दफ़्तर सातवीं मंज़िल पर है। पता नहीं क्युं ऐसा लगता है कि, वहां से बादल कुछ नज़दीक दिखते हैं। उन्हें छू लेने की ख़्वाहिश भी होती है, लेकिन छू नहीं पाता हूं। काले शीशे के अंदर से सिर्फ़ बैठे-बैठे निहारने की गुंजाईश है। बारिश से पहले आंधी यहाँ भी आती है। धूल के गुबार अपनी श़रारतों से बारिश को उकसाती भी है। कहती है मेरी बेचैनी कब तक अनदेखी करती रहोगी वर्षा रानी। अब तो बरसो....ख़ूब झमाझम बरसो। अब बारिश-आंधी के इस खेल को सिर्फ़ देख कर खु़श हो लेता हूं। मेरी महत्वकांक्षाओं ने इस खेल से मुझे वर्षों पहले ही आउट कर दिया है।
ख़बर थी कि पिछले 108 सालों का रिकॉर्ड तोड़ते हुए मानसून निर्धारित समय पहले ही दिल्ली धमक गई। यह बात कुछ साल पहले सुकून देती, लेकिन अब नहीं। अब चिंता होती है.....दफ़्तर कैसे जाउंगा? शहर में डेंगु फैलेगी, कपड़े कहां सूखेंगे। गाँव की याद भी आती है। पता नहीं दादियों-नानियों को आँधी-बारिश की आहट पहले ही कैसे हो जाती थी। गर्मी छुट्टी अक्सर गाँव में ही बीतती थी। पुरखों का लगाया हुआ एक बड़ा सा आम बागीचा भी है। चालीस-पचास बड़े-बड़े पेड़ होंगे। कुछ पिताजी ने भी बाद में लगया। आँधी आते ही शहरों में बच्चे अपने-अपने घरों में दुबक जाते हैं। लेकिन गाँव में दादी टार्च लेकर मुस्तैद हो जाती। अंधर में जैसे ही पेड़ झूमने लगते, हम बच्चे टोकरी लेकर दादी के पीछे-पीछे बागीचे में पहुंच जाते। धीरे-धीरे पूरा गाँव अपने-अपने बागिचों में सिमट आता। सिर्फ़ बहुएं नहीं आतीं। बच्चों में कंप्टीशन लग जाता था। कौन ज्यादा आम चुन सकता है। दादी टार्च की रोशनी से बताते रहती, यहाँ है, इधर भी है, उसको क्यो छोड़ा। छोटा भाई, लाठी लेकर शरहद की निगरानी करता। कोई बच्चा ग़लती से भी हमारे बागिचे में आ जाए तो उसकी धुनाई निश्चित थी। कभी-कभी झगड़ा बढ़ जाता तो दादी भी समर्थन में कूद जाती थी। बच्चे तो साईड हो जाते, फिर दादियों में भिड़ंत होता। बच्चे अगले दिन फिर साथ-साथ खेलने लग जाते, लेकिन दादियों का मनमुटाव दो-तीन महीने तक तो कंटीन्यू रहता ही था।
बारिश के बाद सोंधी मिट्टी देने वाली मिट्टी कादो-कीचड़ में बदल जाती। एक ओसारा से दूसरे ओसारा पर जाने के लिए चाचाजी आंगन में ईंट बिछा देते थे। हम बच्चे इंतज़ार में रहते कि कोई पिताजी को बुला कर ले जाए। पिताजी के जाते ही पता नहीं कहां से पूरे शरीर में अजीब सी उर्जा़ का संचरण हो जाता था। अगल-बगल के हमउम्र लड़कों के साथ मैं गलियारे में फिसला-फिसली खेलने लगता था। छोटा भाई संजीव का अपना शगल था। वो नारियल तेल के खाली डिब्बे में बारिश के बाद आंगन में निकल आए पिल्लुओं (केंचुओं) को जमा करने में व्यस्त हो जाता। उसके बाद छुपा कर रखे गए बंशी (मछली पकरने वाला देशी यंत्र) लेकर घर के पीछे गड्ढे में जमा हुए पानी में मछली मारने निकल जाता था। आज तक कभी मछली पकड़ पाया कि नहीं...पता नहीं। शाम को घर लौटने तक पूरा पैर मिट्टी में सना होता था। कपड़े भी गंदे हो गए होते हैं। फिर माँ की डांट और दादी का प्यार। पिताजी डांट-फटकार तो नहीं करते, हाँ यह जरूर कहते कि गाँव में सिर्फ मौज ही होगा क्या??? हॉलिडे होम वर्क भी कर लिया करो। आंगन में घुसने से पहले नल पर रगड़-रगड़ कर नहाना भी होता था। रात के खाने के बाद पड़ोस के दोस्त भी साथ में सोने मेरे घर आ जाते। देर रात तक बातें चलतीं, 'आज मनोजवा फील्ड में कैसे भद्द- भद्द गिर रहा था रे, मुन्ना?' हा...हा...हा......।
