वर्षों बाद कल रात तुम सपने में आए। क्युं....याद दिलाने के लिए न। कि आज तुम आठ बरस के हो गए होते। तुम्हें तो याद भी नहीं होगा। इसी तरह की ढ़लती हुई सर्दियों में ही तो तुम हमारे घर आए थे। फरवरी 2000 का मौसम खुशगवार हो चला था। सर्दियां दम तोड़ रही थीं। माँ के लगाए हुए गुलाब, बेले और गेंदा खिलकर पूरे कैंपस को नई-नवेली दुल्हन की शक्ल दे रहे थे। गेट पर सूख चुके गुलमोहर में भी उस साल किसी ने जान डाल दी थी। शायद तुम्हारे स्वागत के लिए ही वो फिर से जिंदा हुआ था। दिन निकलते ही लाल, पीले, गुलाबी फूलों की कलियों पर न जाने कहाँ से बेशुमार रंगबिरंगी तितलियां आ जाती। और फिर शाम होने से पहले कहीं घुप अंधेरे में गुम हो जातीं। आज तक नहीं जान पाया कि ये जाती कहाँ हैं।
ऐसे ही एक अच्छे से मौसम में तुम हमारे घर और जिंदगी में आए। परीक्षा के दिन क़रीब थे। सुनहरी धूप वाले ऐसे मौसम में गार्डन में घूम-घूम कर नोट्स रट रहा था। लॉ ऑफ डिमांड। अपने माईक्रो इकनॉमिक्स में कुछ ऐसा खोया था कि पता ही नहीं चला कब कुणाल तुम्हें अपने स्कूटर के बास्केट में बिठाकर हमारे घर ले आया। तुम उस वक्त पाँच दिन के थे। तुम्हारी बिलबिलाई हुई आँखें माँ से बिछड़ने का दर्द साफ़ बयां कर रही थी। सुर्ख़ लाल टॉवेल में सिकुड़ा हुआ सफ़ेद रंग तुम्हारी ख़ूबसूरती में चार चाँद लगा रहा था। मेरे गोद में तुम क्यों नहीं आ रहे थे? माँ कि याद आ रही थी न! जानता था पगले...। पर मैं भी क्या करता। तुम्हें पाने की धुन ही कुछ ऐसी थी की तुम्हें अपने माँ से जुदा होना पड़ा। मानवीय इच्छाओं ने न जाने कितनों को अपनों से जुदा किया है।
मुझे भी दुख: हुआ था। माँ-बाबूजी तुम्हें देखकर बहुत खुश नहीं थे। तुम एक ब्राह्मण घर में आए थे। हाँ, संजीव और सुमित की तो बिन मांगी मुराद पूरी हो गई थी। लेकिन याद करो, हम तीनों भाईयों ने तुम्हारी कितनी पैरवी की थी। है न॥! तुम भी गज़ब के थे। दो दिन में ही तुमने माँ-बाबूजी का दिल जीत लिया। तुम पामेलियन कुत्ते से रिशू हो गए। रिशू मिश्रा - यही तुम्हारा नाम था। पैदा तो हम सब बिना नाम के ही होते हैं न। जीने के लिए नाम जरूरी होता है।
पता ही नहीं चला कि कब तुम्हारा नाम हम लोगों के लिए एक ख़ूबसूरत लफ़्ज़ बन गया। आठ-दस दिनों में ही तुमने अपनों और परायों का भेद भी जान लिया था। तुम पक्के वैष्णव थे। पता नहीं क्यों मीट-मछली तुम्हें पसंद नहीं था। अज़ीब लगता था और अच्छा भी। अप्रैल में परीक्षाएं शुरू हो गई थीं। जिस दिन भी तुम्हें देखकर गया पेपर अच्छा हुआ। और इकनॉमिक्स में तो टॉपर था। सौ में से पच्चासी अंक आए थे। इस बीच घर में नई टेलीविजन और गाड़ी आ गई। उसका क्रेडिट माँ ने तुम्हारे पैरों को ही दिया था। घर में तुम्हारे आने से सबकुछ तो अच्छा होने लगा था। समस्याएं तुम से घबरा गई थीं। सरस्वती और लक्ष्मी दोनों तुम्हारे साथ ही तो आई थीं।
