बात बहुत पुरानी नहीं है, जब हमारे यहां अख़बार इस लिए जाने जाते थे कि उनके संपादकों का कद कितना बड़ा है। ब्रिटिश राज के वक्त तो कई सरकारी अख़बारों, जैसे टाइम्स ऑफ इंडिया और स्टेट्समैन के संपादकों को नाइटहुड की उपाधि तक से सम्मानित किया गया। आजादी के बाद भी अख़बारों के एडिटर को समाज में काफ़ी सम्मान प्राप्त था। फ्रेंक मोरेस, चलपति राव, कस्तूरी रंगन अयंगर, प्रेम भाटिया आदि नामों से पाठक भली भांति परिचित थे। अस्सी के दशक में टाइम्स ऑफ़ इंडिया के संपादक रहे दिलिप पदगांवकर का तो यहाँ तक कहना था कि देश में प्रधानमंत्री के बाद सबसे महत्वपूर्ण काम उन्हीं के ज़िम्मे है। सरकार के ग़लत नीतियों की सकारात्मक आलोचना विपक्ष से नहीं बल्कि इन्ही काबिल संपादकों के बदौलत होती थी।
लेकिन टेलीविजन के आते ही हालात बदलने लगे। जो चीजें टीवी के परदे पर दिखने लगी, उसे लोग पढ़ने की जहमत नहीं उठाना चाहते थे। संपादकीय पढ़ने वालों की तादाद घटती गई। अख़बारों के मालिकान यह सोचने लगे कि संपादक नाम का प्राणी तो बोझ है और उनके बिज़नेश मैनेज़र ही टेलीविजन की चुनौतियों का बेहतर ढ़ंग से सामना कर सकते हैं। जरूरत थी तो सिर्फ़ छड़हरी बदन वाली मॉडलों, गॉशिप, विंटेज वाईन और लज़ीज़ व्यंजनों से अख़बारी पन्नों को भर देने की। और इस फार्मूला को चार फ से परिभाषित किया गया - फिल्म, फैशन, फुड और फक द एडिटर (पता नहीं हिंदी में इसका मतलब क्या हो सकता है!)। अपने जमाने के कई मशहूर कलमकार (संपादक) चौथे फ यानि फक द एडिटर के शिकार हो गए। इनमें से कुछ के नाम काबिल-ए-गौर है - फ्रेंक मोरेस (द नेशनल स्टैंडर्ड जो बाद में इंडियन एक्सप्रेस बना), गिरिलाल जैन (टाइम्स ऑफ इंडिया), बी जी वर्गिज़ ( मैग्सेसे पुरस्कार विजेता - टाइम्स ऑफ इंडिया), अरुण शौरी (इंडियन एक्सप्रेस), विनोद मेहता (वर्तमान संपादक ऑउटलुक), इंदर मलहोत्रा (टाइम्स ऑफ इंडिया), प्रेम शंकर झा (हिंदुस्तान टाईम्स)। आज अगर आप पूछें कि टाइम्स ऑफ इंडिया, हिंदुस्तान टाईम्स या फिर टेलिग्राफ के संपादक कौन हैं, दस में से नौ लोग शायद न बता पाएं। दिलिप पदगांवकर.....ये कौन है?
दरअसल,भारतीय पत्रकारिता की यह विडंबना है कि यहाँ मालिकान संपादक से ज्यादा अहमियत रखते हैं। पैसा, प्रतिभा पर भारी पड़ती है। पैसे के इस खेल में सबसे ताजा उदाहरण एम जे अकबर का दुर्भाग्यापुर्ण तरीके से एशियन ऐज़ से निकाला जाना है। अकबर, शायद जुझारू पत्रकारीय विरादरी के सबसे काबिल सदस्य हैं। उन्होंने कलकत्ता से निकलने वाले आनंद बाजार पत्रिका ग्रुप के सहयोग से संडे और टेलिग्राफ जैसी नामी अख़बार निकाला था। वे लोक सभा के लिए भी चुने गए और तक़रीबन आधे दर्जन किताबों के लेखक भी रहे हैं। पंद्रह साल पहले अपने कुछ मित्रों के साथ मिलकर उन्होंने द एशियन एज का प्रकाशन शुरु किया था। यह एक कठिन कार्य था और अकबर ने इसे बख़ूबी से अंजाम दिया। एशियन एज़ भारत के लगभग हर मेट्रो से साथ ही लंदन से भी छपने लगा। इस अख़बार में नाम मात्र का विज्ञापन होता था लेकिन पठनीय सामग्री काफी मात्रा में थी-जो नामी ब्रिटिश और अमरीकन अखबारों से भी ली जाती थी।कुल मिलाकर यह एक मुकम्मल अखबार था।इसके आलावा, इसमें ऐसे भी लेख छपते थे जो हुक्मरानों को नागवार गुजरते थे।और शायद यहीं वजह थी जिसने अखबार में अकबर के व्यवसायिक पार्टनर को नाराज कर दिया, क्योंकि इससे उनकी राजनीतिक आकांक्षा को ठेस पहुंच रही थी।बस फिर क्या था-बिना किसी चेतावनी के ही अकबर को एशियन एज के मुख्य संपादक के पद से हटा दिया गया ।पैसे ने एक बार फिर से अपना नग्न और घिनौना चेहरा सामने दिखा दिया। यह कहना अभी मुश्किल है कि बदले में अब अकबर उस आदमी के साथ क्या करेंगे जिन्होने उनके और पत्रकारिता दोनों के साथ बड़े ही अपमानजनक व्यवहार किया। लेकिन अकबर को यह वाकया लंबे समय तक जरुर सालता रहेगा। वो अभी सिर्फ सत्तावन साल के हैं और न तो किसी घटना को भूलते हैं न ही अपने विरोधियों को माफ करते हैं।
