[राजीव कुमार, सुशांत कुमार झा]
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ज़िंदगी के दौर में या तो नंबर-1 होना चाहिए या नंबर-3....नंबर-2 वालों को जल्दी उसकी छवि से निजात नहीं मिलती या फिर अक्सर नंबर-1 उसे आगे नहीं बढ़ने देता। बीजेपी के नेता लालकृष्ण आडवाणी के सियासी जिंदगी का सबसे अहम पल नजदीक आ चुका है। 16 मई को मतगणना के बाद ये साफ हो जाएगा कि आडवाणी प्रधानमंत्री बन पाएंगे या फिर सियासत से सम्मानजनक रुप से ऱुख़्सत हो जाएंगे। इतना तय है कि संघ परिवार उन्हे दूसरा मौका नहीं देने जा रहा। अगर आकड़ों के खेल में बीजेपी नजदीक आ गई तो फिर आडवाणी, मुल्क के वजीर-ए-आज़म बन जाएंगे-लेकिन जो बात आडवाणी को सालती होगी वो ये कि जिस बीजेपी को उन्होने अपने ख़ून पसीने से सींचा था, जिसका एक बड़ा संगठन और जनाधार बनाया था-उसमें वाजपेयी तो आसानी से प्रधानमंत्री बन गए लेकिन आडवाणी को अपनी स्वीकार्यता बनाने में बहुत वक्त लग गया।
कहते हैं सियासत उम्मीदों का खेल है। इसमें अक्सर दो और दो, चार नहीं होते। तो फिर तमाम काबिलियत के बावजूद आडवाणी कहां चूक गए? उन्होने कौन सी ग़लती कर दी कि बाजी हर घड़ी वाजपेयी के हाथ रही? इसे समझने के लिए हमें दोनों के व्यक्तित्व की खूबियों और खामियों पर एक नज़र डालनी होगी।
आडवाणी और वाजपेयी दोनों ही संघ के राजनीतिक स्कूल के प्रशिक्षु थे। उम्र में आडवाणी से कुछेक साल बड़े वाजपेयी ने जहां अपने करियर की शुरुआत पांञ्चजन्य के संपादक के तौर पर शुरु की थी। आडवाणी उसमें फिल्मों की समीक्षा लिखा करते थे। पाकिस्तान से आए आडवाणी का परिवार जब गुजरात में बसा और उसके बाद वे काफी वक्त तक राजस्थान में जनसंघ का काम करते रहे। बाद में वे दिल्ली मे जनसंघ का काम देखने आ गए लेकिन उनका दर्जा बड़ा नहीं था। ये वो दौर था जब जनसंघ में बलराज मधोक और नानाजी देशमुख का जलवा था, और पंडित दीनदयाल उपाध्याय और श्यामाप्रसाद मुखर्जी दुनिया को अलविदा कह चुके थे।
आडवाणी और वाजपेयी में कई असमानताएं हैं। जहां वाजपेयी कल्पनाशील और बड़े भाषणबाज के रूप में मशहूर हुए, वहीं आडवाणी तार्किक, विश्लेषक और भाषण में कमजोर हैं। वाजपेयी, अंग्रेजी में तंग हैं जबकि आडवाणी की अंग्रेजी पर जबर्दस्त पकड़ है। वाजपेयी खानेपीने के शौकीन हैं जबकि आडवाणी खानपान में संयमित हैं। आडवाणी को किताबों, फिल्मों और थियेटर का शौक है जबकि वाजपेयी परिवार के साथ ज्यादा वक्त बिताते हैं। सबसे बड़ी बात ये कि वाजपेयी बड़े कूटनीतिज्ञ हैं जबकि आडवाणी इसमें थोड़े तंग हैं।
