Monday, September 3, 2007

२४०१ अप - पटना - नई दिल्ली मगध एक्सप्रेस

पटना जंक्शन

तय तो करो कि करोगे क्या?
साले महेन्द्रू में घूम कर लाईफ वेस्ट कर रहे हो। अभी तक बात किया कि नहीं, बात कर लो और जल्दी निकलो दिल्ली या बंगलोर। पापा से बात करनें में ज़्यादा ही हड़क रहे हो। साले कुछ नहीं होगा तुम्हारा, अबे ज़्यादा खरचा थोड़े ही होगा। शुरू-शुरू में घर से कुछ पैसा मंगवा लेना, और फिर धीरे - धीरे वहाँ कमाने भी तो लगोगे। बस हो गया सेटिंग। बहुत स्कोप है इन शहरों में। कर देना पैसा वापस पापा को! यहाँ क्या रखा है, वही शाम को भोपला के चाय के दुकान पर बैठकी लगाना, मौसम के हिसाब से बैट-बाल या फुटबाल मैच खेलना, सुबह को ट्यूशन जाना, जहाँ कुछ समझ में तो आता है नहीं। काँलेज में क्या होता है यह तुम भी समझते ही हो। है कि नहीं! मनु की यह बात हम तीनों दोस्तों को जँच गया। और जँचता भी क्यों नहीं, बात तो सौ फ़ीसदी सही है। पटना में रखा ही क्या है - आज़ादी से बियर भी नहीं पी सकते, सिगरेट घर से दस किलोमीटर दूर पीने पर भी धुएँ की गंध पिताजी के नाक में पहुँच जाती है। गर्ल फ़्रेंड कहाँ से आएगी पाकेट तो कंगाल है। हाँ कभी - कभी चमकाने के लिए पिताजी की गाड़ी मिल जाती है बस। गाड़ी में पेट्रोल भराने के लिए पैसा भी तो चाहिए न। मुझे, कुणाल और विवेक को मनु की बात भा गई। भाता भी क्यों नहीं मनु दोस्तों में सबसे सफ़ल जो था। आख़िर आईआईटी में सब का एडमिशन थोड़े हो जाता है, वो भी कंप्यूटर साइंस में। रात भर नींद नहीं आई। दो बार कुणाल को फ़ोन भी किया। भोरहरवा में हल्की सी नींद आई और सपने में आया गुमशुदा तालाश केंद्र, नई कोतवाली, दरियागंज। इसके अलावा दिल्ली में किसी और जगह के बारे में ज्यादा मालूम नहीं था। दिल्ली का मतलब हमारे लिए सिर्फ एक श़हर नहीं था। न ही भारत की राजधानी होने के कारण इस श़हर का हमारे लिए कोई विशेष अहमियत था। दिल्ली का मतलब हमारे लिए सपनों का सच होना था। पिताजी के तेज़ तर्रार नज़रो से आज़ादी थी। पड़ोसियों और रिश्तेदारों को कुछ कर दिखाने का एक मौका था। और यह मौका मैं हाथ से जाने नहीं देना चाहता था।
अगले दिन ही घर में विद्रोह का बिगुल फूंक दिया गया। पिताजी मार्निंग वाक करके आए तो माँ नें मेरे इस नए शौक के बारे में उन्हें इत्तला दे दिया। लेकिन विद्रोह की भावना इतनी प्रबल थी की पिताजी के मना करने पर लगा कि वो पैसा ख़र्च करने से डर रहे हैं। खै़र सुबह नाश्ते के वक्त मुझे पिताजी नें डायनिंग टेबल पर आमंत्रित किया। यह अपने आप में एक ऐतिहासिक घटना थी जिसका महत्व मेरे लिए कुछ-कुछ वैसा ही था जैसे भारत के लिए 1857 के विद्रोह या महमूद गज़नी का आक्रमण। पहले पाँच मिनट तक तो सिर्फ़ खाने की आवाज़ आती रही फिर पिताजी नें खरासते हुए पूछा - ये क्या पागलपन है? कोई कमी है क्या यहाँ पर? राज्य के सबसे अच्छे काँलेज में पढ़ते हो और फिर बिहार सरकार के नौकरी तो समझते ही हो कभी - कभी पाँच - छ: महीने तक तनख़्वाह