86 फ़ीसदी लोग बाबा रामदेव को सही मानते हैं। 57 प्रतिशत बलात्कारी को फांसी देने के हक में हैं। 31 फ़ीसदी लोग चुंबन को भारतीय संस्कृति के ख़िलाफ मानते हैं। और 14 प्रतिशत लोग मोनिका बेदी का अबू सलेम से अलग होने को जायज़ समझते हैं। किसी भी अख़बार को उठाईए या फिर कोई भी न्यूज़ चैनल ऑन कीजिए, किसी घटना या वस्तू के बारे में लोगों के विचारों से आपका सामना होगा। विचार, ख़बरों पर भारी पड़ रहे हैं। हमारी दिलचस्पी घटनाओं से ज्यादा उस घटना पर लोगों के विचारों में ज्यादा हो गई है। लोग अपनी सोच के बारे में ज्यादा सोचने लगे हैं।
ख़बरें आज इंटरेक्टिव हो गई हैं। रियलिटी शो में जीत-हार का फ़ैसला जनता करने लगी है। कंपनियां अपने उत्पादों के बारे में लोगों के विचारों को ज्यादा महत्व देने लगे हैं। मैग्ज़ीन निश्चित अंतराल पर अपने कवर पेज़ पब्लिक ओपीनियन को दे रही हैं। खास कर लोगों के सेक्स संबंधी विचार तो बंपर सर्कुलेशन की गारंटी बनती जा रही है। छोटी-बड़ी बातों पर लोगों के विचारों में हमारी रूचि बेतरह बढ़ी है।
लोकप्रियता इतनी ज़ायज पहले कभी नहीं थी। एक स्तर पर तो इस बदलाव को समझना आसान है। दरअसल हम एक ऐसे सामाजिक व्यवस्था के गुलाम रहे हैं जहाँ सिर्फ़ दूसरों को सुनने की आज़ादी थी। माँ-बाप ने तय किया कि हम क्या पढ़ेंगे, किस कॉलेज या स्कूल में जाएंगे, किस काम से रोज़ी कमाएंगे। यहां तक की जीवन साथी कौन बनेगी, इसका फ़ैसला भी वो ही करते रहे हैं। हमें चुप रहकर सिर्फ़ सुनना सिखाया गया। किताबों में छपे अक्षर को ब्रह्मज्ञान बताया जाता रहा है। हमारी हरेक गतिविधि को जासूस की तरह काफ़ी ध्यान से देखा-परखा गया।
घर से इतर हमारे राजनेता हमें बेवकूफ़ समझकर भाषण पिलाते रहे। सरकारों ने भी चुनाव के अलावा जनता की बातों पर कभी ध्यान नहीं दिया। अख़बारों के संपादक भी अपनी सोच-समझ को हमारी इच्छाओं पर एकतरफा ठेलते रहे। घर में संस्कार ऐसे दिए गए कि गाना सुनते वक्त अपने से बड़ा कोई आ जाए तो मन अपराधबोध से ग्रस्त हो जाता था। वर्षों तक ऑल इंडिया रेडियो को फिल्मी गानों से वर्जिन रखा गया। गाने सुनने का एक मात्र साधन रेडियो सिलॉन पर आने वाला बिनाका गीत माला था। कुछ-कुछ यही हाल सप्ताह में एक दिन दूरदर्शन पर आनेवाले हिंदी सिनेमा का था। लोगों कि इच्छा डिस्को-डांसर देखने की होती, लेकिन गंगा-जमुना और संगम जैसी पुरानी फिल्में दिखाई जाती।
1990 के बाद वक्त बदला। हमारी बढ़ी हुई परचेजिंग पावर और कामर्शियल मनोरंजन चैनलों ने हमें 'सुनने' जैसे अत्याचार से मुक्त किया। आज सबकुछ हमारी सोच और इच्छाओं के चारों तरफ घूमने लगा है। पूरी कायनात हमारी इच्छाओं की पुर्ती में व्यस्त है। ख़बरिया चैनल भी लोगों की इच्छाओं को सम्मान देने लगी हैं। ताक़त विशेषज्ञों के हाथों से फिसल कर आम आदमी के हाथों में आ गई है। आपने कैसा गाया, यह फ़ैसला जनता करने लगी है। इंडियन ऑफ द ईयर भी हम ही चुनते हैं। इस बार तो मिस वर्ल्ड का चुनाव भी एसएमएस वोटिंग से जनता ने ही किया। न्यू सेवन वंडर्स भी हमारी इच्छाओं का आईना है।
धीरे-धीरे ही सही पब्लिक ऑपीनियन की स्वीकार्यता बढ़ रही है। किसी भी घटना या व्यक्ति की लोकप्रियता उसके होने को जस्टिफाई कर रही है। बदलाव का दौड़ जारी है। आने वाला समय जीवन के अन्य क्षेत्रों में भी कई क्रांतिकारी बदलाव हमारे सामने लाएगी। देखते रहिए।
ख़बरें आज इंटरेक्टिव हो गई हैं। रियलिटी शो में जीत-हार का फ़ैसला जनता करने लगी है। कंपनियां अपने उत्पादों के बारे में लोगों के विचारों को ज्यादा महत्व देने लगे हैं। मैग्ज़ीन निश्चित अंतराल पर अपने कवर पेज़ पब्लिक ओपीनियन को दे रही हैं। खास कर लोगों के सेक्स संबंधी विचार तो बंपर सर्कुलेशन की गारंटी बनती जा रही है। छोटी-बड़ी बातों पर लोगों के विचारों में हमारी रूचि बेतरह बढ़ी है।