आडवाणी में राजनीतिक विश्लषण और संगठन बनाने की बेजोड़ काबिलियत है, लेकिन अटल बिहारी वाजपेयी सियासत के खेल में उनसे ज्यादा चतुर सुजान निकले। वाजपेयी ने भारतीय समाज के स्वरुप का गहरा अध्ययन कर लिया था, जिसके तहत कोई कट्टरपंथी और अतिवादी विचार रखनेवाला राजनीतिज्ञ सियासत में कामयाब नहीं हो सकता था। वाजपेयी ने बड़ी चतुराई से अपनी शख़्सियत का निर्माण किया, वे संघ के चहेते भी बने रहे और बाहर उदारवाद का चोला बदस्तूर पहने रखा।
दूसरी बात जो अहम थी वो ये कि वाजपेयी में भाषण देने का बेजोड़ गुण था, चुटीले शब्दों की उनके पास कोई कमी नहीं थी। उनको सुनने के लिए भीड़ उमड़ती थी। हमारी पीढ़ी के लोगों ने जिस वाजपेयी को देखा है, वो उम्र के अपने आखिरी पड़ाव पर थका हुआ सियासतदान था-वाकई वाजपेयी की ऊर्जा और जोश 90 से पहले या उससे भी पहले देखने लायक थी। हमारे देश में अमूमन कामयाब सियासतदान, अच्छे भाषणकर्ता हुए हैं, आडवाणी इस मामले में भी कमजोर साबित हुए। आडवाणी ने ऐसा खुद भी स्वीकार किया है।
जहां तक चुनावी राजनीति की बात है तो वाजपेयी इसमें बहुत पहले ही सक्रिय हो गए थे, शायद मुल्क का दूसरा आम चुनाव भी उन्होने लड़ा था और संसद में अपनी काबिलियत का लोहा बड़े नेताओं से मनवाया था। वाजपेयी की लोकप्रियता तब उफान पर आ गई जब पंडित नेहरु ने संसद में उनकी तारीफ में कशीदे पढ़े- शायद वाजपेयी ने चीन के मसले पर नेहरु की नीतियों का बड़े ही तार्किक ढ़ंग से और कड़ा विरोध किया था। इसके बाद वाजपेयी ने पीछे मुड़कर नहीं देखा। उन्होने अपने करिश्माई भाषण के बदौलत सारे देश में अपनी धाक जमा ली। वे अचानक कम उम्र में ही नेताओं के बड़े कल्ब में शामिल हो गए। लेकिन उस वक्त आडवाणी क्या कर रहे थे ? आडवाणी उस वक्त जनसंघ की दिल्ली शाखा के लिए बड़े तल्लीनता से काम कर रहे थे। यहां ये बात साफ हो जाती है कि सियासत ही नहीं दूसरे पेशे में भी विज्ञापन, जनसंपर्क और छवि निर्माण का कितना बड़ा हाथ है।
वाजपेयी का भाषण कला में दक्ष होना उनके हिंदी पर बेहतरीन अधिकार से भी संभव हुआ। आडवाणी ने काफी मेहनत करके हिंदी सीखी। लोग कहते हैं कि वाजपेयी अगर सियासत में नहीं होते तो एक अच्छे कवि जरुर हो सकते थे- अलबत्ता कईयों ने उनके हालिया कविताओं की बड़ी खिल्ली भी उड़ाई। बहरहाल, वाजपेयी अपनी भाषण कला और कलाबाजी के बदौलत आम जनता में एक बड़े नेता के रुप में मशहूर होते गए, लेकिन आडवाणी संघ के विचारों की कट्टरता से मुक्त नहीं हो पाए या कम से कम ऐसा दिखा नहीं पाए।
दूसरी बात जो अहम है वो ये कि आडवाणी की शख़्सियत में भले ही संघ की विचारधारा ज्यादा साफ दिखती हो, लेकिन कई लोगों की राय में वाजपेयी, संघ नेतृत्व के ज्यादा नजदीक थे। ऐसा दीनदयाल उपाध्याय और श्यामाप्रसाद मुखर्जी के ही जमाने से था। संघ नेतृत्व ने इसीलिए वाजपेयी के कामों में कभी ज्यादा दखलअंदाजी नहीं की जबकि आडवाणी को वो एक सीमा से ज्यादा छूट देने को तैयार नहीं है।
