Saturday, October 20, 2007

......नारे हैं नारों का क्या!


स्वाधीनता हमारा जन्म सिद्ध अधिकार है...सरफरोशी की तमन्ना.... अंग्रेजों भारत छोड़ो...तुम मुझे ख़ून दो.....दिल्ली चलो......चढ़ गुंडों की छाती पर......वोट पड़ेगा हाथी पर... नहीं तो लाश मिलेगी घाटी पर......!

चकरा गए न!!!! माफ़ कीजिए यह पिछले सौ सालों मे नारों को विकास का अगला चरण है और "सभ्यता" के विकास का भी। इन सालों में हम आजाद भी हुए, गणतंत्र भी बने और अब आर्थिक शक्ति बनने की ओर तेज़ी से अग्रसर हैं। इन वर्षों में देश की सामाजिक-आर्थिक हालात भी बदले और राजनीति का मिज़ाज़ भी। इन वर्षों में नारों ने भी एक लंबा सफ़र तय किया है। इन्हीं नारों के सहारे गोपालगंज के लालू, बिहार के गद्दी पर काबिज़ हुए, तो नारों नें ही वाजपेयी के फ़ील गुड की हवा भी निकाल कर उनके याददाश्त को संट कर दिया। तो चलिए मेरे साथ देश में "नारों" के इस अनोखे और दिलकश़ सफ़र पर।

आज़ादी मिलने के तुरंत बाद कम्युनिस्ट पार्टी नें भारत को आज़ाद मानने से ही इंकार कर दिया था। पार्टी नें 1948 में 'देश की जनता भूखी है - यह आज़ादी झूठी है' के नारे के साथ राष्ट्रव्यापी हड़ताल का आह्वान किया था। हड़ताल असफ़ल रहा और इस नारे की असफलता नें किसानो और मजदूरों के बीच कम्युनिस्टों के साख पर भी बट्टा लगा दिया।

1948 में प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के गठन के कुछ वर्षों बाद ही सोशलिस्ट पार्टी में विभाजन की प्रकिया शुरु हो गई। जय प्रकाश नारायण क्षुब्ध होकर भूदान आंदोलन में शामिल हो गए। डॉ लोहिया ने संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी (सं सो पा) नाम से एक अलग पार्टी बना लिया। पार्टी का नारा था "संसोपा ने बाँधी गाँठ....पिछड़ा पावे सौ में साठ"। वीपी मंडल ने 1978 में जब मंडल आयोग की रिपोर्ट पेश की, तो इस नारे की छाप कहीं न कहीं उसमें स्पष्ट थी। 1967 में जब दस राज्यों में पहली बार गैर काँग्रेसी सरकार बनी तो एक नारा आया था - "मधु लिमये बोल रहा है, इंदिरा शासन डोल रहा है"। लेकिन शासन डोलने से पहले ही इस रणनीति के सुत्रधार डाक्टर लोहिया स्वर्ग सिधार गए।

1970-71 में काँग्रेस नें 'गरीबी हटाओ' का नारा दिया। इस नारे का असर कुछ इतना व्यापक था कि इसने इंदिरा गाँधी को रातों-रात गरीबों का मसीहा बना दिया। मानो मैडम के राज में हिंदुस्तान अगले ही साल अमरीकी जीवन स्तर प्राप्त करने वाला था। न ऐसा हुआ, न ही ऐसा होने वाला था। जनता एक बार फिर से बेवकूफ़ बनी। 1971 में बांग्लादेश युद्ध में विजय के बाद इंदिरा गाँधी तो बाकौल वाजपेयी "चंडी" बन गई। चमचागिरी का नायाब नमूना पेश करते हुए काँग्रेसी नेता देव चंद बरूआ ने तो इंदिरा पुराण का पहला श्लोक ही लिख दिया - "काँग्रेस इज़ इंदिरा एंड इंदिरा इज़ इंडिया"

