लोकलुभावन बजट, यानि गई सरकार। यह मैं नहीं कह रहा। इस बात की गवाही इतिहास दे रहा है। 1971 से बारबार-लगातार। सिर्फ़ 1971 में अपने लॉलीपॉप बजट पर सवार हो इंदिरा गाँधी ने चुनावी समर में फ़तह हासिल किया था। अब सवाल उठता है कि साल दर साल चुनाव पुर्व बजट में सरकारें यही ग़लती क्यों दुहराती रही है।
1977 के आम चुनाव भारतीय लोकतंत्र के लिए मील का पत्थर था। दो साल के इमरजेंसी के बाद यह पहला चुनाव था। जयप्रकाश के संपुर्ण क्रांति के लहर ने कांग्रेस का सफाया कर दिया। कांग्रेस 545 मे से सिर्फ़ 154 सीटें जीत पाई थी।
अगला आम चुनाव 1980 में हुआ। उससे एक साल पहले चरण सिंह सरकार नें काफ़ी लोकप्रिय बजट पेश किया था। नतीजा यह हुआ कि चरण सिंह की पार्टी बुरी तरह से पराजित हुई। आपनी सीट भी चरण सिंह बड़ी मुश्किल से बचा सके थे। जनता पार्टी को 545 में से सिर्फ़ 31 सीटें ही मिल पाई थी।
अगला चुनावी साल 1984 था। इस साल भी इंदिरा सरकार ने अपने बजट मे लोकलूभावनी वायदों की भरमार कर रखी थी। हलांकि कांग्रेस राजीव गाँधी के नेतृत्व में सत्ता प्राप्त करने में सफ़ल हो गई थी। लेकिन उस प्रचंड बहुमत का श्रेय बजट को नहीं दिया जा सकता है। उस साल इंदिरा गाँधी की हत्या न हुई होती तो, कांग्रेस के लिए सत्ता में वापसी शायद मुश्किल हो जाती। कांग्रेस को 545 में से 415 सीटें मिली थी।
राजीव गाँधी अगला आम चुनाव 1988 में कराना चाहते थे। लेकिन इस बीच बोफोर्स घोटाले में नाम आ जाने से उनकी बड़ी बदनामी हुई थी। इसलिए चुनाव तय समय पर 1989 में हुए। राजीव सरकार नें तो लगातार दो वर्षों तक बजट में कई लोकलुभावन घोषणाओं की झड़ी लगा दी थी। कांग्रेस उस चुनाव में बुरी तरह हारी थी। 545 में से मात्र 197 सीटें। 1996 के चुनाव में भी कुछ-कुछ ऐसा ही हुआ। बल्कि कांग्रेस की हालत और भी बत्तर हो गई थी। 545 में 140 सीटें।
1997 में गुज़राल सरकार नें तो हद ही कर दी। इस बज़ट में वेतन आयोग की अनुशंसा लागु कर दी गई थी। फिर वही। जनता फिर पलटी मार गई। गुजराल सरकार को जाना पड़ा। हाँ, वेतन आयोग ने अर्थव्यवस्था की ऐसी-तैसी जरूर कर दी। 2003 में वाजपेयी के नेतृत्व में एनडीए सरकार ने भी बजट में ख़ूब रेबड़ियां बांटी। हलांकि चुनाव 2004 में हुए। लेकिन जनता ने इतिहास को दोहराने में कोई ग़लती नहीं की। सरकार चली गई।
अगले साल फिर आम चुनाव होने है। यूपीए सरकार साफ इशारा दे चुकी है कि 29 फरवरी का बजट चुनावी बजट ही होगा। यानि लोकलुभावन बजट। मंहगाई कम करने के उपाय, रेल भाड़े में कमी, टैक्स स्लैब में परिवर्तन, सेवा कर में छूट, इलेक्ट्रानिक उपकरणों में टैक्स छूट। नौकरीपेशा, व्यापारी, गृहणी सब के लिए कुछ न कुछ जरूर होगा। हो सकता है छठे वेतन आयोग की अनुशंसाओं को भी लागु कर दिया जाए।......तो क्या इतिहास फिर से अपने आप को दोहराएगा। यानि मनमोहन सरकार का कांउट डाउन शुरू। यह सचमुच देखने वाली बात होगी कि चिदंबरम लोगों को लुभाते हैं या सरकार बचाते हैं।
