दृश्य नंबर 1 - रात के चार बजे। कंप्यूटर पर खटपट कर रहा हूं। सुशांत सोने की कोशिश कर रहा हैं, लेकिन कुनमुना रहा है।
दृश्य नंबर 2- सुबह के दस बजे। सुशांत कंप्यूटर पर खटपट कर रहा है, मैं बिस्तर पर भुनभुना रहा हूं।
दुश्मन कौन है...इंटरनेट, ऑरकुट, ब्लॉग और इसके मसीहा....अविनाश, रवीश, कबाड़खाना के कबाड़ी और तमाम ब्लौगिक आतंकवादी।
दृश्य नंबर 2- सुबह के दस बजे। सुशांत कंप्यूटर पर खटपट कर रहा है, मैं बिस्तर पर भुनभुना रहा हूं।
दुश्मन कौन है...इंटरनेट, ऑरकुट, ब्लॉग और इसके मसीहा....अविनाश, रवीश, कबाड़खाना के कबाड़ी और तमाम ब्लौगिक आतंकवादी।
दिक्कत यहीं ख़त्म नहीं होती, यहां से शुरु होती है। रूम में एक कंप्यूटर है, एक ही कुर्सी है। फ़ुर्सत के वक्त में सारे इस कुर्सी पर अपनी लालची निगाह गड़ाए रहते हैं। वजह, जिसकी कुर्सी होगी.......वही खटर-पटर कर पाएगा। मजे की बात ये है कि अगर दोनो जगे हुए हैं, तो दूसरा कंम्प्यूटर पर बैठने के लिए रुम के दसियों चक्कर लगाता है। कंम्प्यूटर पर बैठा हुआ बंदा अगर धोखे से 'नैचुरल कॉल' के लिए भी जाता है, तो दूसरा फट से कुर्सी हथिया लेता है। अब तो मैंने इसका इलाज भी खोज लिया है। अब मैंने कुर्सी समेत लू जाने का नया फार्मूला इज़ाद कर लिया है। अब ये मत पूछिये लू क्या होता है, जाहिरन ये जून-जुलाई में पड़ने वाला लू नहीं है।
कहानी में ट्विस्ट- गौरतलब है कि हम जिस कंम्प्यूटर के लिए शीतयुद्ध करते हैं वो हमारा है ही नहीं। वो एक साफ्टवेयर इंजिनीयर का है, हमारे साथ रहता है लेकिन हम उसे ये डब्बा छूने ही नहीं देते। इसमें उसकी भी कोई ग़लती नहीं है। उस बंदे को मिथुन और गोविंदा की फिल्मों से फुर्सत ही नहीं मिलती। वो तकरीबन 5000 फिल्मे देख चुका है, लेकिन किसी भी फिल्म के डाइरेक्टर का नाम उसे नहीं मालूम। उसे हमने सिर्फ इस डब्बे की मरम्मत के लिए रखा है-मसलन फार्मेंटिंग, इंटरनेट रिचार्ज करवाना और समय-समय पर उसमें नए साफ्टवेयर लगवाना...झाड़-पोछ करना...। तो डील कुछ यूं हुआ है, कि चुंकि टीवी हमने ख़रीदा है, तो वो देखेगा। और कंम्प्यूटर उसका है, तो हम इस्तेमाल करेंगे। इसे इस तरह भी समझा जा सकता है कि हम टीवी में काम करके भी टीवी नहीं देखते, और वो आईटी में काम करते हुए कंम्प्यूटर नहीं छूता।
एक भाई साब और भी हैं- जो एड जगत में काम करते हैं। कभी-कभी वो हमारी तल्लीनता में ऐसी बाधा डालते हैं, यूं तर्क देते हैं कि हम झंड हो जाते हैं। वो हड़बड़ी में आएंगे, कंम्पयूटर के पिछवाड़े में पेन ड्राइव लागाएगें और एक्सेल सीट खोल कर दिन भर विज्ञापन जगत के आंकड़ों से मत्थापच्ची करने लेगेंगे। वो हमारे लिए किसी यातना से कम नहीं होता।
सुशांत अब मेरे साथ नहीं रहता, लेकिन सप्ताह में एक-दो बार जरुर चक्कर काटता हैं। आप सोचते होगें उन्हे हमसे बड़ी मुहब्बत है, तो जनाब ये आपका भ्रम है। फोन पर उनका पहला सवाल होता है कि नेट चल रहा है कि नहीं। मैं बोलता हूं- नहीं। लेकिन पट्ठा इतना चालाक है कि समझ जाता है कि मैं गोली दे रहा हूं। जिस दिन फ़ुर्सत में रहेगा, जरुर आ जाएगा ब्लॉगिंग के लिए। और अभी तो नामुराद नई नौकरी पाकर पुरानी नौकरी से इस्तीफ़ा दे चुका है- बीच के टाइम में फुल टाइम फ्री है। ब्लॉग लिखने के लिए उसकी जिंदगी में इससे मुफीद दिन कोई नहीं है। साथ ही मेरी नींद का बाजा बज गया है। की बोर्ड पर ऐसे हाथ चलाता है जैसे भारत-पाक सीमा पर बोफोर्स के गोले दग रहे हो। मैं आजिज़ होकर उठ जाता हूं।