इंदिरा और संजय गाँधी के मनमानी के फलस्वरूप सत्तर के दशक में बड़े पैमाने पर आंदोलन हुए। छात्रों और युवाओं ने इसकी अगुआई की और इसके नेता बने डॉ. जय प्रकाश नारायण। उनके नेतृत्व में हुए छात्र आंदोलन से निकला नया नारा था, ‘संपूर्ण क्रांति अब नारा है, भावी इतिहास हमारा है।’ जेपी के विचारों ने उस समय छात्रों पर जादू का काम किया। छात्र आंदोलन ने ‘जन आंदोलन’ का रूप लेकर पूरे देश में तूफ़ान खड़ा कर दिया। इस आंदोलन का ही परिणाम था कि ’77 में कांग्रेस को दरकिनाकर कर सत्ता में जनता पार्टी की सरकार काबिज़ हो गयी। मजे की बात यह है कि इस आंदोलन से निकले तमाम बड़े नेता चोरों के सरदार साबित हुए और जनता की गाढ़ी कमाई को जातिवाद की चाशनी में लपेट कर वर्षों तक डकारते रहे। सिलसिला जारी है।

25 जून 1977 को इंदिरा गाँधी ने देश पर आपातकाल थोप दिया। भारतीय लोकतंत्र का गला घोंटा गया था वो भी नेहरू के बेटी के हाथों। वो नेहरू, जो लोकतंत्र के सबसे बड़े पैरोकार थे। इस घटना से विचलित होकर बाबा नागार्जुन ने एक कविता लिखी थी। 'इंदु जी, इंदु जी क्या हुआ आपको...सत्ता की मस्ती में भूल गयीं बाप को'। बाबा अपने कविता को और प्रभावशाली बनाने के लिए नुक्कड़-चौराहों पर नाचने भी लगते थे, और उन्हें सुनने के लिए दसियों हजार की भीड़ आती थी। लेकिन उस बेचारी भीड़ को क्या पता था कि साँप नाथ को हटाकर वो नाग नाथ को गद्दी सौंपने वाली है। आपातकाल के दौरान ही समाजवादियों नें एक और नारा गढ़ा था - "अंधकार में तीन प्रकाश- गाँधी, लोहिया, जयप्रकाश"। गाँधी और लोहिया तक तो ठीक थे लेकिन जयप्रकाश तब विवादों के घेरे में आ गए जब उन्होंने पुलिस और सेना को खुलेआम सरकार की अवमानना करने के लिए उकासाया था। जेपी के चेलों ने जबरन विधायकों को धमकाकर उनका इस्तीफा लिखवा लिया था। पूत के पाँव पालने में ही दिख गए थे।

आपातकाल के बाद जब सन् 1977 के चुनाव में कांग्रेस बुरी तरह हारी। यहां तक कि मैडम के ख़ुद का झुमका भी (राय) बरेली में गिर गया , संजय गांधी भी हार गए थे। मोरारजी भाई देसाई प्रधानमंत्री बने। जनता सरकार के विफलताओं में एक थी मँहगाई को नहीं रोक पाना। काँग्रेस नें तब नारा दिया था 'देखो भाई मोरारजी का खेल...दस रूपए हो गया कड़ुवा तेल'। यह नारा इस अंदाज़ में दिया गया था मानो काँग्रेस राज आते ही वो कड़ुआ तेल पाँच रुपए हो जाने वाला था! खैर, मैडम फिर 1978 में चिकमंगलूर से पुन: सांसद चुन ली गईं। इस चुनाव काँग्रेसियों ने नारा दिया - "एक शेरनी, सौ लंगूर - चिकमंगलूर, चिकमंगलूर"। और सही में मैडम शेरनी साबित हुईं और जनता सरकार लंगूरों का झुंड।

