीजें दौड़ने लगती है। 42,000 टन स्टील से बनी बर्ड नेस्ट स्टेडियम, वायु प्रदूषण को रोकने के लिए बनाए गए कठोर कानून, मजदूरों के साथ ताजमहली सूलुक, बारिश को रोकने के लिए 32,000 वैज्ञानिकों की फौज़, तिब्बत समर्थकों को तड़ीपार किया जाना, लोकतंत्र समर्थको, मानव अधिकार कार्यकर्ताओं और मृत्यु दंड विरोधियों को जेल में डाल देना....। इस महत्वपूर्ण घड़ी में जब चीन विश्व मंच पर प्रतीकात्मक प्रवेश करने के कगार पर हो, कोई भी छोटी सी घटना उसके सारे किए कराए पर पानी फेर सकती है। कोई भी सरकार ऐसा नहीं चाहेगी। इंटरनेट पर पाबंदी पहले से और कठोर कर दी गई है। फिर भी जिन-ज्यांग प्रोविन्स में अभी-अभी आठ लोगों के मरने की ख़बर आ रही है।
लेकिन चीन शायद इस बात को भूल रहा है कि त्रासदी और तमाशे (प्रहसन) के इतर, इतिहास काले विडंबनओं के साथ भी अपने आप को दोहराती रही है। 1936 के बर्लिन ओलंपिक गेम्स का इस्तेमाल हिटलर नें "राष्ट्रों के बीच शांति स्थापित" करने की भूमिका बुनने के लिए किया था। जबकि 1934 और 1938 के ओलंपिक में इटली के शानदार प्रदर्शन को मुसोलिनी नें राष्ट्रीय गौरव से जोड़ा था। बाद में दोनों देशों का क्या हश्र हुआ यह हम सब जानते हैं। इसलिए चीन के लिए बेहतर तो यही होगा कि ओलंपिक जैसे पवित्र खेलों को अपने राजनीतिक भाग्योदय से न जोड़े।
पिछले दस वर्षों से चली आ रही ओलंपिक की अथक तैयारी का निचोड़ इस समारोहों में साफ़ दिखा, जिसमें चीन के स्वर्णिम अतीत से आधुनिक युग तक की द्रुत क़दमताल में जितने पड़ाव आए उन सबकी झलक दिखलाने की कोशिश की गई। बीजिंग के आसमान में शानदार आतिशबाजी के ज़रिए चीन ने मानो ये याद दिलाने की कोशिश की कि बारूद उसी की देन है। इतना ही नहीं चीन की दीवार, छपाई कला, रेशम के कारोबार से लेकर उन सबकी झलकियाँ देखने को मिली जो दुनिया को चीन की देन हैं।
लेकिन सवाल यह कि दुनिया को, आख़िर चीन क्या जताना चाहता है। "इतिहास", मार्क्स ने कहा था कि "अपने आप को दोहराता है : पहली बार त्रासदी के रूप में और दूसरी बार (तमाशा) प्रहसन के रूप में।" हलांकि चीन में त्रासदी की कभी कमी नहीं रही। लेकिन इतना बड़ा तमाशा दुनिया, पहली बार देख रही है। चीन में हिंसा कोई नई बात नहीं है। 1949 में माओ त्से तुंग के अगुआई में कम्युनिस्ट पार्टी नें विनाशकारी गृहयुद्ध में कोओमिंकांग पार्टी को हराकर जनवादी गणतंत्र की स्थापना की थी। हिंसा की घटनाएं जो उस समय शुरु हुईं वो लगातार चलती रहीं। बाद में इस हिंसा का रुख आम जनता की और मुड़ गया। शीत युद्ध के दौड़ान कम्युनिस्ट पार्टी नें सत्ता पर अपनी पकड़ और मजबूत की। अस्सी के दशक में चीन नें आयरन कर्टेन को कुछ ढ़ीला किया, लेकिन फिर भी अत्याचार की घटनाएं कम नहीं हुईं। एक ओर जहाँ आर्थिक सुधारों ने देश के 25 करोड़ जनता को गरीबी रेखा से उपर उठाया वहीं थ्यान-मेन स्क्वेयर जैसी वीभत्स घटनाएं भी सामने आईं। 1989 में सरकार नें थ्यान-मेन स्क्वेयर पर विरोध कर रहे सैकड़ों छात्रों को मरवा दिया। आर्थिक महाशक्ति बनने की आक्रामक आकांक्षा और वैश्विक मंच पर स्वनिर्णय की इच्छा के बीच चीन अभी भी आधुनिकीकरण और आधुनिकता के बीच के संक्रमण में फंसा हुआ है।
यह तो कहानी थी त्रासदी की, अब बात तमाशे की। 08।08.08 के ठीक 08:08:08 बजे बीजिंग में 29वां ओलंपिक गेम्स शुरू हो जाती है। एक साथ दिमाग में कई चीजें दौड़ने लगती है। 42,000 टन स्टील से बनी बर्ड नेस्ट स्टेडियम, वायु प्रदूषण को रोकने के लिए बनाए गए कठोर कानून, मजदूरों के साथ ताजमहली सूलुक, बारिश को रोकने के लिए 32,000 वैज्ञानिकों की फौज़, तिब्बत समर्थकों को तड़ीपार किया जाना, लोकतंत्र समर्थको, मानव अधिकार कार्यकर्ताओं और मृत्यु दंड विरोधियों को जेल में डाल देना....। इस महत्वपूर्ण घड़ी में जब चीन विश्व मंच पर प्रतीकात्मक प्रवेश करने के कगार पर हो, कोई भी छोटी सी घटना उसके सारे किए कराए पर पानी फेर सकती है। कोई भी सरकार ऐसा नहीं चाहेगी। इंटरनेट पर पाबंदी पहले से और कठोर कर दी गई है। फिर भी जिन-ज्यांग प्रोविन्स में अभी-अभी आठ लोगों के मरने की ख़बर आ रही है।
लेकिन चीन शायद इस बात को भूल रहा है कि त्रासदी और तमाशे (प्रहसन) के इतर, इतिहास काले विडंबनओं के साथ भी अपने आप को दोहराती रही है। 1936 के बर्लिन ओलंपिक गेम्स का इस्तेमाल हिटलर नें "राष्ट्रों के बीच शांति स्थापित" करने की भूमिका बुनने के लिए किया था। जबकि 1934 और 1938 के ओलंपिक में इटली के शानदार प्रदर्शन को मुसोलिनी नें राष्ट्रीय गौरव से जोड़ा था। बाद में दोनों देशों का क्या हश्र हुआ यह हम सब जानते हैं। इसलिए चीन के लिए बेहतर तो यही होगा कि ओलंपिक जैसे पवित्र खेलों को अपने राजनीतिक भाग्योदय से न जोड़े।
5 comments:
शानदार कल्पना। खेल की भावना पर जब राष्ट्रवाद हावी हो तो ऐसा ही होता है।
ओलंपिक खेलों के जरिये चीन स्वयं को एक आधुनिक विश्व शक्ति के रूप में दिखाना चाहता है । परंतु इन खेलों के कारण देश के मानवाधिकार रिकॉर्ड की ऐसी-तैसी हो गई है।
बेहतरीन विश्लेषण, लिखना जारी रखें।
जो भी है उदघाटन समारोह था बड़ा ही भव्य और ये किया भी इसलिए गया था क्योंकि उसको दिखाना था अमेरिका को कि चीन क्या है।
अच्छा विश्लेषण. चीन जो दिखाना चाहता था, उसमें वो सफल रहा.
Post a Comment