मैं आज इस दुनिया में नहीं हूं। लोग मुझे भूल गए होंगे। मुझे मरे हुए लगभग 12 साल हो गए हैं। या सच कहूं मारे गए हुए। यकीं न आए तो 17 अप्रेल 1996 का अख़बार ख़ोज निकालीये। पटना से प्रकाशित होने वाले अख़बार में मेरा फ़ोटो आपको पहले पन्ने पर ही दिख जाएगा। पटना के पीरबहोर थाने के आगे पुलिस की जिप्सी पर ख़ून से सनी मेरी लाश। उसके उपर मोटे काले अक्षर में मेरे ख़ौफ की दास्तां। "राजधानी का सबसे बेहतरीन शूटर पप्पू ठाकुर पुलिस मुठभेड़ में ढ़ेर"। बिल्कुल सही लिखा था। बेहतरीन शूटर था मैं । मेरा निशाना कभी चूका ही नहीं था। अर्जून था मैं अर्जून।
मैं पप्पू से पप्पू ठाकुर कब बन गया, इस बात का पता मुझे भी नहीं चला। दसवीं तक की पढ़ाई की थी। उसके आगे पढ़ने का न मन था, न ही किसी नें कहा। पिताजी सरकारी स्कूल में दरवान थे। माँ दूसरो के घर में चुल्हा-चौका करती थी। दोनों की इच्छा थी कि मैं ड्राईवर बनूं। लेकिन मैं ख़ौफ का दूसरा नाम बन गया। पहली बार अपराध कब किया, ठीक से याद नहीं। हाँ, एक डकैती के केस में पहली बार जेल गया था। पाँच महीने बाद बेल मिल गई थी। जेल से बाहर आने के बाद मेरी प्रतिष्ठा काफ़ी बढ़ गई। मेरी अपनी पहचान बनने लगी थी। इसी बीच एक चिकन वाले को मुफ्त में चिकन न देने के कारण गोली मार दी। वह वहीं छटपटा कर मर गया। पुलिस फिर से मेरे पीछे थी। मैं इधर-उधर भागता रहा। धीरे-धीरे पैसे भी ख़त्म होते चले गए। थक हारकर मैंने कोर्ट में सरेंडर कर दिया। मेरे ख़िलाफ किसी ने गवाही देने कि जुर्रत नहीं की, और मैं साल भर में फिर जेल से बाहर था। मेरी छवि रॉबिनहुड की हो गई थी। दो-चार महीने कोर्ट में हाजरी लगाने के बाद मैंने वहाँ जाना बंद कर दिया। मेरे ख़िलाफ फिर से वारंट जारी हो गया था। लेकिन मैंने सरेंडर न करने का मन बना लिया था। पुलिस के दबिश के कारण घर पहले ही छोड़ चुका था। पहले कभी-कभार माँ-बाप से मिल लेता था, अब वो भी मुमकीन नहीं था। इस लुकाछिपी के दौड़ान ही मैं और मेरे साथियों ने आठ-दस डकैतियां की। लूट के दौड़ान तीन-चार मर्डर भी मेरे हाथों हो गए थे।
मेरा ख़ौफ़ कुछ ऐसा फैला कि मेरे नाम पर कई अपराध होने लगे जिनसे मेरा कोई भी ताल्लूक नहीं था। पैसे की कोई कमी नहीं थी। इस बीच पुलिस ने एक दिन मेरे पिताजी की पिटाई कर दी। बहुत गुस्सा आया। मैंने उस इंस्पेक्टर को दिन के बारह बजे थाने के ठीक सामने गोली मार दी। उसके बाद तो मैं पुलिस का दुश्मन नंबर वन बन गया था। इस बीच मैं कहाँ-कहाँ नहीं भटका। किसी भी जगह एक दिन से ज्यादा नहीं टिकता। कभी मूंछ उगा लेता, तो कभी गंजा हो जाता। समय-समय पर उगाही के पैसे मिल जाते