भारत एक ऐसा मुल्क है जहाँ हर एक शहर का अपना एक प्रसिद्ध व्यंजन होता है। मसलन आगरा का पेठा, मथुरा का पेड़ा, मुरैना का गजक, मुबई का पाव भाजी और बड़ा पाउ, गया का तिलकुट, कोलकाता का रोसगुल्ला। और भी हज़ारों पकवान अपने-अपने शहर को पहचान देते रहे हैं। आज बात पटना के जिलेबा की। दरअसल कुछ दिनों पहले अपने एक रिश्तेदार, जो भारत सरकार के वरिष्ट आईएएस अफसर हैं, से मिलने दिल्ली में उनके दफ्तर पहुंचा। बड़े अधिकारी है, सो सोच कर गया था कि बहुत गंभीर किस्म कि बातें होंगी। यूएन, यूपीए-लेफ्ट गटबंधन, एफडीआई, सेज़, लुक इस्ट पालिसी। प्रतियोगिता दर्पन से सब पर एक नज़र मार कर गया था कि बात निकले तो कमजोर न पड़ जाउँ। उल्लू की तरह मुंह निहारने से अच्छा है कि कुछ बेसिक दुरुस्त कर लिया जाए। दिमाग में यह भी घूम रहा था कि वरिष्ट अधिकारी हैं, सो कम बोलते होंगे। हूं....हाँ में ही जवाब देंगे।
ख़ैर नीयत समय पर मैं जीवन तारा बिल्डिंग स्थित उनके दफ़्तर पहुंच गया। कुशल-क्षेम की औपचारिकता के बाद पटना की बातें होने लगीं। यह जानते ही कि मेरी भी पढ़ाई-लिखाई पटना कॉलेज में हुई है, वो नास्टैलजिक हो गए। पूछ बैठे कि कॉलेज के सामने आज भी जिलेबा बिकता है क्या? धीरे-धीरे जिलेबा के गुणगान में कुछ ऐसा खो गए कि लगभग दो-तीन घंटों तक जिलेबा की चाशनी में ही डूबते-उतराते रहे। अब तक साधारण लगने वाला जिलेबा मेरे लिए विशिष्ट हो गया था। मैं उनसे उनके अलीगढ़ और जौनपूर के डीएम पद का अनुभव जानना चाहता था। लेकिन वो जिलेबा से मक्खी की तरह चिपक जाते थे। मैं जानना चाहता था कि आगरा के कमिश्नर पद पर रहते हुए वाजपेयी-मुशर्रफ वार्ता के उनके अनुभव कैसे रहे, लेकिन फिर वही जिलेबा। खाना क्या खाते हैं? जिलेबा। सरकार कितने दिन और चलेगी? जिलेबा। वाणिज्य मंत्रालय में आपका रोल क्या है? जिलेबा। यह जिलेबा एफडीआई, सेज़, लुक इस्ट पालिसी पर इतना भारी पड़ेगा, इसका अंदाजा होता तो पटना से उनके लिए जिलेबा जरूर मंगवा लेता। ऐसे आप में से बहुत लोग सोच रहे होंगे कि इ ससुरा जिलेबा है कौन सी बला। तो जनाब जान लीजिए। जिलेबा जो है सो जिलेबी के बड़े भैया हैं। इतना बड़ा कि एक पाव जिलेबी इज़ इक्वल टू जिलेबा। रंग, स्वाद सब जिलेबी जैसा। लेकिन आकार बड़ा। बल्कि बहुत बड़ा। मुंह में जाते ही घुल जाएगा। उदाहरण स्वरूप आपका अपना शरीर जिलेबी है तो पहलवान खली जिलेबा होगा। ख़ैर यह सब तो हल्की फुलकी बातें थी।
दरअलस अगर पंजाब का स्टेपल डाईट रोटी है, बंगाल का भात (चावल) है, तो उसी तरह पटना के हॉस्टलों/ लॉजों में रह रहे लाखों छात्रों को जिलेबी-कचौड़ी और जिलेबा पसंद आता है। पटना में लोग कहते हैं कि जिलेबा खाने से सोचने की रफ्तार भी बढ़ती है। इसी जिलेबा को खा-खा कर न जाने कितने बिहारी बच्चे आईआईटी, आईआईएम और देश भर में फैले हज़ारों इंजीयरिंग, मेडिकल कॉलेजों में अपना परचम लहरा रहे हैं। दिमाग का भोजन ग्लूकोज है। ग्लूकोज चीनी से बनाता है और इस चीनी में तरबतर होकर ही मैदा को जिलेबा बनने का गौरव प्राप्त होता है। पटनिया लोगों के लिए जिलेबा मात्र एक खाद्य पदार्थ नहीं है। बल्कि जिलेबा उनकी भावनाओं कि अभिव्यक्ति भी है। यह उनके इमोशन से जुड़ा है औऱ सम्मान से भी। इसलिए मेरा मानना है कि जिलेबा खाए बिना मनुष्य अधूरा है। विश्वास नहीं है तो रवीश या फिर अविनाश से पूछ लें। आपने अभी तक नहीं खाया है तो कोई बात नहीं। कभी पटना जाएं तो जरूर आजमाएं।