अब नेट पर बैठने के लिए बहाना ढ़ूढ़ना हैं। मैं बताता हूं कि आपको कीबोर्ड एटीकेट नहीं है। वो पूछता है ये क्या होता है-क्या ये टेबुल एटीकेट या ऑफिस एटीकेट जैसा होता है। उसे नेट से डाइवर्ट करने के लिए चाय-काफी बनवाई जाती है, सुट्टे सुलगाए जाते हैं और सैकड़ो चिरौरी की जाती है। लेकिन बंदा इतना तेज़ है कि मेरे उठते वक्त कनखी से देखता है कि कहीं उठ तो नहीं रहा। तसल्ली पाकर ही शू-शू करने जाएगा कि कहीं मैं कुर्सी न हड़प लूं। अगर मैं जग गया हूं तो साली कुर्सी ही क्यूं न 'गंदी' हो जाए-पट्ठा उठेगा नहीं।
अब बताइये इस बीमारी का इलाज़ क्या है...कभी ग़ालिब ने कहा था, इश्क ऐसी आग है गालिब कि लगाए न लगे, बुझाए न बुझे। अगर आज ग़ालिब ज़िंदा होते तो इस शेर में शर्तिया 'इश्क' की जगह 'ब्लॉग' कर देते।
एक बात और, ऊपर की तश्वीर उसी नामुराद की है। और हद तो यह कि जो निकर उसने डाल रक्खी है वो भी मेरी ही है। गंदा कर के फेक जाता है।
19 comments:
हा हा हा हा हा
हाँ तो राजीव भाई, ...एक मिनट ...राजीव ही है ना तुम्हारा नाम? ...हाँ.. राजीव ही है... ठीक हैं..
हाँ तो राजीव. तुम्हारी प्रॉब्लम पढ़ी है मैंने. अब ये मत सोचना कि मैं उसका हल बताऊँगा. भाई मैं तो खुद ही दूसरों का सिरदर्द हूँ.
ऐसा करो तुम सभी मेरी हाँ में हाँ मिलाये जाओ, जब मिलेंगे तीन दुखियारे ब्लॉगर... (आगे पता नहीं. तुकबंदी नहीं आती)
जाट भाई, बड़ी कीमती टिप्पणी है, सहेज के रखने वाला...
अपना एड्रेस दो ना यार.. यहा पर तो साला दोस्त का कंप्यूटर पहले ही पांचाली बना हुआ है.. कुछ जुगाड़ लगाओ ना.. और हा मैं अपनी निकर साथ ले आऊंगा..
dost yah filmkan kaphi pasand aya , is nataya rupantar par film bhi ban sakati hai, tumane sabd ke sath yahan pure chitra patal bhi ankhaon ke samane nach jati hai,
good lekin darsharak mitra mandli ke alabe koai aur ho tab
अरे ! अरे ! आप तो बडे बडे मुसीबतो से जूझते हुए ब्लागिंग कर रहे हैं...धैर्य रखें , बहुत आगे जाएंगे।
सालों...के बाद तेरे ब्लॉग पर आया। तुम भी संजीदा लिखने लगे थे इसीलिए..। लेकिन पढ़कर मज़ा आया..। सुशांत जी के औघड़पन से तो हम परिचित हैं हीं। लेकिन ब्लागिंग के इस खींचतान से मेरा साबका नहीं हुआ है। रीज़न? भाई हम तो साइबर कैफे वाले हैं। अभिकलित्र अर्थात् कंप्यूटर नहीं है ना। लेकिन निकर गंदा कर देता है यह द्विअर्थी शब्द है अगले पोस्ट में डिस्क्लेमर दे देना।
Maza aa gaya....
Maza aa gaya bhai
दर्द भरा किस्सा है आपका :) ब्लॉगर तेरा दर्द न जाने कोय ..पीसी मिले तभी तो बलागिंग होए :)लिखते रहिये जैसे ही खटर पटर करने का मौका उँगलियों को कीबोर्ड पर मिले :)
bahut sahi likha hai ji....
:)
भाई हम भी तो ब्लोगिंग के चक्कर में बच्चो के लिए सिरदर्द बने हुए है हमारे घर आने के बाद बच्चे कंप्युटर के लिए तरस ही जाते |
behtareen...
maja aa gaya
do hi vikalp hai hatya ya aatm-hatya :)
भले ही सुशांत को आपने लाख खड़ी-खोटी सुनाई हो, लेकिन पूरी कहानी आप दोनों के बीच शानदार केमिस्ट्री को ही दर्शाता है।
सुना था कि जीवन का दूसरा नाम संघर्ष है पर आपको पढ़कर लगने लगा है कि जीवन का नहीं बल्कि ब्लोगिंग का दूसरा नाम संघर्ष है।
बहुत सुंदर लिखा है!
bahut hi achaa likha Rajeev aapne ..padh kar aapki duvidha ko hum samjhne ki koshis kar rahe the ..ki kya beet-ti hogi jab koi aur computer par baitha hoga aur aapka mann kulbula raha hoga ..sach mein yeh bloggiging ka kedha bahut bura hai ..:-))
is blog ko padh ke mujhe ek film yaad aa gayee....chasme-badoor(farukh sheikh).ap dono ki chemistry lajawab hai. likhte rahiye.
दृश्य काफी महोहारी और रोमांचक है
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