थे। एक रात पुलिस से बाल-बाल बचा था। किसी छत पर सोया था, कि तभी नीचे पुलिस आ गई थी। मेरे पास बम था और मैंने ताबड़तोड़ उसे पुलिस के उपर बरसा दिया। दो पुलिस वाले शहीद हो गए थे। जैसे-तैसे जान बचाकर वहाँ से भाग निकला। ख़ाकी वर्दी वालों से चिढ़ गया था। कहीं अकेला पुलिस वाला दिख जाता तो मन करता कि उसे वहीं ठोक दूं। दिन-रात डर के साये में गुज़रता। हर आदमी पुलिस का जासूस लगता था। लगता था कि अभी कहीं से गोली आएगी और मैं यहीं ढेर हो जाउंगा। कभी लगता कि पुलिस ने मेरे गैंग के आदमी को फोड़ लिया है। खाना खाते हुए भी उसमें जहर का वहम होता। लेकिन मरने की इच्छा तो बिल्कुल नहीं थी। मैं जीना चाहता था।
कई वकीलों ने कहा कि सरेंडर कर दो। कर देता, लेकिन डरता कि पुलिस मुझे कोर्ट तक पहुंचने नहीं देगी। एक दिन कोशिश भी की थी और जान जाते-जाते बची थी। सिटी एसपी, राजविंदर सिंह भट्टी नें मेरे एंकांउटर का आदेश दे दिया था। मीडिया वाले मेरे अपराध को बढ़ा-चढ़ाकर बताते। छोटी-बड़ी सभी वारदातों में मेरा नाम ही आता था। जबकि मैं डर कर भागा फिर रहा था। अपने साथ इतना असलाह तो रखता ही था कि घिर जाने पर भी पुलिस से तीन-चार घंटे लोहा ले सकूं। ख़ैर धीरे-धीरे मेरा समय भी आ गया। 16 अप्रेल, 1996 को मैं मुज्जफरपुर के एक होटल में ठहरा था। शाम के वक्त चाय पीने निकला। लगता है सीआईडी वालों ने मुझे पहचान लिया था। रात के साढ़े ग्यारह बजे होटल के कमरे में थका-हारा सोया था। तभी चालाकी से पटना से आई पुलिस की एक टीम ने मुझे गिरफ्तार कर लिया। मेरे सारे गोली बम भी पुलिस ने जब्त कर लिए। मुझे तीन-चार गाड़ियों के बीच में रात डेढ़ बजे पटना लाया गया। मुझे लगा कि चलो जान बच जाएगी। कल कोर्ट में पेश कर दिया जाएगा और फिर जेल भेज दिया जाएगा। अंदर से राहत महसूस कर रहा था। चिंताए कम हो गईं थी।
मुझे उस दो घंटे के सफ़र मे किसी पुलिस वाले ने कुछ नहीं कहा। हाथ में हथकड़ी भी नहीं डाली गई थी। बिल्कुल आराम से पटना की तरफ साईं-साईं करती हुई पुलिस जिप्सी में बढ़ा चला जा रहा था। तभी आगे बैठे दारोगा ने ड्राईवर से कहा कि पटना-गया बाईपास में गाड़ी ले लो। एक पुलिस वाले ने मेरे पॉकेट में हाथ डाल कर सारे पैसे निकाल लिए। दूसरे ने गले में पड़ी सोने की चैन उतार ली। बाईपास का नाम सुनते ही मेरे हाथ-पैर ठंडे हो गए। बाईपास में तीन-चार किलोमीटर तक चलने के बाद गाड़ी रोक दी गई। तभी पुलिस वायरलेस पर एसपी सिटी की आवाज़ गुंजी। "वहाँ से हटा लो, सिग्मा (सीएम के पायलट कार का कोड) का मुवमेंट है"। दिल बहुत जोर-जोर से धड़क रहा था, साँसे तेज हो गईं थी। भगवान से मना रहा था