एक अहम बात ये भी है कि वाजपेयी ऊपर से ज्यादा उदार भले ही दिखते हों, लेकिन असलियत में वो एक एकाधिकारवादी नेता और अपने इर्द-गिर्द किसी को न पनपने देने वाले लोकतांत्रिक तानाशाह ज्यादा थे। वाजपेयी के राह में जिस किसी ने भी रोड़ा बनने की कोशिश की, उन्होने उसकी सियासी मौत का दस्तावेज लिख दिया। चाहे वो बलराज मधोक हों, या फिर नानाजी देशमुख या फिर हाल के दिनों में कल्याण सिंह, वाजपेयी ने किसी को भी नहीं छोड़ा।
आडवाणी, वाजपेयी से लाख दोस्ती और आत्मीयता के बावजूद उनके इस मानसिकता से सतर्क थे-और उन्होने कभी भी अपने आपको उनके प्रतिद्वंदी के तौर पर पेश भी नहीं किया। बल्कि राजनीतिक परिपक्वता दिखाते हुए उन्होने वाजपेयी की राह आसान बनाने के लिए रात-दिन एक कर दिया। साल 1991 में जब आडवाणी को हवाला कांड के बाद अपने पद से इस्तीफा देना प़ड़ा तो उन्होने बिना किसी हिचक के ये पद वाजपेयी को सौंप दिया। उसके बाद की कहानी तो सिर्फ़ इतिहास है।
कुछ लोग कहते हैं कि वाजपेयी इसलिए भी सबको स्वीकार्य हो गए कि समाजिक रुप से ब्राह्मण होने का उन्हे फ़ायदा मिला। हलांकि वाजपेयी (और शायद पंडित नेहरु भी) उन गिने चुने नेताओं में थे जिन्होने बड़े करीने से अपनी छवि को इन चीजों से मुक्त कर रखा था। राष्ट्रीय स्तर की राजनीति में इन बातों का ज्यादा महत्व भी नहीं है, लेकिन बारीक स्तर पर कई दफा कई चीजें बिना शोर शराबे के काम करती है। वाजपेयी ब्राह्मण परिवार से हैं जबकि आडवाणी सिंधी। मंडल के उस घनघोर युग में जब पूरे देश के खासकर उत्तर भारत के ब्राह्मण और सवर्ण अपने आपको हाशिए पर पा रहे थे, वाजपेयी के उदय ने एक बड़े वर्ग को बीजेपी की तरफ मोड़ दिया था, इसमें कोई शक नहीं।
इसके आलावा हिंदुस्तान की सवर्ण मीडिया ने भी वाजपेयी के प्रति जर्बदस्त दीवानगी दिखाई। वाजपेयी जितने उदारवादी थे नहीं, उससे ज्यादा उदारवादी उन्हे बताया जाता रहा। वाजपेयी ने कभी भी संघ से अपनी मोहब्बत को नहीं छुपाया, उन्होने अपने आप को आजीवन स्वयंसेवक बताया-संघ के अंदुरुनी हल्कों में ऊंचाई पाने के लिए उन्होने शादी तक नहीं की- वो वाजपेयी कैसे उदार हो गए? जिस वाजपेयी ने बाबरी ध्वंस के वक्त जमीन सपाट कर देने की बात की थी वो वाजपेयी उदार कैसे हो गए ? क्या कोई इस बात को भूल सकता है कि ये वाजपेयी की हुकूमत ही थी जिस वक्त गुजरात में दंगे हुए थे। वाजपेयी ने सिर्फ जुबानी जमाखर्च के आलावा क्या किया था?
