'होम वर्क नॉट डन', इस लाईन से कई साल पहले याराना था। पहली से सातवीं क्लास तक अगर किसी हफ़्ते यह लाईन कॉपी पर लिखा नहीं दिखता तो मन उदास हो जाता। निरपेक्ष भाव से कॉपी को निहारता। लाल स्याही से मिस के दस्तख़त। मेरा होम वर्क कॉपी भी गज़ब का था। शायद स्कूल का एकलौता कॉपी जिसे अपने उपर पेंसिल से ज्यादा लाल कलम से लिखे जाने का गौरव प्राप्त था।
स्कूल का सेशन अप्रेल में शुरु होता था। स्कुलिया साज़िश के तहत कॉपी-क़िताब स्कूल से ही बाज़ार से अधिक क़ीमत पर ख़रीदना पड़ता था। पता नहीं सिलेबस में रिकमेंडेड क़िताबें बाहरी दुकानों से कहाँ गुम हो जाती थीं। पिताजी भरसक प्रयास करते थे कि स्टेशनरी, क़िताब बैगेरह बाहर से डिसकाउंट में ख़रीद लिया जाए। लेकिन अपने अथक प्रयास के बावजूद भी साल-दर साल असफ़ल होते रहे।
हरेक विषय की दो कॉपियां होती थीं। एक क्लास वर्क और एक होम वर्क। इसके अलावा ड्रांईंग और टेस्ट की कॉपियां। क्लास वर्क वाली कॉपियां स्कूल में ही जमा करा लिए जाते थे। इसलिए उनमें तरह-तरह एक्सपेरिमेंट का स्कोप कम ही रहता था। हाँ, होम वर्क कॉपियां अपनी होती। नितांत पर्सनल। मल्टीपर्पस...मसलन, रॉकेट, जहाज, नाव, चक्कड़ घिन्नी, कुछ भी बना लीजिए। कोई रोकने वाला नहीं। इंटेलेक्चुअल प्रयोगों में कट्टम कुट्टी, कलम दाब प्रमुख होते। साल में कभी-कभार होम वर्क जैसे निकृष्ट कार्य भी ग़लती से निपटा लिए जाते।
स्कूल का सेशन अप्रेल में शुरु होता था। स्कुलिया साज़िश के तहत कॉपी-क़िताब स्कूल से ही बाज़ार से अधिक क़ीमत पर ख़रीदना पड़ता था। पता नहीं सिलेबस में रिकमेंडेड क़िताबें बाहरी दुकानों से कहाँ गुम हो जाती थीं। पिताजी भरसक प्रयास करते थे कि स्टेशनरी, क़िताब बैगेरह बाहर से डिसकाउंट में ख़रीद लिया जाए। लेकिन अपने अथक प्रयास के बावजूद भी साल-दर साल असफ़ल होते रहे।
हरेक विषय की दो कॉपियां होती थीं। एक क्लास वर्क और एक होम वर्क। इसके अलावा ड्रांईंग और टेस्ट की कॉपियां। क्लास वर्क वाली कॉपियां स्कूल में ही जमा करा लिए जाते थे। इसलिए उनमें तरह-तरह एक्सपेरिमेंट का स्कोप कम ही रहता था। हाँ, होम वर्क कॉपियां अपनी होती। नितांत पर्सनल। मल्टीपर्पस...मसलन, रॉकेट, जहाज, नाव, चक्कड़ घिन्नी, कुछ भी बना लीजिए। कोई रोकने वाला नहीं। इंटेलेक्चुअल प्रयोगों में कट्टम कुट्टी, कलम दाब प्रमुख होते। साल में कभी-कभार होम वर्क जैसे निकृष्ट कार्य भी ग़लती से निपटा लिए जाते।
कॉपी के पन्ने साल भर बिना शिकवा-शिकायत के हमारे मनोरंजन में लगे रहते। लगता था कि हाँ भाई कुछ काम हो रहा है। अप्रेल में ग्रेटर कैलाश के रईश सा दिखने वाली कॉपी दिसंबर आते-आते विदर्भ के किसान की तरह पिचक जाता था। कुछ-कुछ वैसे ही जैसे ओबीसिटी से पीड़ित महिला एनोरेक्सिया का शिकार हो जाती है। सेशन खत्म होने के बाद टीचर साथ छोड़ देते, लेकिन होम वर्क कॉपी नहीं। कॉपी के गत्ते (कूंट, पस्ता) का इस्तेमाल बैडमिंटन या फिर टेबल टेनिस के रैकेट रूप में कर लिया जाता था।