पड़ोस के वर्मा अंकल और फूल बेचने वाले तुम से बेतरह नफ़रत करते थे। उस बसंत में तुमने गार्डन को फूल चोरों से बचा लिया था। नन्हें-नन्हें सुर्ख़ फूलों, तितलियों और मधुमक्खीयों नें भी तुम्हारा शुक्रिया अदा किया होगा। आवारा कुत्ते भी तुम्हारी क़िस्मत से जलते थे। पिताजी तो तुम्हें खिलाए बिना ऑफ़िस नहीं जाते। सुबह-सुबह तुम हम तीनों भाईयों को कितनी श़रारत से जगाते। हमारे बहानों से तुम अंजान नहीं थे। बिस्तर पर तुम तब तक उधम मचाते जब तक हम सचमुच उठ नहीं जाते थे।
फिर गर्मियों में गाँव से दादी आ गई। वे पंद्रह दिन तुम्हारे लिए बड़ी उदासी और क़यामत के थे। ओह...इंसानी फ़ितरत। हम भी क्या करते। दादी से सब डरते थे। माँ, बाबूजी, मैं....सब। याद है गर्मी की उस सुलगती दुपहरी में तुम्हें तवे सी जलती हुई छत पर छोड़ दिया गया था। सच कहना...उस दिन ही तुमने हमें हमेशा के लिए छोड़ जाने का मन बना लिया था न? दो दिन बाद हम सब तुम्हें छोड़ गाँव चले गए। अभी भी आँखों के सामने उमड़-घुमर कर वो दिन आ जाता है। गाड़ी के पीछे-पीछे दौड़ते हुए तुम मेन गेट तक आए थे। बेटा हम तुम्हे गाँव ले जाते। लेकिन गाँव के आवारा कुत्ते वहाँ तुम्हें नोच खाते। कौन तुम्हारी देखभाल करता।
हफ़्ते भर बाद गाँव से लौटने के बाद तुम हमें बीमार मिले। तुम्हारी काया जर्ज़र हो चुकी थी। नौकरों ने बताया कि तुमने खाना-पीना छोड़ रखा है। कार से माँ के उतरते ही तुम कितनी फुर्ती से दौर कर आए। अपने मुंह से माँ का आँचल भी पकड़ा। खींच कर अपनी नाराज़गी भी दर्ज़ करवाई। फिर भागकर अंदर चले गए। बुलाने पर भी नहीं आए। तब माँ-पिताजी ने गोद में भरकर तुम्हें कितना दुलारा था। तुम्हारी बोली तो हम नहीं समझ पाए लेकिन तुम्हारी भावनाओं को समझने में हम से कोई भूल नहीं हुई थी। तुम मान भी गए थे। लेकिन इस बीच बिमारी ने तुम्हें बुरी तरह से जकड़ लिया था। अगले ही दिन तुम्हें डाक्टर के पास ले गए। तुम्हे कनाईन डिस्टेंपर हो गया था। अगले पाँच दिनों तक तुम्हें रोज़ डाक्टर के पास ले जाते रहे।
फिर उन्नीस जुलाई की रात आई। काली तूफ़ानी रात। रात के एक बजे भी गर्म हवा का झक्कड़ चल रहा था। नीम की शाखें एक दूसरे से टकराकर साँय-साँय की आवाज़ के साथ पत्तियों बरसा रही थी। आँधी में बिजली भी गुम हो गई थी। तुम शाम से ही अज़ीब-अज़ीब आवाज़ से अपने अंदर चल रहे हलचलों को बयां कर रहे थे। याद करो, मैंने उस भयानक रात को तुम्हें अपने सीने पर लिटा रखा था। आँधी उस अंतिम वक्त में भी तुम्हें डर का एहसास करा रही थी। तुम्हारी बेचैनी ने हम सब को बेचैन कर रखा था। सब जगे थे। रह-रह कर मैं तुम्हारी धड़कनों की जाँच करता रहा। रात के ठीक एक बजकर उन्नीस मिनट पर तुम्हारे मुंह से एक अज़ीब सी आवाज़ निकली। दर्दनाक आवाज़। मैंने पहले कभी नहीं सुनी थी। शायद मौत की आवाज ऐसी ही होती है। तुम हमें छोड़ इस दुनिया से रुख़सत हो गए थे। सच मानो सारे देवी-देवताओं, पीरों, फ़कीरों से तुम्हारी जान की दुआ मांगी। लेकिन....लेकिन उस रात कोई चमत्कार नहीं हुआ। मैं बहुत रोया, सब रोए।
