इन दिनों पाकिस्तान किसी कांच के टुकड़े सा खयालों में चुभता है। पाकिस्तान के झंडे पर बना चांद और एक सितारा बिल्कुल अकेला और मायूस लगता है। मैं और विश्वदीपक रोज़ शाम को जब कॉफ़ी पीने वीडियोकॉन टॉवर से नीचे उतरते हैं, तो आसमान के दक्षिण-पश्चिम में एक सितारा बेतरह चमकता हुआ दिखता है। (वीडी रोज़ इसी बात को दुहराता है कि वो भी इसी सितारे की तरह चमकना चाहता है...अकेला लेकिन सबसे चमकदार)। लेकिन पाकिस्तान के झंडे पर चस्पा वो सितारा आजकल मुझे काफ़ी परेशान कर रहा है। वह सितारा आजकल मद्धम है, उदास है...। बिखर जाने के कगार पर है...और यही मेरे डर की वजह है।
जानते हैं क्यूं ?...पाकिस्तान के राष्ट्रपति जरदारी ने मुल्क को बचाने की गुहार लगाई है। जरदारी की यह गुहार कातर है, दयनीय है। लेकिन इस गुहार में दम है। जरदारी ने तो इतनी कातर गुहार उस वक्त भी नहीं लगाई थी जब बेनजीर की हत्या हुई थी। ऐसा लगा जैसे जरदारी के हाथ से पाकिस्तान किसी गेंद की तरह फिसलने वाला है, और उनको इसका इल्म पहले ही हो चुका है। इस गेंद को फिसलने की हद तक पहुंचाने वाला अमेरिका भी हैरान है, परेशान है। अफ़गानिस्तान को अमेरिका के लिए दूसरा वियतनाम कहा जाने लगा है। तारीख़ एक बार फिर अपने को दुहरा रहा है। एक बार फिर अमेरिका, वियतनाम की तरह ही अफ़गानिस्तान में बुरी तरह फंसा चुका है। 9/11 के बाद अफगानिस्तान में ऑपरेशन इनड्यूरिंग फ्रीडम शुरू करते वक्त जार्ज बुश को इसका जरा भी गुमान नहीं होगा। लेकिन अफगानिस्तान में तेजी से बदलते हुए हालात इसी ओर इशारा कर रहे हैं। यानि वियतनाम- 2 ।
अमरीकी राष्ट्रपति बार-बार इस युद्ध को जीतने की बात शिद्दत से दुहरा रहे हैं। लेकिन ओबामा जानते हैं, जिस मुल्क में अमरीका जा फंसा है, उस अफगानिस्तान को देश या राष्ट्र की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता। अफगानिस्तान कई टुकड़ों में बंटा हुआ कबीलों का नाकामयाब झुंड है, जहां तालिबान लड़ाके और कबीलाई सरदार, विदेशी ताक़तों के मुखालफत के सदियों से आदी रहे हैं, और जरूरत पड़ने पर सीमा पार पाकिस्तान के सुविधाजनक ठिकानों में जा छुपते हैं।
दुश्मन के रूप में तालिबान, वियतनामी कांग्रेस विद्रोहियों की तरह शक्तिशाली या एकीकृत नहीं है। ये भी असंभव था कि वियतनामी लड़ाके न्यू-यार्क या शिकागो पर हमला करते, लेकिन इसके उलट अफगानिस्तान में ट्रेनिंग प्राप्त आतंकियों ने ही 2000 में 9/11 और पेंटागन पर हमले किए। एक अमरीकी सामरिक विशेषज्ञ का तो यहां तक कहना है कि अमरीका, अफगानिस्तान में जीत कर भी हार जाएगा- कम से कम इस जीत के लिए कोई समय सीमा या बजट का निर्धारण ख़ुद को अंधेरे में रखना होगा। पेंटागन मानता है, अफगानिस्तान में हालात बद से बदतर होते जा रहे हैं। वियतनाम युद्ध के दौड़ान राष्ट्रपति कैनेडी वियतनाम से आ रही बुरी ख़बरों को सुनने के आदी हो चले थे, यही हाल कार्यकाल के अंतिम दिनों में बुश का रहा और अब यह ओबामा के परेशानी का सबब भी है।
