Sunday, May 24, 2009

ग्रामीण मतदाता और कांग्रेस की जीत

गटबंधन के इस युग में कांग्रेस में नई जान फूंकने का श्रेय राहुल गांधी ले उड़े। राहुल का 'यौवन' निश्चित रूप से चुनाव में एक फैक्टर लगा। कांग्रेस का प्रदर्शन बेहतर नहीं होता, फिर भी राहुल के ख़िलाफ कोई आवाज़ नहीं उठती। राहुल...राहुल हैं। लेकिन कांग्रेस के शानदार प्रदर्शन के पीछे और भी कई गंभीर कारण हैं। आख़िर क्यों 2004 में बीजेपी की इंडिया शायनिंग फेल हो गई, जबकि 2009 की रूरल इंडिया शायनिंग सफ़ल रही...?

आज के हिंदुस्तान की करीब 57 फ़ीसदी जनसंख्या कृषि पर निर्भर है। यही किसान भारी संख्या में वोट डालने के लिए घरों से बाहर निकलते हैं, और 2004 में इन्हें इगनोर करना ही भाजपा को ले डूबी थी। गौरतलब है कि साल 2003 और 2004 कृषि के लिए बेहतर नहीं थे। तत्कालीन एनडीए सरकार ने गांवो को ध्यान में रखकर कोई ख़ास कार्यक्रम भी नहीं चलाया था। इसके उलट मतदान के प्रति उदासीन शहरी जनसंख्या को फील-गुड का एहसास कराया जाता रहा। 'इंडिया' और 'भारत', भाजपा के निगाहों में लगातार दूर होते गए। और उसी अनुपात में 'भारत', भाजपा से दूर होता चाला गया। 'इंडिया' वोट के दिन पार्क में 35 हज़ार रूपए वाला कुत्ता टहला रहा था। उफनती सेंसेक्स और बाजार की चकाचौंध में सरकार ‘वैशाखी गदहे’ की तरह सोचने लगी थी। 'भारत' को ये समझ नहीं आ रहा था कि विकास का मतलब विनिवेश कैसे हो सकता है!! और यही एनडीए को ले डूबी। गांव के लिए दिल्ली पहले ही दूर थी। इन दूरियों को पाटने के बजाय एनडीए ने और बढ़ा दिया। एनडीए बचपन से रटाई गई एक सबक भूल बैठी, 'भारत गांवों में बसता है'। वोट, ऐसे भी गिव एंड टेक का मामला होता है। ऐसे में आप फ्री में वोट पाने की उम्मीद कैसे कर सकते हैं।

यूपीए ने पहले साल से ही एनडीए की नितियों से अलग काम किया। इसकी सबसे बड़ी वजह लेफ्ट का दवाब था। यूपीए सरकार के नीति निर्माता, आर्थिक सुधारों के बाद देश में आए आर्थिक और infrastructural असमानता के प्रति ज्यादा संवेदनशील दिखे। सराकरी योजनाओं और निवेश में ग्रामिण भारत को पहला स्थान दिया गया। सरकार के न्यूनतम साझा कार्यक्रम में, कई वर्षों के बाद ग्रामीण भारत की समस्याओं को प्रधानता दी गई। अचानक ग्रामीण विकास मंत्रालय लाइम-लाइट में आ गया। ‘भारत निर्माण’ को सरकार का फ्लैगशिप कार्यक्रम बनाया गया। यहां भारत का आशय निश्चित रूप से गांवों में रहने वाला भारत ही है। भारत दैट इज इंडिया नहीं। भारत निर्माण के अंतर्गत गांवों के समग्र विकास के लिए कई कार्यक्रम चलाए गए। राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना , कृषि ऋण माफी योजना, सर्व शिक्षा अभियान, मिड-डे मील स्कीम, ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन, राजीव गांधी विद्युतीकरण मिशन जैसे कई अन्य छोटे-बड़े कार्यक्रमों का फोकल प्वाईंट गांवों का सर्वांगिण विकास ही रहा। पायलट प्रोजेक्ट के तहत 2006 में लागू किया गया राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (नरेगा) का विस्तार धीरे-धीरे 2008 तक देश के सभी 604 जिलों में कर दिया गया। 2008 के बजट में सरकार ने कृषि ऋण माफी की घोषणा की, जिससे लगभग 4 करोड़ छोटे और मझौले किसानों को सीधा फ़ायदा मिला। बाद में इसमें अपेक्षाकृत बड़े किसानों को भी शामिल कर लिया गया। कृषि सिंचाई के लिए 2008 के बजट में 20 हज़ार करोड़ का प्रवाधान रखा गया, जिसका लाभ सूखे क्षेत्र के किसानों को मिला। राष्ट्रीय कृषि बीमा योजना को और अधिक धन मुहैया कराया गया। साल दर साल भारत निर्माण के बजट को भी 20 से 30 प्रतिशत की दर से बढ़ाया गया। आदिवासियों का जंगल की जमीन पर उनके पारंपरिक अधिकार को मान्यता देने वाला ट्राइबल एक्ट भी इसी दिशा में एक कदम था। किसानों और ग्रामीण भारत को ध्यान में रखकर इस तरह के कई और भी योजनाएं बनाई गयीं। सरकारी अनाज के ख़रीद का न्युनतम समर्थन मुल्य भी समय-समय पर बढ़ाया गया।