अगली सुबह शांत थी। बिल्कुल सतब्ध। हम तीनों भाईयों ने तुम्हारे नश्वर हो चुके शरीर को नाव से ले जाकर गंगा मैया को सौप दिया था। सौप दिया, कि अलविदा....जाओ लेकिन फिर से अपने घर में ही आना। माँ इंतज़ार कर रही है। वक्त की मौज़ पर बहता हुआ आठ बरस काट दिए। लेकिन तुम हो...यादों में ही सही। तुम हो...यहीं कहीं पर।
ऐसे ही एक अच्छे से मौसम में तुम हमारे घर और जिंदगी में आए। परीक्षा के दिन क़रीब थे। सुनहरी धूप वाले ऐसे मौसम में गार्डन में घूम-घूम कर नोट्स रट रहा था। लॉ ऑफ डिमांड। अपने माईक्रो इकनॉमिक्स में कुछ ऐसा खोया था कि पता ही नहीं चला कब कुणाल तुम्हें अपने स्कूटर के बास्केट में बिठाकर हमारे घर ले आया। तुम उस वक्त पाँच दिन के थे। तुम्हारी बिलबिलाई हुई आँखें माँ से बिछड़ने का दर्द साफ़ बयां कर रही थी। सुर्ख़ लाल टॉवेल में सिकुड़ा हुआ सफ़ेद रंग तुम्हारी ख़ूबसूरती में चार चाँद लगा रहा था। मेरे गोद में तुम क्यों नहीं आ रहे थे? माँ कि याद आ रही थी न! जानता था पगले...। पर मैं भी क्या करता। तुम्हें पाने की धुन ही कुछ ऐसी थी की तुम्हें अपने माँ से जुदा होना पड़ा। मानवीय इच्छाओं ने न जाने कितनों को अपनों से जुदा किया है।
मुझे भी दुख: हुआ था। माँ-बाबूजी तुम्हें देखकर बहुत खुश नहीं थे। तुम एक ब्राह्मण घर में आए थे। हाँ, संजीव और सुमित की तो बिन मांगी मुराद पूरी हो गई थी। लेकिन याद करो, हम तीनों भाईयों ने तुम्हारी कितनी पैरवी की थी। है न॥! तुम भी गज़ब के थे। दो दिन में ही तुमने माँ-बाबूजी का दिल जीत लिया। तुम पामेलियन कुत्ते से रिशू हो गए। रिशू मिश्रा - यही तुम्हारा नाम था। पैदा तो हम सब बिना नाम के ही होते हैं न। जीने के लिए नाम जरूरी होता है।
पता ही नहीं चला कि कब तुम्हारा नाम हम लोगों के लिए एक ख़ूबसूरत लफ़्ज़ बन गया। आठ-दस दिनों में ही तुमने अपनों और परायों का भेद भी जान लिया था। तुम पक्के वैष्णव थे। पता नहीं क्यों मीट-मछली तुम्हें पसंद नहीं था। अज़ीब लगता था और अच्छा भी। अप्रैल में परीक्षाएं शुरू हो गई थीं। जिस दिन भी तुम्हें देखकर गया पेपर अच्छा हुआ। और इकनॉमिक्स में तो टॉपर था। सौ में से पच्चासी अंक आए थे। इस बीच घर में नई टेलीविजन और गाड़ी आ गई। उसका क्रेडिट माँ ने तुम्हारे पैरों को ही दिया था। घर में तुम्हारे आने से सबकुछ तो अच्छा होने लगा था। समस्याएं तुम से घबरा गई थीं। सरस्वती और लक्ष्मी दोनों तुम्हारे साथ ही तो आई थीं।
पड़ोस के वर्मा अंकल और फूल बेचने वाले तुम से बेतरह नफ़रत करते थे। उस बसंत में तुमने गार्डन को फूल चोरों से बचा लिया था। नन्हें-नन्हें सुर्ख़ फूलों, तितलियों और मधुमक्खीयों नें भी तुम्हारा शुक्रिया अदा किया होगा। आवारा कुत्ते भी तुम्हारी क़िस्मत से जलते थे। पिताजी तो तुम्हें खिलाए बिना ऑफ़िस नहीं जाते। सुबह-सुबह तुम हम तीनों भाईयों को कितनी श़रारत से जगाते। हमारे बहानों से तुम अंजान नहीं थे। बिस्तर पर तुम तब तक उधम मचाते जब तक हम सचमुच उठ नहीं जाते थे।