यह भयानक काली रात जल्दी से ख़त्म हो जाए। दिन के उजाले में ये कुछ नहीं कर पाएंगे। पुलिस जिप्सी शहर की तरफ मुड़ गई थी। दिल को कुछ राहत हुआ। धीरे-धीरे मेरे आगे-पीछे चलने वाले पुलिस की गाड़ियों की संख्या बढ़ती जा रही थी। कुछ देर में सिटी एसपी, टाउन डीएसपी और मेरे इलाके की थाने की गाड़ी भी साथ आ गई। प्यास लगी थी। एक पुलिस वाले ने गाड़ी रोक कर पानी पिलाई। दूसरे ने कहा कि "पी ला, आज सब ठीक हो जाई"। गाड़ी पटना इंजीयरिंग कॉलेज के कैंपस में आ गई थी।
कैंपस का फील्ड बहुत बड़ा था। रात के दो बजे भी कॉलेज के कुछ छात्र वहाँ बैठे थे। दिल को फिर से एक राहत का एहसास हुआ। लेकिन यह उम्मीद जल्द ही जाती रही। एक पुलिस वाले नें वहाँ से लड़कों को भगा दिया। वहाँ फिर से सुनसान था। सिर्फ़ मैं और मेरी मौत, यानी पुलिस वाले ही बचे थे। यह वही मैदान था जिसमें खेल कर मैं जवान हुआ था। कितने क्रिकेट टुर्नामेंट जीते थे मैंने यहाँ। क्रिकेट का पिच भी वैसे का वैसा ही था। मैदान के चारों गेट पर पुलिस ने पोजीशन संभाल लिया था। जिप्सी की लाईट मेरे उपर थी। आँख चौधिया रहा था। माँ की याद आ रही थी। पिताजी, बचपन, दोस्त, मुहल्ला सब फ्लैश की तरह दिमाग में कौंध रहा था। तभी सिटी एसपी की आवाज़ आई। "चलो बताओ क्या करें। छोड़ दें"। मैं चुप था। सोच रहा था दौड़ कर भाग जाउं। कौन जानता है, इनकी गोली मिस कर जाए। टाउन डीएसपी ने कहा - "चलो छोड़ देते हैं। जाओ, आगे से बदमाशी मत करना"। मैं सिटी एसपी के पैरों पर गिर गया। तभी इंस्पेक्टर गाली देते हुए चिल्लाया। उठ, साले भाग, भाग। एक साथ कई पुलिस वाले चिल्लाने लगे। भाग, भाग, भाग......। मैं भाग चला। दौड़ने लगा। तभी गोली कि आवाज़ गूजी। मुझे यह गोली नहीं लगी थी। सोचा...कि.....भागो, भागो, थोड़ी दूर के बाद गोली के रेंज से बाहर। तभी सामने से एक सिपाही निकला और उसने अपने सिक्सर मेरी तरफ तान कर गोली चला दी। गोली जांघ मे लगी थी। दौड़ना जारी था। दिल से भय ख़त्म हो गया था। तेज़ और तेज़.......और तेज़। तभी दूसरी गोली की आवाज़। पीठ में लगी थी। भाग रहा था। बच जाउंगा। तीसरी गोली हाथ पर लगी थी। दौड़ और दौड़। तेज़ दौड़। चौथी गोली गरदन पर। पैर ईट से टकराकर लड़खड़ाने लगी थी। सामने से दौड़ कर आते एक पुलिस वाले ने बंदूक की बट सीने पर दे मारा। गिर गया। चक्कर आने लगा था। पांचवी गोली शायद सिर में लगी। शायद...क्योंकि उसके बाद शरीर और आत्मा अलग हो गए थे। अख़बारों में छपा था कि मुझे चौदह गोलियां लगी। इसका मतलब यह कि मरने के बाद भी मेरे शरीर पर गोलियां दागी गई थी।
