अभी कुछ दिनों से विदेशी फ़िल्में देख रहा हूं। इसी क्रम में एफटीटीआई पुणे में पढ़ रहे एक मित्र ने ईरानी फिल्मकार माज़िद मज़ीदी की फ़िल्म बच्चे-ये-आसेमान की सीडी भेज दी। कई दिनों तक टालमटोल करने के बाद कल आख़िरकार उसे देख ही लिया। देखने को बाद अफसोस हो रहा था कि मैंने इसे फ़िल्म पहले क्यों नहीं देखी। यह भी पता चल गया कि ईरानी फ़िल्में किसी भी रूप में हॉलीवुड या जापानी फिल्मों से पीछे नहीं हैं। हलांकि फ़िल्म ईरानी भाषा में थी लेकिन नीचे अंग्रेज़ी ट्रांसलेशन भी आ रहा था।
बच्चे-ये-आसेमान आर्थिक रूप से तंगहाल परिवार के दो बच्चों की कहानी है। जहरा और अली। मां बिमार रहती है और पिता किसी तरह परिवार के लिए दोनों वक्त की रोटी का इंतजाम कर पाते हैं। गरीबी नें इन बच्चों के दिल को और भी उदार बना दिया है। अली अपने छोटी बहन ज़हरा के जूतों को मरम्मत कराने मोची के यहाँ जाता है। घर लौटते वक्त अली सब्जी ख़रीदने के लिए मंडी में रुक जाता है। तभी वहाँ से एक अंधा रद्दी बटोरने वाला गुज़रता है और ग़लती से वो जूतों को अपने साथ ले कर चला जाता है। दरअसल फ़िल्म की कहानी यहीं से शुरु होती है। अली जूतों को खोजने का बहुत प्रयास करता है लेकिन सब व्यर्थ। उसे जूता कहीं नहीं मिला। थक हार कर अली घर वापस लौट आता है। दिल में इस डर के साथ कि पापा को जूता गुम हो जाने की बात पता चल गई तो क्या होगा। पिटने का डर कुछ इतना कि दोनों भाई-बहन इस बात जिक्र भी एक दूसरे से चिट के माध्यम से करते हैं। पिटाई के डर से जाहिरा और अली फ़ैसला करते हैं कि इस बात को घर में किसी को न बताया जाए। नई जोड़ी ख़रीदने के लिए बच्चों के पास पैसे भी नहीं थे। ख़ैर दोनों ने मिलकर एक तरकीब निकाली। जाहरा का स्कूल मार्निग था और अली इवनिंग स्कूल में था। फैसला हुआ कि अली के जुतों को सुबह जाहिरा पहनेगी और उसके लौटने के बाद अली उसे पहन कर स्कूल जाएगा। पूरी फिल्म इसी असहज व्यवस्था और बच्चों का जूता पाने की जद्दोजहद के आसपास घूमती है। जूता अदला-बदली के चक्कर में बच्चे कई बार समस्याओं से रू-ब-रू होते हैं। फिर किसी तरह समस्याओं से निकल भी जाते हैं। एक बार स्कूल से लौटते वक्त उन्हें नाली में बहता हुआ एक पुराना जूता दिख जाता है। लेकिन कोशिशों के बावजूद भी वे उसे बहाव से बाहर नहीं निकाल पाते हैं। एक दिन जहरा को अपना जूता अपने सहेली के पैरों में दिख जाती है। बच्चे उसके पीछे-पीछे उसके घर तक भी जाते है। लेकिन हैं इतने भले हैं कि वो उससे जूता नहीं मांगते। न ही यह बताते हैं कि वो जूता जाहरा का है। यहाँ तक की एक बार अली दौड़ प्रतियोगिता में इसी उम्मीद में भाग लेता है कि थर्ड प्राईज़ में मिलने वाला जूता उसे मिल जाएगा। लेकिन अली रेस में प्रथम आ जाता है और जूता से महरूम रह जाता है। फ़िल्म के अंतिम दृष्यों में लगता है कि जहरा को अपना जूता नहीं मिल पाएगा। लेकिन तभी दूसरे शॉट में अली-जहरा के पिता साईकिल से आते दिखते हैं और उनके हाथ में दोनों बच्चों के लिए नए जूते होते हैं। अंतिम शॉट में अली के पैरों का क्लोज़-अप होता है जिसमें उसके पैरों पर उग आए फफोलों को दिखलाया गया है।
फ़िल्म की टाईटल अपने आप में अनूठी है। "बच्चे-ये-आसेमान - Children of Heaven"। अगर स्वर्ग वो जगह नहीं है जहाँ हमारी चाहत की सभी चीजें मिल जाएं। तो फिर वो कौन सी जगह है। फ़िल्म में कई घटनाएं होती है जो बतलाती हैं कि समुदायिक भावना बिमारी और ग़रीबी के साथ-साथ रह सकती हैं। उदारता और ईच्छा एक साथ गुजर कर सकते हैं। कहीं से सीडी जुगाड़ हो जाए तो फ़िल्म को जरूर देखिए। आप इसे यू-ट्यूब से भी डाउनलोड कर सकते हैं।
7 comments:
लिंक तो दो यू ट्यूब का भाई.
धन्हवाद आपको इतनी अच्छी कहानी सुनानेका, हम भी कोशिश करेगे कि फ़िल्म देखी जाये
राजीव जी; सीडी जुगाड़ होने का कोई तरीका बताईये!
मैं भी ईरानी फिल्मों का फैन हूं। पता नहीं यह कैसे मिस हो गया। कृप्या YOU TUBE लिंक पेस्ट कर दें।
Boss Link Pls...seems nice movie....
I have seen the film. Its touching, emotionally charged film detailing the life of 2 children & a poor family...Must watch for every movie freak.
मजीद मजीदी की फिल्म देखने का अलग ही नशा है | पहली बार इस फ़िल्म को मैंने अपने एक ईरानी दोस्त के साथ देखा था और उसके बाद दो बार अलग से देखी | उनकी एक और फ़िल्म है "The color of paradise" कभी मौका मिले तो देखियेगा |
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