फिर गर्मियों में गाँव से दादी आ गई। वे पंद्रह दिन तुम्हारे लिए बड़ी उदासी और क़यामत के थे। ओह...इंसानी फ़ितरत। हम भी क्या करते। दादी से सब डरते थे। माँ, बाबूजी, मैं....सब। याद है गर्मी की उस सुलगती दुपहरी में तुम्हें तवे सी जलती हुई छत पर छोड़ दिया गया था। सच कहना...उस दिन ही तुमने हमें हमेशा के लिए छोड़ जाने का मन बना लिया था न? दो दिन बाद हम सब तुम्हें छोड़ गाँव चले गए। अभी भी आँखों के सामने उमड़-घुमर कर वो दिन आ जाता है। गाड़ी के पीछे-पीछे दौड़ते हुए तुम मेन गेट तक आए थे। बेटा हम तुम्हे गाँव ले जाते। लेकिन गाँव के आवारा कुत्ते वहाँ तुम्हें नोच खाते। कौन तुम्हारी देखभाल करता।
हफ़्ते भर बाद गाँव से लौटने के बाद तुम हमें बीमार मिले। तुम्हारी काया जर्ज़र हो चुकी थी। नौकरों ने बताया कि तुमने खाना-पीना छोड़ रखा है। कार से माँ के उतरते ही तुम कितनी फुर्ती से दौर कर आए। अपने मुंह से माँ का आँचल भी पकड़ा। खींच कर अपनी नाराज़गी भी दर्ज़ करवाई। फिर भागकर अंदर चले गए। बुलाने पर भी नहीं आए। तब माँ-पिताजी ने गोद में भरकर तुम्हें कितना दुलारा था। तुम्हारी बोली तो हम नहीं समझ पाए लेकिन तुम्हारी भावनाओं को समझने में हम से कोई भूल नहीं हुई थी। तुम मान भी गए थे। लेकिन इस बीच बिमारी ने तुम्हें बुरी तरह से जकड़ लिया था। अगले ही दिन तुम्हें डाक्टर के पास ले गए। तुम्हे कनाईन डिस्टेंपर हो गया था। अगले पाँच दिनों तक तुम्हें रोज़ डाक्टर के पास ले जाते रहे।
फिर उन्नीस जुलाई की रात आई। काली तूफ़ानी रात। रात के एक बजे भी गर्म हवा का झक्कड़ चल रहा था। नीम की शाखें एक दूसरे से टकराकर साँय-साँय की आवाज़ के साथ पत्तियों बरसा रही थी। आँधी में बिजली भी गुम हो गई थी। तुम शाम से ही अज़ीब-अज़ीब आवाज़ से अपने अंदर चल रहे हलचलों को बयां कर रहे थे। याद करो, मैंने उस भयानक रात को तुम्हें अपने सीने पर लिटा रखा था। आँधी उस अंतिम वक्त में भी तुम्हें डर का एहसास करा रही थी। तुम्हारी बेचैनी ने हम सब को बेचैन कर रखा था। सब जगे थे। रह-रह कर मैं तुम्हारी धड़कनों की जाँच करता रहा। रात के ठीक एक बजकर उन्नीस मिनट पर तुम्हारे मुंह से एक अज़ीब सी आवाज़ निकली। दर्दनाक आवाज़। मैंने पहले कभी नहीं सुनी थी। शायद मौत की आवाज ऐसी ही होती है। तुम हमें छोड़ इस दुनिया से रुख़सत हो गए थे। सच मानो सारे देवी-देवताओं, पीरों, फ़कीरों से तुम्हारी जान की दुआ मांगी। लेकिन....लेकिन उस रात कोई चमत्कार नहीं हुआ। मैं बहुत रोया, सब रोए।