ख़ैर नीयत समय पर मैं जीवन तारा बिल्डिंग स्थित उनके दफ़्तर पहुंच गया। कुशल-क्षेम की औपचारिकता के बाद पटना की बातें होने लगीं। यह जानते ही कि मेरी भी पढ़ाई-लिखाई पटना कॉलेज में हुई है, वो नास्टैलजिक हो गए। पूछ बैठे कि कॉलेज के सामने आज भी जिलेबा बिकता है क्या? धीरे-धीरे जिलेबा के गुणगान में कुछ ऐसा खो गए कि लगभग दो-तीन घंटों तक जिलेबा की चाशनी में ही डूबते-उतराते रहे। अब तक साधारण लगने वाला जिलेबा मेरे लिए विशिष्ट हो गया था। मैं उनसे उनके अलीगढ़ और जौनपूर के डीएम पद का अनुभव जानना चाहता था। लेकिन वो जिलेबा से मक्खी की तरह चिपक जाते थे। मैं जानना चाहता था कि आगरा के कमिश्नर पद पर रहते हुए वाजपेयी-मुशर्रफ वार्ता के उनके अनुभव कैसे रहे, लेकिन फिर वही जिलेबा। खाना क्या खाते हैं? जिलेबा। सरकार कितने दिन और चलेगी? जिलेबा। वाणिज्य मंत्रालय में आपका रोल क्या है? जिलेबा। यह जिलेबा एफडीआई, सेज़, लुक इस्ट पालिसी पर इतना भारी पड़ेगा, इसका अंदाजा होता तो पटना से उनके लिए जिलेबा जरूर मंगवा लेता। ऐसे आप में से बहुत लोग सोच रहे होंगे कि इ ससुरा जिलेबा है कौन सी बला। तो जनाब जान लीजिए। जिलेबा जो है सो जिलेबी के बड़े भैया हैं। इतना बड़ा कि एक पाव जिलेबी इज़ इक्वल टू जिलेबा। रंग, स्वाद सब जिलेबी जैसा। लेकिन आकार बड़ा। बल्कि बहुत बड़ा। मुंह में जाते ही घुल जाएगा। उदाहरण स्वरूप आपका अपना शरीर जिलेबी है तो पहलवान खली जिलेबा होगा। ख़ैर यह सब तो हल्की फुलकी बातें थी।
दरअलस अगर पंजाब का स्टेपल डाईट रोटी है, बंगाल का भात (चावल) है, तो उसी तरह पटना के हॉस्टलों/ लॉजों में रह रहे लाखों छात्रों को जिलेबी-कचौड़ी और जिलेबा पसंद आता है। पटना में लोग कहते हैं कि जिलेबा खाने से सोचने की रफ्तार भी बढ़ती है। इसी जिलेबा को खा-खा कर न जाने कितने बिहारी बच्चे आईआईटी, आईआईएम और देश भर में फैले हज़ारों इंजीयरिंग, मेडिकल कॉलेजों में अपना परचम लहरा रहे हैं। दिमाग का भोजन ग्लूकोज है। ग्लूकोज चीनी से बनाता है और इस चीनी में तरबतर होकर ही मैदा को जिलेबा बनने का गौरव प्राप्त होता है। पटनिया लोगों के लिए जिलेबा मात्र एक खाद्य पदार्थ नहीं है। बल्कि जिलेबा उनकी भावनाओं कि अभिव्यक्ति भी है। यह उनके इमोशन से जुड़ा है औऱ सम्मान से भी। इसलिए मेरा मानना है कि जिलेबा खाए बिना मनुष्य अधूरा है। विश्वास नहीं है तो रवीश या फिर अविनाश से पूछ लें। आपने अभी तक नहीं खाया है तो कोई बात नहीं। कभी पटना जाएं तो जरूर आजमाएं।
7 comments:
बहुत अच्छा. यहां दिल्ली के चांदनी चौक में भी एक दुकान का जिलेबा बड़ा मशहूर है.