रात में ही ख़बर फैला दी गई कि पुलिस ने अपने बचाव में गोली चलाई जिससे मेरी मौत हो गई। अगले दिन मेरे शरीर का पोस्टमार्टम पीएमसीएच में कराया गया। माँ भी आई थी। दोस्त भी आए थे। लेकिन मैं नहीं था। मेरे शरीर के साथ कई पुलिसवालों ने फोटो भी खिंचवाया था। मेरे लाश को घरवालों को नहीं सौंपा गया। मेरे दाह-संस्कार का जिम्मा पुलिस ने ही लिया। पूरे लाव-लश्कर के साथ मेरी शवयात्रा पीएमसीएच से बॉस घाट तक गई। सूबे के पुलिस मुखिया भी मुझे देखने आए थे। बॉस घाट पर ही मैंने दिवार पर लिखे हुए इस पंक्ति को भी पढ़ा। आत्मा अमर है, मृत्यू एक पड़ाव है। इलेकट्रिक फर्नेंस में मेरे शरीर को डाला गया। लेकिन पता नहीं क्यों, वह बाहर आ जाता था। शायद दुनिया में रहने का मेरा और मन था। या फिर माँ के आंसुओं को पोछने के लिए। पता नहीं। तब एक पुलिस वाले ने मेरे मृत शरीर पर एक लात मारते हुए यह कहा था कि "साला, जिंदा था तो तबाह किए हुए था। मरने पर भी परेशान कर रहा है"। मैं सही था या ग़लत था। शायद ग़लत ही था। और मेरी ग़लतियों की सज़ा भी मुझे मिल गई। मैं तो सिर्फ़ अपनी कहानी कहना चाहता था। कह दिया। तड़प कम हो गई है...अब आराम है।
मैं पप्पू से पप्पू ठाकुर कब बन गया, इस बात का पता मुझे भी नहीं चला। दसवीं तक की पढ़ाई की थी। उसके आगे पढ़ने का न मन था, न ही किसी नें कहा। पिताजी सरकारी स्कूल में दरवान थे। माँ दूसरो के घर में चुल्हा-चौका करती थी। दोनों की इच्छा थी कि मैं ड्राईवर बनूं। लेकिन मैं ख़ौफ का दूसरा नाम बन गया। पहली बार अपराध कब किया, ठीक से याद नहीं। हाँ, एक डकैती के केस में पहली बार जेल गया था। पाँच महीने बाद बेल मिल गई थी। जेल से बाहर आने के बाद मेरी प्रतिष्ठा काफ़ी बढ़ गई। मेरी अपनी पहचान बनने लगी थी। इसी बीच एक चिकन वाले को मुफ्त में चिकन न देने के कारण गोली मार दी। वह वहीं छटपटा कर मर गया। पुलिस फिर से मेरे पीछे थी। मैं इधर-उधर भागता रहा। धीरे-धीरे पैसे भी ख़त्म होते चले गए। थक हारकर मैंने कोर्ट में सरेंडर कर दिया। मेरे ख़िलाफ किसी ने गवाही देने कि जुर्रत नहीं की, और मैं साल भर में फिर जेल से बाहर था। मेरी छवि रॉबिनहुड की हो गई थी। दो-चार महीने कोर्ट में हाजरी लगाने के बाद मैंने वहाँ जाना बंद कर दिया। मेरे ख़िलाफ फिर से वारंट जारी हो गया था। लेकिन मैंने सरेंडर न करने का मन बना लिया था। पुलिस के दबिश के कारण घर पहले ही छोड़ चुका था। पहले कभी-कभार माँ-बाप से मिल लेता था, अब वो भी मुमकीन नहीं था। इस लुकाछिपी के दौड़ान ही मैं और मेरे साथियों ने आठ-दस डकैतियां की। लूट के दौड़ान तीन-चार मर्डर भी मेरे हाथों हो गए थे।