अगली सुबह शांत थी। बिल्कुल सतब्ध। हम तीनों भाईयों ने तुम्हारे नश्वर हो चुके शरीर को नाव से ले जाकर गंगा मैया को सौप दिया था। सौप दिया, कि अलविदा....जाओ लेकिन फिर से अपने घर में ही आना। माँ इंतज़ार कर रही है। वक्त की मौज़ पर बहता हुआ आठ बरस काट दिए। लेकिन तुम हो...यादों में ही सही। तुम हो...यहीं कहीं पर।
19 comments:
ओह....बड़ी मार्मिक कहानी है। "मानवीय इच्छाओं ने न जाने कितनों को अपनों से जुदा किया है"। गहरी फिलास्फी है। लोग समझें तब तो। बेहतरीन ढ़ग से तथ्यों को सामने रखा है आपने।
एक कुत्ते का छोटा और बढ़िया कहानी शायद पहली बार पढ़ने को मिला है। लाज़वाब है आपकी किस्सागोई। लिखते रहें...समय दर समय आता रहूंगा।
मार्मिक चित्रण पर हकीकत से जुड़ा हुआ।
ankhe bhar aai.n sach....!
बहुत बढ़िया कहानी.
बहुत ही मार्मिक शब्द चित्रण है.अनायास ही पढ़ते पढ़्ते भर आई.
सुबह-सुबह ही आँखें भर आई। पिछले जनम में जरूर अच्छे कर्म किए होंगे रिशू ने। तभी तो ईश्वर ने उसे आपके घर भेजा। वो फिर आपके यहाँ ही आएगा। किसी न किसी रूप में।
बेहतरीन चित्रण, मैं पेटा से जुड़ा हूं। हमारे अभियान में आप भी अपनी भूमिका नभा सकते हैं। मर्मस्पर्शी....।
मैंने इस दर्द को महसूस किया है। वाफादारी कोई इन से सीखे।
तुम्हे ये पोस्ट नहीं लिखना चाहिए था....तुम्हे दूसरों को रुलाने का कोई हक नहीं है...
bahut hi marmik chitran kiya hai.sayad hi is se accha ho sakta tha.sayad Mahadevi verma se bhi acha.sach me ankhen bhar aaye.fantabulous effort.keep it up.....
आपको रुलाना अच्छा लगता है क्या? आपके अक्षर सजीव हो गए हैं। यहीं सबकुछ सामने तो हो रहा है। "तुम्हारी बोली तो हम नहीं समझ पाए लेकिन तुम्हारी भावनाओं को समझने में हम से कोई भूल नहीं हुई थी।" सच है आपने कोई भूल नहीं की। माँ के तरह पाला था आपने इसलिए इतना दर्द हो रहा है। मैं समझ सकती हूं। आपके यादों में तो वो आपके पास ही है। यहीं कहीं पर।
क्या बाबा भैया। बवाल लिखे हैं। ये उसी पिल्ले की कहानी है न जिसे लेकर आप पटना में गाड़ी पर राउंड मारते रहते थे। उजले रंग का। बड़ा भावुक व्यक्तित्व है आपका। दिखते तो ऐसे नहीं हैं। मुझे रोहित भैया ने आपके ब्लॉग का लिंक भेजा था। आपका ई-मेल उनके पास और मेरे पास भी नहीं है। रोहित भैया जर्मनी में ह्युमन जिनोम पर काम कर रहे हैं। मैने सिंबायसिस से एमबीए कर लिया और अभी मुंबई में बैंक ऑफ अमरीका के साथ काम कर रहा हूं। अपना फ़ोन नंबर और ई-मेल भेज दें। मेरा मेल आई डी है - tulip.abhi123@gmail.com. अतुल भी यहीं है टाटा इंस्टीच्यूट ऑफ सोसल सांईसेज में है। कुणाल भैया कहाँ हैं। पटना वाले विकास भैया आईआईटी होस्टल में ही रहते हैं। जवान पीएचडी करने में लगे है। संजय बाबा अभी भी याहू बंगलोर में ही हैं। वो तो आपसे बात भी करते होंगे। कनवरटर से हिन्दी लिख रहा हूं। गलती हो तो माफ कीजिएगा। दिल्ली आते हैं तो पार्टी होगा। मुखर्जी नगर और हिंदू कॉलेज के गुड डेज आज भी याद आता है। वेलेंटाईन डे पर कुणाल भैया वाला कहानी आज भी याद है। वही कार्ड और फूल वाला। लड़की ने कैसे उन्हें फूल बनाया था। अब आपका भाई भी बढ़िया कमाने लगा है। कोई टेंशन नहीं। आप 460 में सबसे अच्छे थे। कोई गुंडा....नहीं हिलाएगा। आपका मुंगेरी।