नहीं मिलती है। और जिनको बनना होता है उनके लिए क्या दिल्ली और क्या पटना। लोग तो मधुबनी, नवादा या भागलपुर में भी रहकर आईएएस निकाल लेते हैं। लेकिन कहते हैं न "चोर सुने धर्म कथा"। पिताजी की बातें कोरी बकवास लग रही थी। लग रहा था राज्य के विकास के रुक जाने से सबसे ज़्यादा वही प्रभावित हुए हैं। लगा कि वो "आउट आफ द बाक्स" सोच ही नहीं सकते। वही रटे रटाए शब्द। मैंने जवाब में एक लब्ज़ नही कहाँ। अभी तक रिनेशा के आधुनिक सूत्रधार लगने वाले पिताजी एकाएक "बैकवर्ड" लगने लगे थे। लगा दिल्ली जाने वाली मगध एक्सप्रेस का टिकट मेरे हाथ से छूट जाएगा।
लेकिन अंग्रेज़ी में एक कहावत है न "फ्रेंड्स इन डीड इज़ फ्रेंड इंनडीड"। कहने का मतलब मुसीबत में दोस्त ही काम आते हैं। और दूरदर्शी मनु नें स्थिति के नाजुकता को समझते हुए पहले ही कांटिजेंसी प्लान बना रखा था। प्लान ये था कि पापा पैसा न दे तो घबराना नहीं, तुम्हारा मैथ और जीके तो चकाचक है ही न। ऐशे भी लिख लेते हो। सेटिंग में बैठ जाना। यानि एसएससी यूड़ीसी के एक्ज़ाम में दूसरे कंडीडेट के बदले बैठ जाना। सेंटर मैनेज़ हो जाएगा। एडवांस में पाँच हज़ार और कंडीडेट के पास हो जाने पर तीस हज़ार और। हो गया दिल्ली में छ: महीने रहने का जुगाड़। लेकिन काम में रिस्क था और मंजिल पर पहुँचते अपने कैरियर के लिए इस जोखिम को उठाने को मैं तैयार नहीं था। तभी गाँधी बाबा याद आए। बिहार में लोग गाँधी के दर्शन पर भले ही माओ के सत्ता परिवर्तन के तरीकों को अहमियत देते हों, लेकिन बापू के किए गए प्रयोगों को फिर से आज़माने में जरा भी पीछे नहीं रहते। सत्याग्रह - जी हाँ एनसीईआरटी के चैप्टरों में लिखा गया इस शब्द के ताक़त को आज़माने का मैंने भी फ़ैसला कर लिया। लेकिन अक्षरश: नहीं बल्कि अपने सुविधा और हालात की नाजुकता को मद्देनज़र रखते हुए। पहले मौन व्रत धारण किया फिर दोपहर और रात के खाने का त्याग। माँ नें मनाया लेकिन कैरियर ज़्यादा महत्वपुर्ण था। लगा कि अगर अन्न का एक दाना भी मुँह में गया तो कैरियर चौपट। गर्ल फ़्रेंड के लिए तो तरस ही जाउँगा और दिल्ली के पिज्ज़ा, बर्गर के फ़ोटो के दर्शन सिर्फ अख़बारों तक ही सिमट कर रह जाएगा। वही बंशी साव का ठंडा समोसा - जलेबी और बहुत कोशिश कर के चाउमिन तक ही पहूँच सकुंगा। कुणाल को अपने पिताजी को मनाने में विशेष दिक्कत नहीं हुई। पिताजी को इसलिए क्योंकि उन्हें ही राज़ी करना मुश्किल होता है। माँ प्राय: मान जाती हैं। कोई विशेष समस्या नहीं आती। हाँ विवेक के विचार पर उसके पिताजी के तर्क हावी रहे।