मेरा ख़ौफ़ कुछ ऐसा फैला कि मेरे नाम पर कई अपराध होने लगे जिनसे मेरा कोई भी ताल्लूक नहीं था। पैसे की कोई कमी नहीं थी। इस बीच पुलिस ने एक दिन मेरे पिताजी की पिटाई कर दी। बहुत गुस्सा आया। मैंने उस इंस्पेक्टर को दिन के बारह बजे थाने के ठीक सामने गोली मार दी। उसके बाद तो मैं पुलिस का दुश्मन नंबर वन बन गया था। इस बीच मैं कहाँ-कहाँ नहीं भटका। किसी भी जगह एक दिन से ज्यादा नहीं टिकता। कभी मूंछ उगा लेता, तो कभी गंजा हो जाता। समय-समय पर उगाही के पैसे मिल जाते थे। एक रात पुलिस से बाल-बाल बचा था। किसी छत पर सोया था, कि तभी नीचे पुलिस आ गई थी। मेरे पास बम था और मैंने ताबड़तोड़ उसे पुलिस के उपर बरसा दिया। दो पुलिस वाले शहीद हो गए थे। जैसे-तैसे जान बचाकर वहाँ से भाग निकला। ख़ाकी वर्दी वालों से चिढ़ गया था। कहीं अकेला पुलिस वाला दिख जाता तो मन करता कि उसे वहीं ठोक दूं। दिन-रात डर के साये में गुज़रता। हर आदमी पुलिस का जासूस लगता था। लगता था कि अभी कहीं से गोली आएगी और मैं यहीं ढेर हो जाउंगा। कभी लगता कि पुलिस ने मेरे गैंग के आदमी को फोड़ लिया है। खाना खाते हुए भी उसमें जहर का वहम होता। लेकिन मरने की इच्छा तो बिल्कुल नहीं थी। मैं जीना चाहता था।
कई वकीलों ने कहा कि सरेंडर कर दो। कर देता, लेकिन डरता कि पुलिस मुझे कोर्ट तक पहुंचने नहीं देगी। एक दिन कोशिश भी की थी और जान जाते-जाते बची थी। सिटी एसपी, राजविंदर सिंह भट्टी नें मेरे एंकांउटर का आदेश दे दिया था। मीडिया वाले मेरे अपराध को बढ़ा-चढ़ाकर बताते। छोटी-बड़ी सभी वारदातों में मेरा नाम ही आता था। जबकि मैं डर कर भागा फिर रहा था। अपने साथ इतना असलाह तो रखता ही था कि घिर जाने पर भी पुलिस से तीन-चार घंटे लोहा ले सकूं। ख़ैर धीरे-धीरे मेरा समय भी आ गया। 16 अप्रेल, 1996 को मैं मुज्जफरपुर के एक होटल में ठहरा था। शाम के वक्त चाय पीने निकला। लगता है सीआईडी वालों ने मुझे पहचान लिया था। रात के साढ़े ग्यारह बजे होटल के कमरे में थका-हारा सोया था। तभी चालाकी से पटना से आई पुलिस की एक टीम ने मुझे गिरफ्तार कर लिया। मेरे सारे गोली बम भी पुलिस ने जब्त कर लिए। मुझे तीन-चार गाड़ियों के बीच में रात डेढ़ बजे पटना लाया गया। मुझे लगा कि चलो जान बच जाएगी। कल कोर्ट में पेश कर दिया जाएगा और फिर जेल भेज दिया जाएगा। अंदर से राहत महसूस कर रहा था। चिंताए कम हो गईं थी।