1977 के आम चुनाव भारतीय लोकतंत्र के लिए मील का पत्थर था। दो साल के इमरजेंसी के बाद यह पहला चुनाव था। जयप्रकाश के संपुर्ण क्रांति के लहर ने कांग्रेस का सफाया कर दिया। कांग्रेस 545 मे से सिर्फ़ 154 सीटें जीत पाई थी।
अगला आम चुनाव 1980 में हुआ। उससे एक साल पहले चरण सिंह सरकार नें काफ़ी लोकप्रिय बजट पेश किया था। नतीजा यह हुआ कि चरण सिंह की पार्टी बुरी तरह से पराजित हुई। आपनी सीट भी चरण सिंह बड़ी मुश्किल से बचा सके थे। जनता पार्टी को 545 में से सिर्फ़ 31 सीटें ही मिल पाई थी।
अगला चुनावी साल 1984 था। इस साल भी इंदिरा सरकार ने अपने बजट मे लोकलूभावनी वायदों की भरमार कर रखी थी। हलांकि कांग्रेस राजीव गाँधी के नेतृत्व में सत्ता प्राप्त करने में सफ़ल हो गई थी। लेकिन उस प्रचंड बहुमत का श्रेय बजट को नहीं दिया जा सकता है। उस साल इंदिरा गाँधी की हत्या न हुई होती तो, कांग्रेस के लिए सत्ता में वापसी शायद मुश्किल हो जाती। कांग्रेस को 545 में से 415 सीटें मिली थी।
राजीव गाँधी अगला आम चुनाव 1988 में कराना चाहते थे। लेकिन इस बीच बोफोर्स घोटाले में नाम आ जाने से उनकी बड़ी बदनामी हुई थी। इसलिए चुनाव तय समय पर 1989 में हुए। राजीव सरकार नें तो लगातार दो वर्षों तक बजट में कई लोकलुभावन घोषणाओं की झड़ी लगा दी थी। कांग्रेस उस चुनाव में बुरी तरह हारी थी। 545 में से मात्र 197 सीटें। 1996 के चुनाव में भी कुछ-कुछ ऐसा ही हुआ। बल्कि कांग्रेस की हालत और भी बत्तर हो गई थी। 545 में 140 सीटें।
1997 में गुज़राल सरकार नें तो हद ही कर दी। इस बज़ट में वेतन आयोग की अनुशंसा लागु कर दी गई थी। फिर वही। जनता फिर पलटी मार गई। गुजराल सरकार को जाना पड़ा। हाँ, वेतन आयोग ने अर्थव्यवस्था की ऐसी-तैसी जरूर कर दी। 2003 में वाजपेयी के नेतृत्व में एनडीए सरकार ने भी बजट में ख़ूब रेबड़ियां बांटी। हलांकि चुनाव 2004 में हुए। लेकिन जनता ने इतिहास को दोहराने में कोई ग़लती नहीं की। सरकार चली गई।
अगले साल फिर आम चुनाव होने है। यूपीए सरकार साफ इशारा दे चुकी है कि 29 फरवरी का बजट चुनावी बजट ही होगा। यानि लोकलुभावन बजट। मंहगाई कम करने के उपाय, रेल भाड़े में कमी, टैक्स स्लैब में परिवर्तन, सेवा कर में छूट, इलेक्ट्रानिक उपकरणों में टैक्स छूट। नौकरीपेशा, व्यापारी, गृहणी सब के लिए कुछ न कुछ जरूर होगा। हो सकता है छठे वेतन आयोग की अनुशंसाओं को भी लागु कर दिया जाए।......तो क्या इतिहास फिर से अपने आप को दोहराएगा। यानि मनमोहन सरकार का कांउट डाउन शुरू। यह सचमुच देखने वाली बात होगी कि चिदंबरम लोगों को लुभाते हैं या सरकार बचाते हैं।
1 comment:
काश की आपके ब्लॉग को सोनिया गांधी पढ लेतीं, मनमोहन की सरकार सुन लेते और पीसी पांच साल और हमारी छाती पर मूंग दलते, टैक्स का फार्म लंबा कर कर के।
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