एक दिन, दो दिन और फिर आया तीसरा दिन। पिताजी समझ गए कि शायद न माने। शायद माँ से कहा भी होगा कि बेटा बड़ा हो गया है ज़िद करना ठीक नहीं होगा। उसी दिन एक स्टाफ को भेजकर दिल्ली के लिए दो टिकट रिज़र्व करवा लिया गया। मेरा और कुणाल का। साथ ही अपने सामर्थ्य के हिसाब से बेटे को विदा करने की तैयारी में लग गए। घर में काम वाली को नौकर से संदेश भिजवा दिया गया कि बेटा फलां दिन दिल्ली जाएगा। सो आकर ठेकुआ, निमकी बनाने में मदद कर दे। छोटे भाई का दोस्त दिल्ली में ही पढ़ता था और उसने फ़ोन करके आश्वस्त कर दिया कि भैया टेंशन नहीं कीजिए आप दिल्ली में मेरे साथ ही रह लीजिएगा। पूरा फ्लैट ही किराए पर ले रखा है। और अगर कोई समस्या लगे तो दूसरे रूम मे शिफ्ट करवा दूंगा। सोमवार का टिकट था। पिताजी नें छोटे भाई के हाथों छुट्टी का एप्लीकेशन आफ़िस भिजवा दिया और स्वयं ही मोर्चा संभाल लिया था। नौकर को भेजकर किराना वाले के यहाँ से दो-तीन कार्टन मंगवा लिए गए थे। दो में किताबें और एक में खाने-पीने का सामान ठूंस दिया गया। एक स्टील का बक्सा, जो शायद पिताजी को मेरे नानी घर से दहेज़ में मिला था और एक वीआईपी सुटकेश, जो शायद मिलिट्री कैंटीन से मँगवाया गया था। ट्रेन के प्रस्थान का समय शाम के पाँच बजे का था। जैसे-जैसे दिन बीत रहा था, माँ के आखों से आँसू भी उसी अनुपात में झर रहे थे। बीच-बीच में पिताजी कभी माँ को समझा आते थे और कभी डाँट भी देते थे। मैं शायद माँ के आँसुओं से बेतकल्लुफ़ था। मैं तो दिन भर दोस्तों के साथ व्यस्त रहा। दोस्त भी खुश थे कि चलो दिल्ली में उनका भी एक अड्डा हो जाएगा।
मिथिला पंचाँग देखकर घर से विदा होने का समय तीन बजे फिक्स किया गया। स्टेशन तक माँ-पिताजी के साथ-साथ दोस्त भी आए। ये वही दोस्त थे जो अब छूटने वाले थे। जो बचपन से जवानी की दहलीज़ तक साथ में कदमताल करते हुए चले थे। हाँ कभी-कभी फेल-पास होने पर कक्षा जरूर बदल जाती थी। इनमें से कुछ मित्रों को पिताजी नें लोफरों की श्रेणी में डाल रखा था। लेकिन मेरे लिए तो सिर्फ़ और सिर्फ़ दोस्त थे। घर से स्टेशन के बीच शहर के लगभग सभी सिनेमा हाल पड़ते हैं, जिनमें पता नहीं मैंने स्कूल या ट्यूशन में गच्चा मारकर कितनी फ़िल्में देखी होंगी। सब पीछे छूट रहा था। शायद उन्हें भी मलाल था किसी के जाने का! स्टेशन में प्रवेश से पहले माँ बक़ायदा महावीर मंदिर ले गईं। स्टेशन पर अपने टीआरपी का भी अंदाजा लगा। दो लोगों को विदा करने 25-30 का जमघट। स्टेशन पर छोड़ने वालों में भोपला भी था, जिसने मुफ़लिसी के दिनों में पता नहीं कितनी बार उधार का चाय-सिगरेट पिला कर दोस्तों और परिचितों के बीच मेरे प्रतिष्ठा को डिगने नहीं दिया था। अपने रिकार्ड को न छेड़ते हुए गाड़ी नियत समय से आधे घंटे लेट आई। कुछ अतिउत्साही सखाओं नें मेरा बर्थ खाली करवा दिया। कुछ तो मुगलसराय तक का जेनरल टिकट ले कर पहले से ही तैयार थे। मानना था कि वो मुझे उत्तर प्रदेश की सीमा में प्रवेश करा कर ही लौटेंगे। कुणाल भी थोड़ी देर में अपने लाव-लश्कर के साथ पहूँच गया। बोगी के सामने इतनी भीड़ की दिल्ली-मुंबई के बड़े-बड़े नेता तरस जाएँ। माँ बीच-बीच में हिदायत दे रहीं थी कि फलां कार्टन में ये है और बक्से में वो है। हाँ पिताजी गुमसुम थे। गाड़ी खुल चुकी थी। पटना छूट रहा था। पटना जं, पटना जं मध्य, पटना जं पश्चिम, फुलवारी शरीफ़, दानापूर, बिहटा, आरा, बक्सर........