1977 में बनी जनता सरकार सिर्फ दो साल में भानुमती के कुनबे की तरह बिखर गई। 1979 में काँग्रेस के उकसावे में चौधरी चरण सिंह ने जनता सरकार से अपना समर्थन वापस ले लिया और काँग्रेस के समर्थन से अपनी सरकार बना ली। 1980 में काँग्रेस ने चरण सिंह सरकार को दिया अपना समर्थन वापस ले लिया और सरकार गिर गई। देश के सामने फिर से एक आम चुनाव था। इस चुनाव में जनता पार्टी के विफलताओं को भुनाते हुए काँग्रेस नें नया नारा दिया। 'सन् सतहत्तर की ललकार...अस्सी में इंदिरा सरकार'। इस जनता-ई महाभारत ने काँग्रेस के सारे पुराने पाप धो दिए और मैडम फिर से गद्दीनशीं हो गई।

31 अक्तुबर 1984 को इंदिरा गाँधी के दो अंगरक्षकों ने उनकी हत्या कर दी। काँग्रेसियों ने नया नारा दिया - "जब तक सूरज-चाँद रहेगा - इंदिरा तेरा नाम रहेगा"। अगले साल हुए आम चुनाव में पूरे हिंदुस्तान ने इस नारे को हाथों-हाथ लिया - कुछ इस अंदाज़ में कि सियासत के नौसिखुए राजीव गाँधी 415 सांसद लेकर पार्लियामेंट पहुंच गए। प्रधानमंत्री बनते ही उन्होंने सिख विरोधी दंगों की जलती घाव पर ये कहते हुए नमक छिड़क दिया कि "जब बड़ा पेड़ गिरता है तो छोटे पौधे कुचले ही जाते हैं"! ".......इंदिरा तेरा नाम रहेगा" की बाद में ऐसी दुर्गति हुई कि हर छुटभय्ये मोहल्ले लेवल के चोर उचक्के से नेता बने लोगों के मरने (या इंकाउंटर) के बाद उनके चेले इसे पंचम स्वर में गाने लगे।

3 दिसंबर 1989 को भाजपा और वामपंथियों के समर्थन से जनता दल के विश्वनाथ प्रताप सिंह प्रधानमंत्री बने। राजा मांडा के समर्थकों ने उस वक्त दो नारे इज़ाद किए थे। पहला - "राजा नहीं फकीर है - भारत की तकदीर है" और - "भारत का है एक नाथ - विश्वनाथ, विश्वनाथ"। उससे पहले बोफोर्स कांड में घिरे राजीव गाँधी पर राजा के समर्थकों ने बड़े ही व्यक्तिगत और विवादास्पद किस्म के नारे उछाले थे - "गली-गली में शोर है - राजीव गाँधी चोर है"। काँग्रेसियों ने इस नारे के जवाब में दहला जड़ा था - "चक्र नहीं यह चक्का है - वीपी सिंह उचक्का है"। नारों का यह दौड़ सचमुच राजनीतिक-सामाजिक जीवन का अवसान काल था जिसमें शिखर स्तर पर इस तरह के घटिया आरोप लगाए जा रहे थे। यह आने वाले समय की बानगी थी। अगले ही साल आडवाणी को बिहार के समस्तीपुर में रथ यात्रा के दौड़ान 23 अक्तूबर 1990 को लालू यादव नें गिरफ्तार करवा दिया और वीपी सरकार एक साल के अंदर ही शहीद हो गई। फिर काँग्रेस के समर्थन से चंद्रशेखर देश के प्रधानमंत्री बने। लेकिन उनकी सरकार भी मात्र 4 महीने ही चल पाई। देश ने फिर से एक आम चुनाव झेला। इस चुनाव में काँग्रेस ने इन पार्टियों का मज़ाक उड़ाते हुए कहा था -"अलग-अलग यह ताल देखिए - यह खिचड़ी सरकार देखिए, ताल नहीं है-मेल नहीं है, राजनीति कोई खेल नहीं है"। वहीं चंद्रशेखर की पार्टी ने अपने चार महीने के कार्यकाल के आधार पर - "चालीस साल बनाम चार महीने" के नारे के साथ चुनावी महासमर में छलांग लगाया था। इसी चुनाव में जनता दल का नारा था - "तानाशाही का पंजा हो - यहाँ ख़ूनी कमल का निशान, वोट हमारा कहाँ गिरेगा - जहाँ चक्र का है निशान"