मुझे उस दो घंटे के सफ़र मे किसी पुलिस वाले ने कुछ नहीं कहा। हाथ में हथकड़ी भी नहीं डाली गई थी। बिल्कुल आराम से पटना की तरफ साईं-साईं करती हुई पुलिस जिप्सी में बढ़ा चला जा रहा था। तभी आगे बैठे दारोगा ने ड्राईवर से कहा कि पटना-गया बाईपास में गाड़ी ले लो। एक पुलिस वाले ने मेरे पॉकेट में हाथ डाल कर सारे पैसे निकाल लिए। दूसरे ने गले में पड़ी सोने की चैन उतार ली। बाईपास का नाम सुनते ही मेरे हाथ-पैर ठंडे हो गए। बाईपास में तीन-चार किलोमीटर तक चलने के बाद गाड़ी रोक दी गई। तभी पुलिस वायरलेस पर एसपी सिटी की आवाज़ गुंजी। "वहाँ से हटा लो, सिग्मा (सीएम के पायलट कार का कोड) का मुवमेंट है"। दिल बहुत जोर-जोर से धड़क रहा था, साँसे तेज हो गईं थी। भगवान से मना रहा था यह भयानक काली रात जल्दी से ख़त्म हो जाए। दिन के उजाले में ये कुछ नहीं कर पाएंगे। पुलिस जिप्सी शहर की तरफ मुड़ गई थी। दिल को कुछ राहत हुआ। धीरे-धीरे मेरे आगे-पीछे चलने वाले पुलिस की गाड़ियों की संख्या बढ़ती जा रही थी। कुछ देर में सिटी एसपी, टाउन डीएसपी और मेरे इलाके की थाने की गाड़ी भी साथ आ गई। प्यास लगी थी। एक पुलिस वाले ने गाड़ी रोक कर पानी पिलाई। दूसरे ने कहा कि "पी ला, आज सब ठीक हो जाई"। गाड़ी पटना इंजीयरिंग कॉलेज के कैंपस में आ गई थी।
कैंपस का फील्ड बहुत बड़ा था। रात के दो बजे भी कॉलेज के कुछ छात्र वहाँ बैठे थे। दिल को फिर से एक राहत का एहसास हुआ। लेकिन यह उम्मीद जल्द ही जाती रही। एक पुलिस वाले नें वहाँ से लड़कों को भगा दिया। वहाँ फिर से सुनसान था। सिर्फ़ मैं और मेरी मौत, यानी पुलिस वाले ही बचे थे। यह वही मैदान था जिसमें खेल कर मैं जवान हुआ था। कितने क्रिकेट टुर्नामेंट जीते थे मैंने यहाँ। क्रिकेट का पिच भी वैसे का वैसा ही था। मैदान के चारों गेट पर पुलिस ने पोजीशन संभाल लिया था। जिप्सी की लाईट मेरे उपर थी। आँख चौधिया रहा था। माँ की याद आ रही थी। पिताजी, बचपन, दोस्त, मुहल्ला सब फ्लैश की तरह दिमाग में कौंध रहा था। तभी सिटी एसपी की आवाज़ आई। "चलो बताओ क्या करें। छोड़ दें"। मैं चुप था। सोच रहा था दौड़ कर भाग जाउं। कौन जानता है, इनकी गोली मिस कर जाए। टाउन डीएसपी ने कहा - "चलो छोड़ देते हैं। जाओ, आगे से बदमाशी मत करना"। मैं सिटी एसपी के पैरों पर गिर गया। तभी इंस्पेक्टर गाली देते हुए चिल्लाया। उठ, साले भाग, भाग। एक साथ कई पुलिस वाले चिल्लाने लगे। भाग, भाग, भाग......। मैं भाग चला। दौड़ने लगा। तभी गोली कि आवाज़ गूजी। मुझे यह गोली नहीं लगी थी। सोचा...कि.....भागो, भागो, थोड़ी दूर के बाद गोली के रेंज से बाहर। तभी सामने से एक सिपाही निकला और उसने अपने सिक्सर मेरी तरफ तान कर गोली चला दी। गोली जांघ मे लगी थी। दौड़ना जारी था। दिल से भय ख़त्म हो गया था। तेज़ और तेज़.......