जब मैं इलिस्ट्रेटेड वीकली का संपादन कर रहा था तब अकबर उस छोटी सी टीम का हिस्सा थे जिसकी मदद से इलिस्ट्रेटेड वीकली का प्रसार 6,000 से बढ़कर 400,000 तक जा पहुंचा था। यह कितनी बड़ी बिडंवना है कि मुझे भी उसी तरीके से उस पत्रिका से निकाल दिया गया जिस तरीके से अकबर को इस साल एशियन एज से। तब तक टाइम्स ऑफ इंडिया समेत बेनेट कोलमेन के तमाम प्रकाशनों का मालिकाना हक सरकार द्वारा जैन परिवार को सौंपा जा चुका था। ज्योंही जैन परिवार ने कमान अपने हाथ में ली, उन्होने मेरे काम में अड़ंगा डालना शुरु कर दिया। मेरे करार को खत्म कर दिया गया और मेरे उत्तराधिकारी की घोषणा कर दी गई। मुझे एक सप्ताह के भीतर इलिस्ट्रेटेड वीकली छोड़ देना था। मैंने वीकली के लिए भारी मन से भावुक होकर अपना आखिरी लेख लिखा और पत्रिका के भविष्य की सुखद कामना की। लेकिन वो कभी नहीं छपा। जब मैं सुबह अपने ऑफिस में आया तो मुझे एक चिट्ठी थमा दी गई और तत्काल चले जाने को कहा गया। मैंने अपना छाता लिया और घर वापस आ गया। मुझे बड़े ही घटिया तरीके से ज़लील किया गया। यह अभी भी रह-रह कर मुझे परेशान करता है। जैन परिवार द्वारा किया गया वह अपमान मैं आज तक नहीं भूल पाया हूं। आज भी मेरे सम्मान में जब कोई समारोह होता है-भले ही उसकी अध्यक्षता अमिताभ बच्चन, महारानी गायत्री देवी या खुद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ही क्यों न करें-उसकी रिपोर्ट तो टाइम्स ऑफ इंडिया में छपती है लेकिन उसमें न तो मेरा फोटो छपता है न ही नाम होता है।और यह उदाहरण साबित करता है कि पैसा और सत्ता के मद में चूर छोटे दिमाग बाले आदमी कैसे हो सकते हैं।
खुशवंत सिंह
8 comments:
शुक्रिया! इसे पढ़वाने के लिये।
"...उसकी रिपोर्ट तो टाइम्स ऑफ इंडिया में छपती है लेकिन उसमें न तो मेरा फोटो छपता है न ही नाम होता है।.."
प्रतिस्पर्धी पेपर हिनदुस्तान टाइम्स के नियमित स्तंभकार का फोटू टाइम्स ऑफ इंडिया वाले भला क्यों छापने लगे...!
बहुत अच्छा लेख. काफी कुछ पता लगा इसे पढ़कर
शुक्रिया
आपसे गुजारिश है कि अपने ब्लाग को फायरफाक्स पर देखे जाने लायक बनायें. अभी ये केवल इंटरनेट एक्सप्लोरर पर ही दिख रहा है
राजीव..अापने इस लेख को अपने ब्लाग पर डाल कर कितना बड़ा काम किया है शायद आपको अंदाजा नहीं है..सचमुच अगर खुशवत सिंह और एम जे अकबर के साथ ऐसा हो सकता है तो फिर बेचारे नए पत्रकारों की औकात ही क्या है। आपसे गुजारिश है कि आगे भी आप इस तरह के छुपे हुए किस्से उजागर करते रहें....
एक अच््छे संस््मरण को सही ढंग से पढवाने के लिए धन््यवाद....
राजीव भैया, बाप बड़ा न भैया, सबसे बड़ा रुपैया....अब धनपशुओं के सामने बिचारे एडिटरों की क्यो औकात।
रोचक!
इतने महान पत्रकार का ऐसा अपमान। विश्वास नहीं हो रहा है। अपने क़िताब ट्रूथ,लव एंड लिटिल मैलिस में भी खुशवंत सिंह ने इस घटना की बानगी लिखी है। बाकई शर्मनाक घटना...
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