देश की राजनीति तेज़ी से करवट बदल रही थी। मंडल और कमंडल का प्रभाव राजनीति पर बढ़ता ही चला गया। एक तरफ भाजपा और संघ ने नारा दिया - "हम कसम राम की खाते है, अब मंदिर वहीं बनाएंगे", "गर भारत में रहना हे तो बोलो वंदे मातरम्"। वहीं काँग्रेस का नारा था - "बापू हम शर्मिंदा हैं, तेरे कातिल जिंदा हैं"। नब्बे के दशक ने उत्तर भारत में पिछड़ों और दलितों का सियासत में बढ़ता हुआ दबदबा भी देखा और बसपा का मनुवादियों के ख़िलाफ अभियान ने तो मानो पूरे सामाजिक वातावरण को और विषाक्त कर दिया जिसकी शुरुआत मंडल से हुई थी। कांशीराम का नारा था - "तिलक, तराजू और तलवार - इनको मारो जूते चार"। साथ ही मायावती ने तो गाँधी को "शैतान की औलाद" तक कह दिया। उसी दौड़ में भाजपा का एक नारा था - "भारत माँ के तीन धरोहर, अटल, आडवाणी, मुरली मनोहर"। मानो देश की एक अरब जनता इन तीनों के सिवाय बेवकूफों और मूर्खों की भीड़ थी! समाजवादी पार्टी ने उसी दौड़ में एक नारा दिया था - "चलेगी साईकिल, उड़ेगी धूल, न रहेगा पंजा, न रहेगा फूल"

इस समय तक लालू यादव बिहार में पिछड़ों के मसीहा बन चुके थे। लालू के समर्थकों का नारा था - "जब तक रहेगा समोसे में आलू, तब तक रहेगा बिहार में लालू"। यह नारा तकरीबन डेढ़ दशक तक बिहार की हक़ीकत बना रहा। समोसे में आलू की तरह बिहार में लालू तो जम गए, लेकिन बिहार के विकास का महल, बालू की तरह ढ़ह गया। लालू का मिज़ाज तो इतना चढ़ गया कि चारणों ने नए नारे तक गढ़ लिए - "बहार हो, बरसात हो, गर्मी हो या ठंडा - लाल किले पर 15 अगस्त को लालू फहराएगा झंडा"। लालू जी लाल किले पर तो नहीं चढ़ पाए लेकिन चारा घोटाले नें उन्हे "लाल कोठी" जरूर दिखा दी।

1996 में जब वाजपेयी की तेरह दिनी सरकार शहीद हो गई तो भगवा बिग्रेड का नारा था - "राजतिलक की करो तैयारी, अबकी बारी अटल बिहारी"। संघियों का समानांतर नारा चल ही रहा था - "जो हिंदू हित की बात करेगा - वही देश पर राज करेगा"। भाजपाईयों ने नारा गढ़ने में सबको पीछे छोड़ दिया। जैसे - "चप्पा, चप्पा भाजपा और भाईयों, बहनों भूल न जाना - फूल छोड़ कर दूर न जाना"। भाजपा अनुप्रास-अलंकार की विशेषज्ञ बन गयी। आडवाणी के जुबान से 'भय, भूख और भ्रष्टाचार व शुचिता और सुशासन' फूल की तरह झड़ने लगे। ये बात अलग है कि बाद में तहलका से लेकर अन्य कई घोटालों ने 'पार्टी विद् डिफरेंस' की कलई खोल कर रख दी। प्रख्यात साहित्यकार राजेंद्र यादव ने तो भगवा पार्टी को भग-वा घोषित कर दिया!