अरे तुम कहाँ से यहाँ आ गए। रोहित भैया (कैप्टन डागा) को मेरा प्रणाम कहना। बाकी बात मेल पर भेज रहा हूं। मेरा नया नंबर है - 09999053653 और ई-मेल आई डी है - rajiv.journalist@gmail.com. तुम भी हिंदिया गए। अपनी भाषा है न। चलो अपना मेल चेक करो। वहाँ लंबा भाषण मिलेगा। हाँ यह उसी की कहनी है जिसे हम तीनों भाई लटकाए फिरते थे।
A very well written story with a very good title. The foundation of love lies in faith. Animals are more faithful than the human beings these days.
Though its sounds strange but its the reality.
ब्लॉग लिखने में तो तुम रवीश के भी गुरु हो गए हो। लोग अच्छे-भले टेंशन में जी रहे थे पर तुमने रिशू के बहाने लोगों को इमोशनल कर दिया,वैसे रिशू बड़ा प्यारा था। उसके बारे में पढ़कर मन गीला सा हो गया है।
भगवान करे वो अगली बार तुम्हारे घर नहीं किसी ऐसे के घर जन्म ले जो उसकी सही मायने में केयर कर सके। क्योंकि तुम्हारी दादी को पसंद नहीं था तो तुमने उसे जलती छत छत पर छोड़ दिया, तुम्हारी दादी को पसंद नहीं था तो तुम सब उसे छोड़कर गांव चले गए।
अरे, तुम उसे उसकी मां से दूर लाए थे। तुम्हें हर हाल में उसके साथ रहना चाहिए था। जलती छत पर छोड़े जाने का विरोध करते या उतनी देर उसे गोद में लेकर खुद छत पर खड़े रहते। जब सब उसे छोड़कर गांव जा रहे थे तो तुम गांव नहीं जाते उसी के साथ रहते। दादी नाराज होती तो होती, पापा-मम्मी नाराज होते.....क्या फर्क पड़ता
एक बेजुबान जानवर जिसको तुमने उसकी मां से दूर किया, उसे कैदी बनाया, उस मासूम को अपने घरवालों की नारजगी के डर से जलती छत पर छोड़ दिया। तुमने सही लिखा है "वो तुम्हे समझ गया था इसलिए उसी दिन उसने तुम्हें छोड़कर जाने का मन बना लिया था"
तुमने उसे कितना भी प्यार किया पर आखिर समझा तो पिल्ला ही ना ?क्योंकि अगर वो घर का सदस्य होता तो भले ही दादी को पसंद ना आता पर उसे ऐसे छत पर नहीं छोड़ते ?ऐसे उसे मरने के लिए अकेला छोड़ कर गांव न जाते.............
Sachmuch, Rajiv purani yaddon se mujhe ek baar phir se rubaru kraya hai... har baar ki tarah.
aaj yaadon ke saath jeena hai , phir ek baar, meri jindagi mein bhi kaee baar fark pada hai her ek judaai ka.
Jagat.
राजीव भाई, आपने दिल जीत लिया। काफी अच्छे ढ़ंग से आपने किस्से को बुना। और आलोचनाओं का जवाब भी इतनी शालीनता से। वाह भाई वाह। ईमानदार स्वीकारोक्ति। हिम्मत चाहिए अपनी गलती को मानने के लिए। अब इसमें कोई शक नहीं कि आप उसे दिलोजान से चाहते थे।
पंकज सिंह
National Aerospace Laboratories, Bangalore
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