Sunday, April 20, 2008

नक्सल 'क्रांति' या चंदा का धंधा....!

किसी भी 'क्रांति' के लिए पैसा उगाहना बच्चों का खेल नहीं है। अगर यह क्रांति लोकतांत्रिक सरकार के ख़िलाफ और भूमिगत हो तो यह काम और भी मुश्किल हो जाता है। लेकिन भारत में माओवादियों या नक्सलियों के लिए स्थिती थोड़ी अनुकूल है। नक्सलियों का मानना है कि उनका विद्रोह समाज में वंचितों और उपेक्षितों के समर्थन में है, इसलिए उन्हें धनी लोगों का समर्थन प्राप्त नहीं है। इन सब के बावजूद नक्सली अपने आंदोलन को बढ़ाने के लिए अच्छा खासा रकम जमा कर लेते हैं। हाल में प्रकाशित एक मीडिया रिपोर्ट की मानें तो यह रकम सलाना एक हज़ार से पंद्रह सौ करोड़ के बीच कुछ भी हो सकता है। यह सचमुच प्रभावित करने वाली बात है।


अब सहज रूप से सवाल यह उठता है कि - यह कैसे संभव हो सकता है? आख़िर कहाँ से नक्सली इतना भारी रकम इकट्ठा कर लेते हैं? दरअसल नक्सलियों के धन उगाही के मुख्य स्रोत वे लोग हैं जिनके पास उनकी पहुंच है और जिनके पास काले धन की भरमार है। नक्सलियों का भय इन्हें पैसा देने पर मज़बूर कर देता है। इनमें छोटे-बड़े राजनेता, भ्रष्ट अधिकारी, व्यापारी, बड़े ज़मींदार सब हैं। इसके अलावा चंदा और सहानुभूति से भी ये अच्छी खासी रकम इकट्ठा कर लेते हैं।


नक्सलियों का अपना संविधान भी है जो 2004 में सीपीएम के स्थापना दिवस के दिन जारी किया गया था। इसके अनुसार प्रत्येक कैडर को सलाना दस रूपए अभिदान के रूप में देना होता है। इसके इतर कुछ ऐसे भी नक्सली हैं जो रोज़गार से जुड़े हैं। ऐसे लोगों को अपने कमाई का कुछ हिस्सा पार्टी को देना होता है। मसलन 2001 में उड़ीसा के बांस काटने वाले मजदूर अपनी कमाई में से पाँच रूपया रोज़ सहायता राशि के रूप में विद्रोहियों को देते थे। इसी प्रकार केंदू, बीड़ी पत्तों को उगाने या इकट्ठा करने वाले गरीब आदिवासियों भी नक्सल आंदोलन को बढ़ाने में अपना आर्थिक सहयोग देते रहे हैं। और दें भी क्यों न। नक्सली नेताओं नें इन मजदूरों को संगठित कर ठेकेदारों के ख़िलाफ संघर्ष करना सिखाया। सरकार से संघर्ष कर इनके लिए न्यूनतम मजदूरी तय करवाई। लाजमी है कि नक्सलियों के लिए मजदूरों के दिल में सहानुभूति हो। बीड़ी पत्तों के ठेकेदारों से भी नक्सल पैसों की उगाही करते हैं। बल्कि उनके आय का सबसे बड़ा साधन यही ठेकेदार हैं।


सरकारी ठेकों से भी नक्सली काफ़ी धन इकट्ठा कर लेते हैं। ठेकेदारों को ठेका मिलने के एवज कुल रकम का दो से बीस फ़ीसदी तक नक्सलियों को देना होता है। पुलिस कि मानें तो 2001 में आंध्र प्रेदेश के एक काग़ज मिल नक्सलियों के डर से हर महीने उन्हें पचास लाख रूपए देता था। राजनेता भी नक्सलियों को धन मुहैया कराते हैं। फिर वो राजनेता किसी भी पार्टी या विचारधारा के क्यों न हों। नक्सल प्रभावित एक राज्य के गृह मंत्री को अपने क्षेत्र से चुनाव जीतने के लिए नकस्लियों को बड़ी रकम देनी पड़ी थी। कहानी यहीं खत्म नहीं होती है। एक वरिष्ट खुफिया अधिकारी की मानें तो एक रोजनेता जो बाद में केंद्र के कैबिनेट में मंत्री बना, चुनाव जीतने के लिए नक्सलों को सत्रह लाख रुपए दिए थे।

राँची से प्रकाशित होने वाली प्रभात ख़बर के प्रधान संपादक हरिवंश जी की बातों पर यकीन करें तो 2005 में नक्सलियों ने सीमित संख्या में बुकलेट निकाला था। उस बुकलेट में विस्तार से नक्सलियों को चंदा देने वाले लोगों के नाम थे। ये बातें कहीं न कहीं सोचने को विवश तो करती ही हैं, कि कहीं नक्सल आंदोलन फलता-फूलता धंधा तो नहीं बन गया है!!!!!!

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