2004 का आम चुनाव भाजपा ने "इंडिया शायनिंग" के खुशनुमा माहौल में लड़ा था। लेकिन जनता ने केसरिया पार्टी की निकर उतार दी। काँग्रेसियों ने नारा दिया - "पिछली बारी अटल बिहारी, अबकी बारी बहू हमारी"। पंजा का नया नारा था - "देश की आँधी, सोनिया गाँधी", "काँग्रेस का हाथ, आम आदमी के साथ"। लेकिन न तो सोनिया देश की आँधी बन पाईं और न ही पंजा गरीबों का हाथ, जैसा कि कालांतर में स्पष्ट हो गया। अलबत्ता काँग्रेस ने जोड़-तोड़ कर वामपंथियों के सहयोग से सरकार जरूर बना ली। अब, जब कि मँहगाई फिर से बढ़ रही है भगवा बिग्रेड काँग्रेस का मजाक उड़ा रही है - "काँग्रेस की लात, आम आदमी के साथ"। हाँ पिछले लोक सभा चुनाव में अमेठी में चुनाव प्रचार के दौड़ान काँग्रेसियों ने एक नारे को रामचरितमानस की तरह गाया था - "अमेठी की डंका - बेटी प्रियंका"। लेकिन लगता है बेटी को परमानेंनटली ससुराल भेज दिया गया है।

मजे की बात ये है कि इस बीच माया मेम साब के नेतृत्व में बसपाईयों ने सारे नारों की माँ-बहन एक कर दी। 2007 के विधान सभा चुनाव में तिलक-तराजू को जूते मारने वाले पार्टी ने चोला ही बदल लिया। बसपा का नया नारा था - "पंडित शंख बजाएगा, हाथी बढ़ता जाएगा""हाथी नहीं गणेश है, ब्रह्मा-विष्णु महेश है"। पंडितों ने तो और भी कमाल किया, उन्होंने दलितों के साथ सुरीली राग भैरवी गाई - "पत्थर रख लो छाती पर, वोट पड़ेगा हाथी पर"। यह अवसरवादी जातिवाद का नायाब नमूना था। शेर और बकरी एक ही घाट पर पानी पीने लगे।

इसी चुनाव में मथुरा विधानसभा क्षेत्र से एक प्रत्याशी ने तो गजब का नारा दिया। उसका नारा था- ‘आई ऐम नॉट द बेस्ट, बट आई ऐम द रिचेस्ट’ यानी मैं सबसे अच्छा प्रत्याशी नहीं हूँ लेकिन सबसे मालदार हूँ। उसका आशय था कि यदि उसे चुना गया तो वो आर्थिक गोलमाल नहीं करेगा। भाई साब अभी भी जनता को भोलेनाथ समझ रहे थे।

बहरहाल, एक महत्वपूर्ण नारा तो छूट ही गया। सरकार नें जब उच्च शिक्षा में आरक्षण लगाने की कोशिश की तो सवर्ण छात्रों ने नारा गढ़ने में जबर्दस्त "योग्यता" का परिचय दिया - "अर्जून नहीं यह कर्ज़न है - प्रतिभा का विसर्जन है".....................।

सिलसिला जारी है। मेरी जानकारी में ये कुछेक नारे थे। और भी कई होंगे.........आपको कुछ याद आ रहा है????

15 comments:

अनुनाद सिंह said...

वाह भाई, मजा आ गया। नारों के बहाने आजाद भारत का चुनावी इतिहास भी पढ़ा दिया।
प्रस्तुतीकरण और भाषा भी बहुत अच्छी लगी।

हाँ,इसके साथ ही नारों को अलग रंग में, या बोल्ड रखते तो पढ़ने में और मजा आता।

Poonam Misra said...

रोचक लेख ! नारे भी बता सकते हैं किसी समय का राजनीतिक माहौल .आशा है इस संकलन की और भी कडियाँ आएँगीं . शास्त्रीजी का "जय जवान जय किसान " मुझे याद है . उस समय की परिस्थितियों
में यह बड़ा प्रासंगिक था .

Unknown said...

