पहली तनख़्वाह, पहला प्यार दोनों अनमोल होते हैं। साल 2005 का वसंत बीतने ही वाला था। शिक्षण संस्थान के नौ महीने की प्रसव पीड़ा अपने अंत की तरफ़ रफ़्तार से भागा जा रहा था। ये इंटर्नशिप का समय था। बैच के सभी तीस बच्चों को किसी न किसी चैनल में इंटर्नशिप मिल गई थी। दो महीने का इंटर्नशिप जीवन का सबसे मज़ेदार समय था। छात्र जीवन और नौकरी के बीच का काल खंड। इस काल खंड पर न जाने कितने सपनों नें करवट ली थी। यह समय कैसे बीत गया पता भी नहीं चल पाया। अब मैं फिर से सड़क पर था। संस्थान नें डिग्री और नाम देकर अपनी भूमिका निभा दी थी। नौकरी नसीब की बात थी।
ख़ैर किस्मत ने साथ दिया और एक बड़े बिज़नेस अख़बार की नौकरी पके आम की तरह दामन में आ टपका। ट्रेनी सब-एडीटर, यही मेरा पहला पोस्ट था। तनख़्वाह, दस हज़ार। साथ में ऑफ़िस टाईम में लंच-डिनर मुफ्त। एक बैचलर को और क्या चाहिए था। झटपट हामी भर दी। अगले ही दिन छात्र से नौकरीपेशा इंसान बन गया। घर में, दफ़्तर के रास्ते में यहाँ तक की दफ्तर में भी एक ही खयाल आता। दस हज़ार.....बाप रे बाप, सौ-सौ के सौ नोट। क्या करूंगा इतने पैसों का? दिल में सूकून मिलता कि चलो किसी सरकारी दफ़्तर के बाबू से ज्याद टेक होम होगा। माँ की बात भी याद आती जो उसने संस्थान में दाख़िला लेते वक्त कहा था। "कहाँ जाओगे दिल्ली, तुम्हारा ऐकेडमिक रिकार्ड शानदार रहा है। तैयारी करो, लल्लू मामा की तरह आईएएस बन जाओगे। इज़्जत, शोहरत, आराम और पैसा, सबकुछ तो मिलेगा।" सोचा इज्ज़त और पैसा तो मिल गया। बाकि बचा शोहरत और आराम, उसे भी धीरे-धीरे तालाश लाउंगा।
ख़ैर किस्मत ने साथ दिया और एक बड़े बिज़नेस अख़बार की नौकरी पके आम की तरह दामन में आ टपका। ट्रेनी सब-एडीटर, यही मेरा पहला पोस्ट था। तनख़्वाह, दस हज़ार। साथ में ऑफ़िस टाईम में लंच-डिनर मुफ्त। एक बैचलर को और क्या चाहिए था। झटपट हामी भर दी। अगले ही दिन छात्र से नौकरीपेशा इंसान बन गया। घर में, दफ़्तर के रास्ते में यहाँ तक की दफ्तर में भी एक ही खयाल आता। दस हज़ार.....बाप रे बाप, सौ-सौ के सौ नोट। क्या करूंगा इतने पैसों का? दिल में सूकून मिलता कि चलो किसी सरकारी दफ़्तर के बाबू से ज्याद टेक होम होगा। माँ की बात भी याद आती जो उसने संस्थान में दाख़िला लेते वक्त कहा था। "कहाँ जाओगे दिल्ली, तुम्हारा ऐकेडमिक रिकार्ड शानदार रहा है। तैयारी करो, लल्लू मामा की तरह आईएएस बन जाओगे। इज़्जत, शोहरत, आराम और पैसा, सबकुछ तो मिलेगा।" सोचा इज्ज़त और पैसा तो मिल गया। बाकि बचा शोहरत और आराम, उसे भी धीरे-धीरे तालाश लाउंगा।
दफ़्तर से पहले दिन निकला तो दिमाग में एक ही बात चल रही थी। चलो दस हज़ार (भागा /) तीस बराबर तीन सौ तैंतीस रूपए की दिहाड़ी तो आज बन गई। रोज़ उस तीन सौ तैंतीस रूपए में और उतना ही जोड़ता जाता। करते-करते तीस तारीख़ आ गई। तीस तारीख़ के बाद एक। इस एक तारीख़ का महत्व नौकरीपेशा के लिए क्या होता है, वो और कोई नहीं जान सकता। सुबह-सुबह ही एसएमएस आ गया। "योर एकांउट हैज़ बिन क्रेडिटेड विद् रूपीज़ टेन थाउजेंड ओनली"। बांछे शरीर में जहाँ भी होती हों खिल गई। भगवान का एसएमएस आया था। देवदूत ने संदेश भेजा था। दस हज़ार....इतना रूपया।