लोकप्रियता इतनी ज़ायज पहले कभी नहीं थी। एक स्तर पर तो इस बदलाव को समझना आसान है। दरअसल हम एक ऐसे सामाजिक व्यवस्था के गुलाम रहे हैं जहाँ सिर्फ़ दूसरों को सुनने की आज़ादी थी। माँ-बाप ने तय किया कि हम क्या पढ़ेंगे, किस कॉलेज या स्कूल में जाएंगे, किस काम से रोज़ी कमाएंगे। यहां तक की जीवन साथी कौन बनेगी, इसका फ़ैसला भी वो ही करते रहे हैं। हमें चुप रहकर सिर्फ़ सुनना सिखाया गया। किताबों में छपे अक्षर को ब्रह्मज्ञान बताया जाता रहा है। हमारी हरेक गतिविधि को जासूस की तरह काफ़ी ध्यान से देखा-परखा गया।
घर से इतर हमारे राजनेता हमें बेवकूफ़ समझकर भाषण पिलाते रहे। सरकारों ने भी चुनाव के अलावा जनता की बातों पर कभी ध्यान नहीं दिया। अख़बारों के संपादक भी अपनी सोच-समझ को हमारी इच्छाओं पर एकतरफा ठेलते रहे। घर में संस्कार ऐसे दिए गए कि गाना सुनते वक्त अपने से बड़ा कोई आ जाए तो मन अपराधबोध से ग्रस्त हो जाता था। वर्षों तक ऑल इंडिया रेडियो को फिल्मी गानों से वर्जिन रखा गया। गाने सुनने का एक मात्र साधन रेडियो सिलॉन पर आने वाला बिनाका गीत माला था। कुछ-कुछ यही हाल सप्ताह में एक दिन दूरदर्शन पर आनेवाले हिंदी सिनेमा का था। लोगों कि इच्छा डिस्को-डांसर देखने की होती, लेकिन गंगा-जमुना और संगम जैसी पुरानी फिल्में दिखाई जाती।
1990 के बाद वक्त बदला। हमारी बढ़ी हुई परचेजिंग पावर और कामर्शियल मनोरंजन चैनलों ने हमें 'सुनने' जैसे अत्याचार से मुक्त किया। आज सबकुछ हमारी सोच और इच्छाओं के चारों तरफ घूमने लगा है। पूरी कायनात हमारी इच्छाओं की पुर्ती में व्यस्त है। ख़बरिया चैनल भी लोगों की इच्छाओं को सम्मान देने लगी हैं। ताक़त विशेषज्ञों के हाथों से फिसल कर आम आदमी के हाथों में आ गई है। आपने कैसा गाया, यह फ़ैसला जनता करने लगी है। इंडियन ऑफ द ईयर भी हम ही चुनते हैं। इस बार तो मिस वर्ल्ड का चुनाव भी एसएमएस वोटिंग से जनता ने ही किया। न्यू सेवन वंडर्स भी हमारी इच्छाओं का आईना है।
धीरे-धीरे ही सही पब्लिक ऑपीनियन की स्वीकार्यता बढ़ रही है। किसी भी घटना या व्यक्ति की लोकप्रियता उसके होने को जस्टिफाई कर रही है। बदलाव का दौड़ जारी है। आने वाला समय जीवन के अन्य क्षेत्रों में भी कई क्रांतिकारी बदलाव हमारे सामने लाएगी। देखते रहिए।
2 comments:
बड़ी गहरी विवेचना है। किसी भी मुक्त आर्थिक व्यवस्था में पावर का फ्लो एलीट से कामन्स के तरफ होता है। भारत में भी हम यही देख रहे हैं। हाँ जनता की क्रय शक्ति ऐसी व्यवस्था में महत्वपूर्ण हो जाती है। ऐसी व्यवस्था में सरकार (स्टेट), जनता और व्यापारी तीन ही प्लेयर होते हैं। सरकार और जनता व्यापारियों के उपभोक्ता होते हैं। व्यापारी वर्ग भी जनता के तरफ ही झुक जाती है, क्योंकि उनके आय के मुख्य श्रोत वही होते हैं। यह सामाजिक-आर्थिक फिलासफी है।
negative में positive देखने का आपका सलीका पसंद आया। यथास्थिति और बदलाव को देखने का असल में यही सही नज़रिया है। नहीं तो लोग बस गरियाते ही रहते हैं। आपने सही पकड़ा है यह दौर व्यापक अवाम के empowerment का है। सारा सिलसिला अपने समाज के democratization का हिस्सा है। बस, इसमें सार्थक व सचेत हस्तक्षेप की ज़रूरत है जो लोकतांत्रिक मूल्यों को समर्पित कोई राजनीतिक पार्टी ही कर सकती है। हम आप तो बस माहौल बना सकते हैं।
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