साफ़ है वाजपेयी ने बड़े करीने से अपने इमेज और आभा मंडल बनाई, हिंदुस्तान की जनता जिसकी दीवानी होती गई। जनता में यहीं लोकप्रियता वाजपेयी को अपने गठबंधन के दलों में भी स्वीकार्य बना गई। आडवाणी यहीं चूक गए। आडवाणी ने अपनी सारी जिंदगी बीजेपी के ढ़ांचे को बनाने में खपा दिया, लेकिन वो अपनी इमेज का ढांचा नहीं बना पाए। इसमें कोई शक नहीं कि 90 के दशक में बीजेपी का आधार वोट आडवाणी के ही अयोध्या आंदोलन की उपज था जिसे वाजपेयी ने बाद में अपने इमेज के बल पर गठबंधन की शक्ल में ढ़ाल लिया। जबकि उस गठबंधन को बनाने में भी आडवाणी का योगदान था।
आडवाणी अभी तक सोमनाथ रथ यात्रा और बाबरी ध्वंस की छवि से अपने को मुक्त नहीं कर पाए हैं। इसकी कोशिश उन्होने बड़ी देर से शुरु की जब उन्होने जिन्ना की शान में कसीदे पढ़े। कुल मिलाकर आडवाणी ने बहुत देर से अपने को वाजपेयी के सांचे में ढ़ालने की कोशिश की है- जो काम वाजपेयी ने 50 साल पहले शुरु कर दिया था। 2009 का हिंदुस्तान काफी बदल चुका है-लेकिन वाजपेयी व्यक्तित्व के मामले में आमलोगों के दिलों -दिमाग इतनी बड़ी लकीर खींच गए हैं कि आडवाणी अब भी उनके सामने बौने लगते हैं। अब सवाल ये है कि क्या 16 मई को आनेवाले नतीजों में जनता उन्हे वाजपेयी-2 का दर्ज़ा देगी? चलिए देखते हैं...।
आडवाणी और वाजपेयी दोनों ही संघ के राजनीतिक स्कूल के प्रशिक्षु थे। उम्र में आडवाणी से कुछेक साल बड़े वाजपेयी ने जहां अपने करियर की शुरुआत पांञ्चजन्य के संपादक के तौर पर शुरु की थी। आडवाणी उसमें फिल्मों की समीक्षा लिखा करते थे। पाकिस्तान से आए आडवाणी का परिवार जब गुजरात में बसा और उसके बाद वे काफी वक्त तक राजस्थान में जनसंघ का काम करते रहे। बाद में वे दिल्ली मे जनसंघ का काम देखने आ गए लेकिन उनका दर्जा बड़ा नहीं था। ये वो दौर था जब जनसंघ में बलराज मधोक और नानाजी देशमुख का जलवा था, और पंडित दीनदयाल उपाध्याय और श्यामाप्रसाद मुखर्जी दुनिया को अलविदा कह चुके थे।
आडवाणी और वाजपेयी में कई असमानताएं हैं। जहां वाजपेयी कल्पनाशील और बड़े भाषणबाज के रूप में मशहूर हुए, वहीं आडवाणी तार्किक, विश्लेषक और भाषण में कमजोर हैं। वाजपेयी, अंग्रेजी में तंग हैं जबकि आडवाणी की अंग्रेजी पर जबर्दस्त पकड़ है। वाजपेयी खानेपीने के शौकीन हैं जबकि आडवाणी खानपान में संयमित हैं। आडवाणी को किताबों, फिल्मों और थियेटर का शौक है जबकि वाजपेयी परिवार के साथ ज्यादा वक्त बिताते हैं। सबसे बड़ी बात ये कि वाजपेयी बड़े कूटनीतिज्ञ हैं जबकि आडवाणी इसमें थोड़े तंग हैं।
आडवाणी में राजनीतिक विश्लषण और संगठन बनाने की बेजोड़ काबिलियत है, लेकिन अटल बिहारी वाजपेयी सियासत के खेल में उनसे ज्यादा चतुर सुजान निकले। वाजपेयी ने भारतीय समाज के स्वरुप का गहरा अध्ययन कर लिया था, जिसके तहत कोई कट्टरपंथी और अतिवादी विचार रखनेवाला राजनीतिज्ञ सियासत में कामयाब नहीं हो सकता था। वाजपेयी ने बड़ी चतुराई से अपनी शख़्सियत का निर्माण किया, वे संघ के चहेते भी बने रहे और बाहर उदारवाद का चोला बदस्तूर पहने रखा।