ख़बर थी कि पिछले 108 सालों का रिकॉर्ड तोड़ते हुए मानसून निर्धारित समय पहले ही दिल्ली धमक गई। यह बात कुछ साल पहले सुकून देती, लेकिन अब नहीं। अब चिंता होती है.....दफ़्तर कैसे जाउंगा? शहर में डेंगु फैलेगी, कपड़े कहां सूखेंगे। गाँव की याद भी आती है। पता नहीं दादियों-नानियों को आँधी-बारिश की आहट पहले ही कैसे हो जाती थी। गर्मी छुट्टी अक्सर गाँव में ही बीतती थी। पुरखों का लगाया हुआ एक बड़ा सा आम बागीचा भी है। चालीस-पचास बड़े-बड़े पेड़ होंगे। कुछ पिताजी ने भी बाद में लगया। आँधी आते ही शहरों में बच्चे अपने-अपने घरों में दुबक जाते हैं। लेकिन गाँव में दादी टार्च लेकर मुस्तैद हो जाती। अंधर में जैसे ही पेड़ झूमने लगते, हम बच्चे टोकरी लेकर दादी के पीछे-पीछे बागीचे में पहुंच जाते। धीरे-धीरे पूरा गाँव अपने-अपने बागिचों में सिमट आता। सिर्फ़ बहुएं नहीं आतीं। बच्चों में कंप्टीशन लग जाता था। कौन ज्यादा आम चुन सकता है। दादी टार्च की रोशनी से बताते रहती, यहाँ है, इधर भी है, उसको क्यो छोड़ा। छोटा भाई, लाठी लेकर शरहद की निगरानी करता। कोई बच्चा ग़लती से भी हमारे बागिचे में आ जाए तो उसकी धुनाई निश्चित थी। कभी-कभी झगड़ा बढ़ जाता तो दादी भी समर्थन में कूद जाती थी। बच्चे तो साईड हो जाते, फिर दादियों में भिड़ंत होता। बच्चे अगले दिन फिर साथ-साथ खेलने लग जाते, लेकिन दादियों का मनमुटाव दो-तीन महीने तक तो कंटीन्यू रहता ही था।
बारिश के बाद सोंधी मिट्टी देने वाली मिट्टी कादो-कीचड़ में बदल जाती। एक ओसारा से दूसरे ओसारा पर जाने के लिए चाचाजी आंगन में ईंट बिछा देते थे। हम बच्चे इंतज़ार में रहते कि कोई पिताजी को बुला कर ले जाए। पिताजी के जाते ही पता नहीं कहां से पूरे शरीर में अजीब सी उर्जा़ का संचरण हो जाता था। अगल-बगल के हमउम्र लड़कों के साथ मैं गलियारे में फिसला-फिसली खेलने लगता था। छोटा भाई संजीव का अपना शगल था। वो नारियल तेल के खाली डिब्बे में बारिश के बाद आंगन में निकल आए पिल्लुओं (केंचुओं) को जमा करने में व्यस्त हो जाता। उसके बाद छुपा कर रखे गए बंशी (मछली पकरने वाला देशी यंत्र) लेकर घर के पीछे गड्ढे में जमा हुए पानी में मछली मारने निकल जाता था। आज तक कभी मछली पकड़ पाया कि नहीं...पता नहीं। शाम को घर लौटने तक पूरा पैर मिट्टी में सना होता था। कपड़े भी गंदे हो गए होते हैं। फिर माँ की डांट और दादी का प्यार। पिताजी डांट-फटकार तो नहीं करते, हाँ यह जरूर कहते कि गाँव में सिर्फ मौज ही होगा क्या??? हॉलिडे होम वर्क भी कर लिया करो। आंगन में घुसने से पहले नल पर रगड़-रगड़ कर नहाना भी होता था। रात के खाने के बाद पड़ोस के दोस्त भी साथ में सोने मेरे घर आ जाते। देर रात तक बातें चलतीं, 'आज मनोजवा फील्ड में कैसे भद्द- भद्द गिर रहा था रे, मुन्ना?' हा...हा...हा......।
3 comments:
आपके संस्मरण में मैं भी भींग गया।
वाह!! गांव, बारिश-बहुत सुन्दरता से इमानदार शब्दों में बांधा है अपनी यादों को.
बहुत बढ़िया.
गाँव-बारिश की यादों को ताजा करने का अंदाज अच्छा लगा।
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