बहुत बढिया.. मैं भी नौस्टाल्जिक हुआ जा रहा हूं..
ऐसे पटना जाना तो कम ही हो पाता है। लेकिन अबकी बार गया तो आपके जिलेबा को जरूर चखुंगा।
अभी से मुंह में स्वाद लगने लगा है। गोल-गोल जिलेबा। बहुत दिन हो गए खाए हुए। वाह बॉस मान गए। क्या लॉजिक देकर आपने जिलेबा को महान बना दिया। इस चीनी में तरबतर होकर ही मैदा को जिलेबा बनने का गौरव प्राप्त होता है।
मेरा घर नही मेरा ससूराल पटना मे है. आज शादी के चार साल हो गए. आज तक नही समझ मे आया था कि मेरी बीबी को पटना का जलेबे इतना क्यों पसन्द है. शादी के पहले साल चौराहे-चौराहे का जलेबा मुझे खिलया. मुझसे ये तक नही पुछा गया कि जलेबा या जलेबी पसन्द है भी या नही... बस पटना है... पटना आए हो तो जलेबा खाना ही पड़ेगा. आज बंगलोर मे हूं लेकिन १५ अगस्त और २६ जनवरी को अपने बीवी के लिए जलेबी का इन्तजाम जरूर करता हूं. ससूराल जो पटना मे है....
अच्छा प्रस्तुति
अरे जिलेबा की कहानी ही सुनाएंगे कि खाने का व्यवस्था भी करवाएंगे। इत्तेफ़ाक देखिए मैं भी आपके कॉलेज का ही छात्र रहा हूं। जलेबा मुझे भी प्रिय रहा है। क्या ऐनी बेसेन्ट रोड वाले कार्नर पर आज भी जिलेबा बिकता है। हमारे टाईम यानि 1986 के आसपास 20 पैसे में मिलता था। अब तो पटना गए ज़माना बीत गया। आपकी तरह ही मीडिया में हूं। गल्फ टाईम्स दुबई से प्रकाशित होने वाले अख़बार से जुड़ कर अपनी रोटी कमा रहा हूं।
नहीं सर, अब वहाँ जिलेबा नहीं बिकता है। उस जगह रिलायंस का मोबाईल शॉप खुल गया है। ऐसे पटना की गलियों में यदा कदा जिलेबा आपको दिख जाएगा। कुछ उसी प्रकार जैसे दिल्ली की सड़को पर विंटेज कार दिखती है। 1986 और आज के बीच गंगा में काफ़ी पानी बह चुकी है। समय और स्वाद दोनों बदल गए हैं। हाँ, नुडल्स शॉप, आईसक्रीम पार्लर काफ़ी मिल जाएंगे। यादों को कब्र में दफ़न करना चाहता हूं लेकिन कर नहीं पाता। लगता है जमीन से जुड़ाव ख़त्म हो जाएगी। इसलिए अपनी नास्टेलजिया को शब्दों का रूप दे देता हूं। एक लालच है कि ज़मीन से जुड़ कर माडर्न बन जाउं। लेकिन सच तो यह है कि इस उधेड़बुन में दोनों दगा दे जाते हैं। और रह जाती हैं यादें....सिर्फ़ कोरी यादें। डरता हूं यह भी छोड़ न जाएं। फिर क्या करूंगा।
Post a Comment