दूसरी बात जो अहम थी वो ये कि वाजपेयी में भाषण देने का बेजोड़ गुण था, चुटीले शब्दों की उनके पास कोई कमी नहीं थी। उनको सुनने के लिए भीड़ उमड़ती थी। हमारी पीढ़ी के लोगों ने जिस वाजपेयी को देखा है, वो उम्र के अपने आखिरी पड़ाव पर थका हुआ सियासतदान था-वाकई वाजपेयी की ऊर्जा और जोश 90 से पहले या उससे भी पहले देखने लायक थी। हमारे देश में अमूमन कामयाब सियासतदान, अच्छे भाषणकर्ता हुए हैं, आडवाणी इस मामले में भी कमजोर साबित हुए। आडवाणी ने ऐसा खुद भी स्वीकार किया है।
जहां तक चुनावी राजनीति की बात है तो वाजपेयी इसमें बहुत पहले ही सक्रिय हो गए थे, शायद मुल्क का दूसरा आम चुनाव भी उन्होने लड़ा था और संसद में अपनी काबिलियत का लोहा बड़े नेताओं से मनवाया था। वाजपेयी की लोकप्रियता तब उफान पर आ गई जब पंडित नेहरु ने संसद में उनकी तारीफ में कशीदे पढ़े- शायद वाजपेयी ने चीन के मसले पर नेहरु की नीतियों का बड़े ही तार्किक ढ़ंग से और कड़ा विरोध किया था। इसके बाद वाजपेयी ने पीछे मुड़कर नहीं देखा। उन्होने अपने करिश्माई भाषण के बदौलत सारे देश में अपनी धाक जमा ली। वे अचानक कम उम्र में ही नेताओं के बड़े कल्ब में शामिल हो गए। लेकिन उस वक्त आडवाणी क्या कर रहे थे ? आडवाणी उस वक्त जनसंघ की दिल्ली शाखा के लिए बड़े तल्लीनता से काम कर रहे थे। यहां ये बात साफ हो जाती है कि सियासत ही नहीं दूसरे पेशे में भी विज्ञापन, जनसंपर्क और छवि निर्माण का कितना बड़ा हाथ है।
वाजपेयी का भाषण कला में दक्ष होना उनके हिंदी पर बेहतरीन अधिकार से भी संभव हुआ। आडवाणी ने काफी मेहनत करके हिंदी सीखी। लोग कहते हैं कि वाजपेयी अगर सियासत में नहीं होते तो एक अच्छे कवि जरुर हो सकते थे- अलबत्ता कईयों ने उनके हालिया कविताओं की बड़ी खिल्ली भी उड़ाई। बहरहाल, वाजपेयी अपनी भाषण कला और कलाबाजी के बदौलत आम जनता में एक बड़े नेता के रुप में मशहूर होते गए, लेकिन आडवाणी संघ के विचारों की कट्टरता से मुक्त नहीं हो पाए या कम से कम ऐसा दिखा नहीं पाए।
दूसरी बात जो अहम है वो ये कि आडवाणी की शख़्सियत में भले ही संघ की विचारधारा ज्यादा साफ दिखती हो, लेकिन कई लोगों की राय में वाजपेयी, संघ नेतृत्व के ज्यादा नजदीक थे। ऐसा दीनदयाल उपाध्याय और श्यामाप्रसाद मुखर्जी के ही जमाने से था। संघ नेतृत्व ने इसीलिए वाजपेयी के कामों में कभी ज्यादा दखलअंदाजी नहीं की जबकि आडवाणी को वो एक सीमा से ज्यादा छूट देने को तैयार नहीं है।
एक अहम बात ये भी है कि वाजपेयी ऊपर से ज्यादा उदार भले ही दिखते हों, लेकिन असलियत में वो एक एकाधिकारवादी नेता और अपने इर्द-गिर्द किसी को न पनपने देने वाले लोकतांत्रिक तानाशाह ज्यादा थे। वाजपेयी के राह में जिस किसी ने भी रोड़ा बनने की कोशिश की, उन्होने उसकी सियासी मौत का दस्तावेज लिख दिया। चाहे वो बलराज मधोक हों, या फिर नानाजी देशमुख या फिर हाल के दिनों में कल्याण सिंह, वाजपेयी ने किसी को भी नहीं छोड़ा।
आडवाणी, वाजपेयी से लाख दोस्ती और आत्मीयता के बावजूद उनके इस मानसिकता से सतर्क थे-और उन्होने कभी भी अपने आपको उनके प्रतिद्वंदी के तौर पर पेश भी नहीं किया। बल्कि राजनीतिक परिपक्वता दिखाते हुए उन्होने वाजपेयी की राह आसान बनाने के लिए रात-दिन एक कर दिया। साल 1991 में जब आडवाणी को हवाला कांड के बाद अपने पद से इस्तीफा देना प़ड़ा तो उन्होने बिना किसी हिचक के ये पद वाजपेयी को सौंप दिया। उसके बाद की कहानी तो सिर्फ़ इतिहास है।