नींद टूट चुकी थी। खुली आँखों से ही सपने बुनने लगा था। रिबॉक का जूता, वैन ह्यूसेन का शर्ट, दो-चार मंहगी क़िताबें, माँ के लिए साड़ी, पिताजी के लिए शॉल, संजीव के लिए पैंट, सुमित के लिए आई पॉड, दादी का चश्मा, दोस्त मैक डॉवेल से नहीं मानेंगे, उनके लिए चार बोतल सिवाश रीगल और भी बहुतों के लिए बहुत कुछ। कैलकुलेटर पर तेज़ी से अंगुलियां दौड़ रही थी। जोड़ने पर इच्छाओं के सामने दस हज़ार बौने पर रहे थे। ख़ैर दफ्तर जाते वक्त रास्ते में एटीएम नज़र आया। दस हज़ार का सुगंध पाने के लिए ऑटो से उतर गया। कार्ड को बार-बार अंदर घूसाता फिर निकाल लेता। स्क्रीन पर बार-बार लिखा मिलता......दस हज़ार, दस हज़ार। ओफ़....आनंद, धन्य, भाग्यवान, ख़ुशी आदि आदि...जितने भी बढ़िया शब्द होते हैं मेरे दिलो-दिमाग पर राज़ कर रहे थे। सच कहूं तो उस वक्त वॉरेन बफेट, बिल गेट्स सब मेरे दस हज़ार के सामने बौने नज़र आ रहे थे। अंबानी बंधुओं की औक़ात ही क्या थी। कार्ड को दस-बीस बार अंदर-बाहर करने के बावज़ूद उसमें से चौअन्नी भी नहीं निकाली। हाँ, बाहर कतार जरूर लग गई थी। एटीएम मशीन से निकलने वाले स्टेटमेंट उठा लाया था। दफ़्तर में स्टेटमेंट में छपे हुए दस हज़ार को देख-देख कर मंत्रमुग्ध होता रहा। लगा मानव योनि में जन्म सार्थक हो गया है। कर लो दुनिया मुट्ठी में। पर्स में एटीएम कार्ड रखकर रैंप के मॉडल की तरह शान से चलता था। सबको कर्ज़ देने को व्याकुल रहता। बात-बात में मुंह से एक ही बात निकलती थी। "पैसा चाहिए क्या?"।
उन दस हज़ार के मोह नें ऐसा जकड़ रखा था कि मैं रोज़ तकरीबन दस दिनों तक एटीएम ज़रूर जाता। लेकिन क्या मज़ाल की एक पैसा भी निकाल लूं। दस दिनों के बाद सौ रुपए निकाले थे। निकालने के बाद अफ़सोस भी हो रहा था। ओह...! टूट गया। नौ हज़ार नौ सौ। आज दोगुनी-तिगुनी सैलरी मिलती है। लेकिन वो ख़ुशी कहाँ, जो उस पहले दस हज़ार से हुई थी।
8 comments:
बहुत सही कहा.. मुझे पहली बार इंटर्नशिप में ही पैस मिला था.. लगभग 4800.. उतना खुमार पहली सैलरी में भी नहीं हो पाया था जो 15000 के आसपास था..
अनुभव बांटने के लिये धन्यवाद.. :)
पहली सैलरी का खुमार सचमुच ग़जब का होता है। इज़्जत, शोहरत, आराम और पैसा, सबकुछ मिलेगा। लगे रहें...
आपके वो दस हज़ार लाखों-करोड़ों पर भारी हैं। पहली तनख्वाह जिंदगी के सार्थक होने का एहसास भी करा जाती है। सपने रंगीन हो जाते है। मेरी पहली सैलरी ढ़ाई हजार थी। आज लगभग बीस गुना ज्यादा कमाता हूं। लेकिन पहली सैलरी की बात ही कुछ और थी।
बिल्कुल सही कह रहे हैं-पहली सेलरी की बात ही निराली है.
अपनी पहली पे-चेक याद आ गई। पाँच हज़ार तीन सौ पैसठ रुपए मात्र। अच्छा लगा।
सही है, अपने दस हजार को खर्च कर पाए की नहीं???? दुनिया भौतिकवादी है....बिन सैलरी सब सून।
Rightly said .............even i was very ecstatic with my first stipend of 3000.....was very happy dreaming about how will i invest those money.............but those dreams was shattered .............because you took away all those money and bought a "paua"
सत्य वचन....
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