सच कहूं तो मुझे होम वर्क शब्द पर ही ऐतराज है। अरे भाई! होम में कैसा वर्क? वर्क तो आफ़िस, कल-कारखानों में होता है। घर तो आराम, मौज-मस्ती के लिए रिजर्व होनी चाहिए। स्कूल की किच-किच घर से दूर ही रक्खा जाए तो अच्छा। क्लास के सात-आठ घंटे कम होते हैं क्या? पिताजी तो दफ़्तर का काम घर पर नहीं करते। फिर बच्चों को टार्चर करने की यह कैसी ज़िद है।
और तो और गर्मी छुट्टी, दशहरा की छुट्टी में भी पूरी कॉपी भर होम वर्क लाद दिया जाता था। समर हॉली डे होम वर्क, डीपी हॉली डे होम वर्क। भैया अपनी तो स्पष्ट सोच थी। कोई कंफ्यूजन नहीं। स्कूल डे में होम वर्क नहीं किया तो हॉली डे में कौन माई का लाल करवा लेगा। और होम वर्क करता तो होलिका दहन के लिए लकड़ी कौन काटता? गर्मी छुट्टीयों मे आम कौन चुराता? और रावण का पुतला दहन करने मिस आतीं क्या? कह सकते हैं सामाजिक जिम्मेवारियों के बोझ तले बचपन में ही दब गया था।
हॉली डे होम वर्क न करने की सज़ा से पिताजी का गाँव प्रेम बचा लेता था। गाँव पिताजी को, और नानी गाँव माँ को यूँ जकड़ता, जैसे मछुआरे का जाल मछलियों को। स्कूल खुलने के पाँच-छ: दिन बाद ही पटना वापसी होती थी। तब तक स्कूल में मामला ठंडा हो जाता। कुछ दिनों की देरी का एक फ़ायदा यह भी होता था कि सहपाठियों के तरह मिस से झूठ नहीं बोलना पड़ता। असल में छुट्टीयों के बाद अक्सर मिस पूछती थीं कि -"यस, टेल मी वन बाई वन, हाउ यू पीपल स्पेंट योर हॉली डेज़?" अजय, यू फर्सट - "मिस आई वेंट टू श्रीनगर फार समर हॉली डेज़।" तो कोई कहता कि - " आई वेंट टू कुल्लू फॉर दशहरा"। अरे उल्लू , पता है कुल्लू है भी कहाँ? एक से एक प्रतिभाशाली खुंखार गप्पी। श्रीनगर से कन्या कुमारी, जिसके मन में जो आता बता देता।
आप को नहीं लगता है कि होम वर्क हमारे क्रिएटिव अर्ज़ को ख़त्म कर देता है? आप क्या सोचते हैं?
5 comments:
राजीव जी, आप की ब्लाग पोस्टिंग खंडित नज़र आ रही है, कृपया इस का कुछ करें क्योंकि मैं इसे पढ़ने के लिए बहुत उतावला हूं।
bahut badhiya likha hai..
maja aa gaya..
apanaa bachapan yaad aa gaya.. :)
lage rahiye..
kuchh collage kaa bhi likhen..
राजीव, तुमने तो स्कूल के दिन याद करा दिए...हां, यहां मामला ज़रूर उल्टा था...घर पर मम्मी कभी भी सरप्राइज़ बैग चैक करने के लिए बिठा लेतीं थीं। फिर तो एक एक कॉपी से लेकर बैग के सभी कोनों की सफाई होती थी...कॉपियों से पन्ने फाड़ने में मैं और भाई दोनों ही एक्सपर्ट थे...बस जमकर क्लास लगती थी दोनों की...
हां होमवर्क के मामले में कभी ज्यादा गड़बड़ नहीं हुई।
गज़ब का विश्लेषण किया है आपने। मुझे भी लगता है कि होम वर्क पर व्यापक बहस होनी चाहिए।
नहीं यार होम वर्क हमारे लिए थोड़े ही ना होते थे, वो तो हमारे बड़े भाई और चाचाओं की प्रतिभा आंकने का मौका थे।
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