कुछ लोग कहते हैं कि वाजपेयी इसलिए भी सबको स्वीकार्य हो गए कि समाजिक रुप से ब्राह्मण होने का उन्हे फ़ायदा मिला। हलांकि वाजपेयी (और शायद पंडित नेहरु भी) उन गिने चुने नेताओं में थे जिन्होने बड़े करीने से अपनी छवि को इन चीजों से मुक्त कर रखा था। राष्ट्रीय स्तर की राजनीति में इन बातों का ज्यादा महत्व भी नहीं है, लेकिन बारीक स्तर पर कई दफा कई चीजें बिना शोर शराबे के काम करती है। वाजपेयी ब्राह्मण परिवार से हैं जबकि आडवाणी सिंधी। मंडल के उस घनघोर युग में जब पूरे देश के खासकर उत्तर भारत के ब्राह्मण और सवर्ण अपने आपको हाशिए पर पा रहे थे, वाजपेयी के उदय ने एक बड़े वर्ग को बीजेपी की तरफ मोड़ दिया था, इसमें कोई शक नहीं।
इसके आलावा हिंदुस्तान की सवर्ण मीडिया ने भी वाजपेयी के प्रति जर्बदस्त दीवानगी दिखाई। वाजपेयी जितने उदारवादी थे नहीं, उससे ज्यादा उदारवादी उन्हे बताया जाता रहा। वाजपेयी ने कभी भी संघ से अपनी मोहब्बत को नहीं छुपाया, उन्होने अपने आप को आजीवन स्वयंसेवक बताया-संघ के अंदुरुनी हल्कों में ऊंचाई पाने के लिए उन्होने शादी तक नहीं की- वो वाजपेयी कैसे उदार हो गए? जिस वाजपेयी ने बाबरी ध्वंस के वक्त जमीन सपाट कर देने की बात की थी वो वाजपेयी उदार कैसे हो गए ? क्या कोई इस बात को भूल सकता है कि ये वाजपेयी की हुकूमत ही थी जिस वक्त गुजरात में दंगे हुए थे। वाजपेयी ने सिर्फ जुबानी जमाखर्च के आलावा क्या किया था?
साफ़ है वाजपेयी ने बड़े करीने से अपने इमेज और आभा मंडल बनाई, हिंदुस्तान की जनता जिसकी दीवानी होती गई। जनता में यहीं लोकप्रियता वाजपेयी को अपने गठबंधन के दलों में भी स्वीकार्य बना गई। आडवाणी यहीं चूक गए। आडवाणी ने अपनी सारी जिंदगी बीजेपी के ढ़ांचे को बनाने में खपा दिया, लेकिन वो अपनी इमेज का ढांचा नहीं बना पाए। इसमें कोई शक नहीं कि 90 के दशक में बीजेपी का आधार वोट आडवाणी के ही अयोध्या आंदोलन की उपज था जिसे वाजपेयी ने बाद में अपने इमेज के बल पर गठबंधन की शक्ल में ढ़ाल लिया। जबकि उस गठबंधन को बनाने में भी आडवाणी का योगदान था।
आडवाणी अभी तक सोमनाथ रथ यात्रा और बाबरी ध्वंस की छवि से अपने को मुक्त नहीं कर पाए हैं। इसकी कोशिश उन्होने बड़ी देर से शुरु की जब उन्होने जिन्ना की शान में कसीदे पढ़े। कुल मिलाकर आडवाणी ने बहुत देर से अपने को वाजपेयी के सांचे में ढ़ालने की कोशिश की है- जो काम वाजपेयी ने 50 साल पहले शुरु कर दिया था। 2009 का हिंदुस्तान काफी बदल चुका है-लेकिन वाजपेयी व्यक्तित्व के मामले में आमलोगों के दिलों -दिमाग इतनी बड़ी लकीर खींच गए हैं कि आडवाणी अब भी उनके सामने बौने लगते हैं। अब सवाल ये है कि क्या 16 मई को आनेवाले नतीजों में जनता उन्हे वाजपेयी-2 का दर्ज़ा देगी? चलिए देखते हैं...।
6 comments:
You have sketched the profiles of Vajpayee & Advani closely and to perfection. But I think a consideration should also be given to the roles played by both in the process of BJP's birth to the Ram Temple issue to the Rath Yatra, etc.