अफ़गानिस्तान में अभी लगभग 30,000 अमेरिकी सैनिक हैं, जो 2010 तक 60,000 तब पहुंच जाएगा। 60,000 की संख्या वियतनाम में भेजे गए पांच लाख सैनिकों की संख्या के सामने बौनी है। अफ़गानिस्तान में 2001 से अब तक 642 अमरीकी सैनिक मारे गए हैं, जो वियतनाम में मारे गए 58,000 सैनिकों कि तुलना में भी काफ़ी कम है। लेकिन चिंताजनक बात यह है कि 2001 में युद्ध शुरू होने के पहले 9 महीनों में मारे गए सैनिकों की तादाद उतनी ही अवधि में वियतनाम में मृत सैनिकों की तुलना में काफ़ी ज्यादा है। और सबसे ज्यादा उलझाने वाली बात यह है कि ओबामा प्राशासन के पास भी इस बात का कोई जवाब नहीं है, कि आख़िर अफ़गानिस्तान में सैनिकों की संख्या क्यूं बढ़ाई जाए। दरअसल, स्याह हक़ीकत तो यही है कि अफ़गानिस्तान में जंग जीतने के लिए अमरीका के पास कोई मुक्कमल योजना है ही नहीं। बुश प्रशासन की तरह, ओबामा के सलाहकार भी किसी रणनीति को सफ़ल बनाने में असफ़ल दिख रहे हैं। किसी रणनीति के आभाव में, अफ़गानिस्तान में सैनिकों की संख्या बढ़ाना मूर्खता है। बल्कि इससे स्थिति और गंभीर होगी। सैनिकों की बढ़ी हुई संख्या आज़ाद खयाल अफ़गानियों के मन में डर पैदा करेगी और वे इसे निश्चित रूप से अपनी स्वतंत्रता के ख़िलाफ़ मानेंगे। अमरीका से आधी दुनिया दूर वियतनाम, बहुत से अमेरिकियों के लिए एलियन देश था। अफ़गानिस्तान के बारे में भी आम अमरीकियों की धारणा अलग नहीं है। वियतनाम फ्रेंच कॉलोनी रह चुकी थी, लेकिन अफ़गानिस्तान में उपनिवेशवाद का विरोध हमेशा से ज्यादा मुखर रहा है। वो फिर 18वीं शताब्दी में अंग्रेज रहे हों, या फिर 80 के दशक में रूसी फौज- अफगानियों ने अपनी ज़मीन पर किसी बाहरी ताक़त को बर्दास्त नहीं किया है।
भ्रष्ट करजाई सरकार भी अमरीका सफ़लता की राह में रोड़ा साबित हो रही है। 2001 में करजाई को सत्तासीन करते वक्त अमरीका को जरा भी अंदाजा नहीं होगा कि, ये सरकार दुनिया की भ्रष्टतम सरकार होगी। दुनिया भर से मिलने वाले ग्रांट का तीन-चौथाई हिस्सा सराकरी मुलाजिमों के विदेशी बैंक एकाउंट में चली जाती है। ऐसे देश जहां एक आम आदमी 1 डॉलर प्रतिदिन से भी कम में गुजारा करता हो, यह स्थिति वाकई चिंताजनक और शर्मनाक है। न्यूजवीक में छपे एक लेख की मानें तो प्रेत्येक अफगानी नागरिक को हरेक साल 100 डॉलर ब्खशीश (रिश्वत) में सरकार या फिर आतंकियों को देना पड़ता है। इस देश की तल्ख़ हकीकत यह भी है कि नशीले पदार्थों की तस्करी यहां आय का सबसे बड़ा साधन है। इसके अलावा रोजगार का कोई साधन नहीं है। विदेशी सहायता से चल रहे विकास परियोजना, राजधानी काबुल और इसके आसपास के इलाकों तक ही सीमित है। और इसमें भी जमकर सरकारी लूट-खसोट होता है।
2001 में जब अमरीकी नेतृत्व में तालीबान को कुचला गया था, तो आम जनता के मन में एक आशा जगी थी। उन्हें लगा था कि अमरीका उनकी किस्मत बदल देगा। उन्हें अच्छी सड़कें मिलेंगी, बच्चे स्कूल जा सकेंगे, अर्थव्यवस्था पटरी पर लौट आएगी। लेकिन आठ साल बाद, उनके सपने दम तोड़ते हुए दिख रहे हैं। ग़रीब तो वो पहले भी थे, लेकिन उस गरीबी के साथ-साथ अब उन्हें अमरीकी बमों का शिकार भी बनना पड़ता है। (जारी....)
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