क्रमश:.....






7 comments:

Unknown said...

बहुत बढ़िया राजीव भाई....ऐसे लग रहा है जैसे शायद आपने मेरे अतीत को आईने की तरह मेरे सामने उकेर दिया है। गज़ब, पिता -पुत्र के संबंध को नाश्ते के समय जिस तरह से आपने दिखाया है, मुझे नहीं लगता किसी भी बिहारी ने ऐसी स्थिति को कम-से-कम एक बार सामना न किया हो, जहाँ संवाद में भी संवादहीनता की सी स्थिति होती है।

लगे रहिए...... और गतांक से आगे रू-ब-रू होकर अपने अतीत को फिर से जीने की कामना के साथ.........यथेष्ट शुभकामनाएँ।

संदीप शर्मा

sushant jha said...

bhai..chhakka mar diya...kya baat hai..main sandip ji ki baat mein ek sudhar karna chahunga ki ye sirf bihari baap-bete ka sambaad nahi hai...poore hindustan ke adhikansh baap bete aise hi communication karte hai..lekin Rajiv ke kalam se etni fisalti huyi bhasha..khush bhi karti hai aur chaukati bhi hai...khush esliye ki..bhai ne shaydad pehali baar niji udgar byakta kiye hai...aur bhasa sadhi huyi hai..chaukati hai esliye ki bhai likhne mein bada aalsi tha..

Unknown said...

bahut bhadiya... haan yeh sare bharat ki baap bete ki samvad hi tha, shayad kahin bhasa alag rahe honge, shayad kahin drishyon ke kushilab (charecter) alag rahe honge, par bajaj ne scooter nehi, ek ubharti hui desh ko sapna becha tha, gati bechi thi, scooter ke pahiyon pe sawar sapna, sapna ek undekha nayi bhavisya ka, jo kahin age tha, us door ksitij se thoda door - pata nehi woh sapna kitno ke liye such hua par bharat ki manan mein woh door sadak pe jati hui scooter ki chabi, hamari man mei to humesha ke liye bas gaya hai aur aap ke?

Unknown said...

Doosri khist ke baad ki kahani kahan hai????

Unknown said...

It's just best!!!
u r amazing sir....
aise hi likhte rahiye..... :)

Geeta Sharma said...

commendable work Rajiv. I am proud of you. Its superb.

अविनाश वाचस्पति said...

किस्सागोई लगता है वो कला है
जिससे कटता नहीं किसी का गला है
होता सिर्फ भला ही भला है
जमे रहो भलाई में
क्या रखा है मलाई में।