और तेज़। तभी दूसरी गोली की आवाज़। पीठ में लगी थी। भाग रहा था। बच जाउंगा। तीसरी गोली हाथ पर लगी थी। दौड़ और दौड़। तेज़ दौड़। चौथी गोली गरदन पर। पैर ईट से टकराकर लड़खड़ाने लगी थी। सामने से दौड़ कर आते एक पुलिस वाले ने बंदूक की बट सीने पर दे मारा। गिर गया। चक्कर आने लगा था। पांचवी गोली शायद सिर में लगी। शायद...क्योंकि उसके बाद शरीर और आत्मा अलग हो गए थे। अख़बारों में छपा था कि मुझे चौदह गोलियां लगी। इसका मतलब यह कि मरने के बाद भी मेरे शरीर पर गोलियां दागी गई थी।
रात में ही ख़बर फैला दी गई कि पुलिस ने अपने बचाव में गोली चलाई जिससे मेरी मौत हो गई। अगले दिन मेरे शरीर का पोस्टमार्टम पीएमसीएच में कराया गया। माँ भी आई थी। दोस्त भी आए थे। लेकिन मैं नहीं था। मेरे शरीर के साथ कई पुलिसवालों ने फोटो भी खिंचवाया था। मेरे लाश को घरवालों को नहीं सौंपा गया। मेरे दाह-संस्कार का जिम्मा पुलिस ने ही लिया। पूरे लाव-लश्कर के साथ मेरी शवयात्रा पीएमसीएच से बॉस घाट तक गई। सूबे के पुलिस मुखिया भी मुझे देखने आए थे। बॉस घाट पर ही मैंने दिवार पर लिखे हुए इस पंक्ति को भी पढ़ा। आत्मा अमर है, मृत्यू एक पड़ाव है। इलेकट्रिक फर्नेंस में मेरे शरीर को डाला गया। लेकिन पता नहीं क्यों, वह बाहर आ जाता था। शायद दुनिया में रहने का मेरा और मन था। या फिर माँ के आंसुओं को पोछने के लिए। पता नहीं। तब एक पुलिस वाले ने मेरे मृत शरीर पर एक लात मारते हुए यह कहा था कि "साला, जिंदा था तो तबाह किए हुए था। मरने पर भी परेशान कर रहा है"। मैं सही था या ग़लत था। शायद ग़लत ही था। और मेरी ग़लतियों की सज़ा भी मुझे मिल गई। मैं तो सिर्फ़ अपनी कहानी कहना चाहता था। कह दिया। तड़प कम हो गई है...अब आराम है।
6 comments:
बेहतरीन कहानी। दम साधकर पढ़ गया। सारा दृश्य जैसे आँखों के आगे घूम गया।
मारा गया डॉन आपका करीबी मालूम होता है। तभी तो आपने उसके मानसिक हालात का बेहतरीन विश्लेषण किया है।
एक क्रिमीनल की भी आत्मकथा हो सकती है। कभी सोचा नहीं था। आप भी लेखनी के साथ ख़ूब प्रयोग कर रहे हैं। टीवी या फिल्म में दिखाए जाने वाले एंकाउंटर से ज्यादा सच्चाई आपके लिखे हुए एंकाउंटर में लगा। ख़ास कर गोली लगने वाला और अंतिम लाईनें दिल से लिखी गई हैं।
दिल दहला देने वाला एंकाउंटर। लेकिन सोचिए तो क्या कोई व्यक्ति शौक से क्रिमीनल बनता है। क्या उसे अपना अंजाम नहीं मालूम था।
समय की धारा में उमर बह जानी है, जो घड़ी जी लेंगे वही रह जानी है। काश...मैं उस घड़ी उसके जीवन की सांस बन जाती.........आपका क्रिमीनल मुझे भा गया है।
कमाल का है....कल्पना से अगर ये लिखी गई है तो वाकई ही राजीव जी अापमें असीम संभावना है....
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