नतीजा, हमारे सामने है। एक ओर जहां महानगरों में रहने वाला भारत आर्थिक मंदी के गिरफ्त में है, वहीं ग्रामीण भारत पर इस मंदी का असर नहीं है, बल्कि वो कुछ हद तक सरकारी निवेश के कारण बेहतर ही हुआ है। ऐसी स्थिति में जागरूक शहरी मतदाता भी कांग्रेस के पक्ष में लामबंद हो गए, क्योंकि उन्हें पता है कि मौजूदा आर्थिक मंदी अंतराष्ट्रीय है, और सरकार का इसमें कोई हाथ नहीं है।

ऐसा भी नहीं है कि यूपीए ने गांव को स्वर्ग बना दिया, किसानों की सारी समस्याएं खत्म हो गईं। ये भी सच है कि कई फ्लैगशिप कार्यक्रम को अपेक्षित सफलता नहीं मिली। लेकिन कुछ हद तक तो बदलाव हुआ है। सरकार कुछ करने को इच्छुक दिख रही थी। भले ही ये इच्छा लेफ्ट के दवाब में हो, लेकिन काम तो हुआ है। बदले में गांवों ने भी अपना फर्ज़ निभाया। उसने यूपीए को वोट देने का मन बना लिया। यहां गौर करने वाली बात यह है कि एनडीए ने भी ग्रामीण इलाकों में काफी निवेश किया था। लेकिन दोनों के तरीकों में एक बड़ा अंतर था। जहां एनडीए की परियोजनाओं में मुख्य रूप से बुनियादी ढांचों के विकास पर जोर था (उदाहरण के लिए, प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना), वहीं कांग्रेस या यूपीए के कार्यक्रम व्यक्ति को केंद्रित कर बनाए गए थे (नरेगा)। यहां Micro और Macro का विभेद था। दोनों का एप्रोच एक-दूसरे के उलट था। एनडीए ट्रिकल डाउन थ्योरी पर काम कर रही थी, वहीं यूपीए का ऐजेंडा डेवलपमेंट फ्रॉम बिलो था।

अगली किस्त - मुसलमान मतदाता और कांग्रेस

3 comments:

Asha Joglekar said...

सही विश्लेषण किया है आपने काँग्रेस की जीत का ।

sushant jha said...

अच्छा लेख...बधाई।

Anonymous said...

aapka blog padhna shram maangta hai,isliye nahi k rukha hota hai balki isliye kunki yadi 1 shabd chutne ka nuksaan uthane ka man nahi hota. sarsari nigah me jo main dekh paaya, aapki rahul se sambandhit baaton se behad ittifaq rakhta hoon. mujhe nahi lagta k cong apne kisi karyakram k karan jiti hai,bhagya ka yogdan mujhe jyada lagta hai