The Vajpayee-Advani duo is quite similar to the Jinnah-Liqakat Duo. Surpisingly the story is the same. Jinnah had a Liyaqat by his side but when Liyaqat's time came there was no Liyaqat (Jinnah succumbed to TB). Same story is here. BJP's major plank was the rath yatra & to a large extent the Ram temple which was led by Advani (here i would add that it materialised into votes)he walked with Vajpayee through all odds and was by his side in all his (vajpayee) endeavours. And finally destiny smiled on BJP & Vajpayee became the PM. Now when Advani is perhaps facing his biggest challenge there is No Advani (Vajpayee) to help him. How strange are the designs of destiny.
हालांकि आपने बहुत ही बढ़िया विश्लेषण किया दोनों नेताओं का परंतु फिर भी आपकी एक बात से मैं सहमत नहीं हूं कि आडवाणी वाजपेयी क्यों नहीं बन पा रहे हैं? असल में आपने प्रधानमंत्री पद के सापेक्ष दोनों की तुलना की है क्योंकि आडवाणी पार्टी अध्यक्ष बन ही चुके हैं अब अटल सिर्फ एक मामले में आडवाणी से आगे दिखते हैं वो है प्रधानमंत्री पद। और जहां तक स्वीकार्य की बात है यदि लोकसभा में भाजपा अच्छा प्रदर्शन करती है तो क्यों नहीं सहयोगी दल उसका दामन थामेंगे नेता से कोई फर्क नहीं पड़ता इसके अलावा आडवाणी के पास अब मौका आया है क्योंकि अटल और आडवाणी ने अपनी पूरी उम्र विपक्ष में ही गुजार दी और भाजपा की सरका अभी बनी ही कितनी बार है। यदि भाजपा इतनी देर में सत्ता में नहीं आती तो अब तक दूसरी पंक्ति में मौजूद कोई और नेता भी प्रधानमंत्री पद का दावेदार होता। ये सिर्फ टाइमिंग का मामला है।
well ..राजीव आप अछी तरह से जानते है की मैं उन्ही बातो में interest लेती हु जो मुझे पसंद हो या मेरे काम की हो बाकी जगह मैं अपनी बस थोढे बहुत ज्ञान से काम चलाना चाहती हु ...हालाँकि अटल जी को मैं भी पसंद करती हु एक राजनीतिज्ञ और कवि के रूप I
अब जैसे की यहाँ इस blog में आपने राजनीती के गलियारों से हो कर बहुत ही अछी तरह से दोनों की छवि के बारे में लिखा है पर 100 बात की एक बात जो आपने खुद भी सबसे पहले लिखी है "वाजपेयी बड़े कूटनीतिज्ञ हैं जबकि आडवाणी इसमें थोड़े तंग हैं।"
यह एक बहुत गूढ़ बात है और राजनीती में तो बहुत ज्यादा ही महत्व रखती है .."राजनीती में वही सफल है जो दिमाग से काम ले और दिल से बेवकूफ बनाये"...
बाकी आप तो जानते ही है यह, की ब्रह्मिण कितनी तेज होते....
आडवानी जी क्यों नहीं यह सब समझ पाए, मैं नहीं जानती ...शायद ....उन्हे सारी बातें देर से समझ में आई या शायद अगर वो पहले ऐसा कुछ करने की कोशिस करते तो शायद आज वो भी कल्याण जी की तरह खो जाते ...
अब अगर इस बार आडवानी प्रधानमन्त्री बनते है तो उनके पास सुनहेरा मौका है ..
बहुत अच्छी तुलना और विश्लेषण। वाजपेयी पर आपकी बातों से सहमत हूं। वे चतुर-चालाक हैं। आपने दोनों के संदर्भ में बड़ी होशियारी से खाने-पीने और खान-पान शब्द का सावधानीपूर्वक चयन किया है। वाजपेयी ने राजनीतिक गलियारों में चर्चित होने के बावजूद इन शब्दों से जुड़े अपयश को प्रचार का हिस्सा नहीं बनने दिया। दुख यही कि अटलबिहारी वाजपेयी सिर्फ राजनीति ही करते रहे या .....। देश का उन्होंने कुछ नहीं किया।
आडवाणी का दुर्भाग्य कि वाजपेयी उनके समकालीन रहे।
जय हो,बहुत सही
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