बेहतरीन पोस्ट...इतने सारे नारे तो शायद ही किसी को याद हो। काफ़ी मेंहनत किया है आपने। देश के सामाजिक-राजनीतिक हालत को बयां करने का इससे बढ़िया तरीका शायद ही हो। आपके लेखन को रिफरेंस की तरह भी इस्तेमाल किया जा सकता है। और मनेरंजक तथा ज्ञानवर्धक त्थयों से परिचय करवाते रहें। अच्छा लगा।

Udan Tashtari said...

वाह, बहुत खूब एकत्रित किये हैं एक लम्बे राजनितिक सफर के नारे. आनन्द आ गया आपका प्रस्तुतिकरण देख कर. क्या क्या उतार चढ़ाव देखे हैं नारों के स्तर ने- आपकी पोस्ट से बखूबी देखा जा सकता है.

हमारे यहाँ एक मिश्र जी चुनाव लेड़ते थे, अच्छे मोटे और हमेशा पान खाते. विरोधियों का नारा था:

मिश्रा जी की क्या पहचान
पेट में बच्चा, मूँह में पान.

-बधाई इस बेहतरीन पोस्ट की.

sanjay said...

wah bhai saab! aapne to naro ke sahare jis tarah se bharat ke netao ke netagiri ko nanga kiya hai wah sabdo k sahare bayakt nahi kiya ja sakta yah sirf nara nahi hai balki esase yah jahir hota hai ki kis tarah se her samay naye naye naro ke sahare naye naye khel khele gaye hai,yah nare nahi hai balki yah wah danda hai jisase her bar neta janta ko bhaiys samaj ke mara hai, in naro ka sahara hai janta hamara pitara hai.

Unknown said...

नारे हैं नारों का क्या......वाह बॉस। बेहतरीन टाईटिल और पोस्ट में तो सूचना की बरसात है। आपके लेख नें पुराने नारों की याद तो दिला ही दिया है। इससे सबसे ज्यादा फायदा शहरों में रह रहे नए जेनरेशन को होगा जो फाईव स्टार कल्चर में पला-बढ़ा है। जिनका सियासत से कोई ताल्लुक है। आपके ब्लॉग को ब्लॉग की तरह नहीं लिया जा सकता है। काफी सोच-समझ कर टॉपिक उठाए गए हैं। पसंद आया।

Unknown said...

घायल कर दिया आपने। सटीक लिखा है। कहाँ से आईडिया लाते हैं? भारतीय राजनैतिक इतिहास का नारों के माध्यम से सफ़र करवाना कितना मुश्किल है, यह मैं समझ सकती हूं। लेकिन आपने विषय को काफी रोचक ढ़ग से उठाया और इसमें सफल भी रहे। लेख थोड़ा लंबा है, लेकिन इसे 500-1000 शब्दों में समाप्त कर देना पाठकों के साथ अन्याय होता। बधाई स्वीकार करें....।

Unknown said...

बेहतरीन विश्लेषण साथ ही समय के गति के सापेक्ष उन्हें पेश करने का ढ़ंग भा गया। आपके लेख "नारों" के माध्यम से राजनीति के अनवरत गिरते हुए स्तर की भी झांकी मिलती है। कटाक्ष सोचने पर भी विवश करते हैं कि क्या जिन्हें हम देश चलाने के लिए चुनते हैं वे स्वार्थ में इस कदर डूबे होते हैं।

अभय तिवारी said...

अच्छा है भाई राजीव.. आप लिखते रहें.. मेरी शुभकामनाएं..

Arti Singh said...

'ब्लॉग की दुनियां में शोर है
किस्सागोई का जोर हैं....'

'कुछ हल्का जो है बहुत गहरा,
कुछ जाना लेकिन है अनजाना
जब मन करें तब लूट लेना
ये है किस्सागोई का खजाना..'

बिना इतिहास की किताबों के,तुमने और सुशांत जी ने तो नारों के माध्यम से ही आजादी से लेकर अब तक का राजनीतिक सफर करवा दिया

Unknown said...

भई मज़ा आ गया। दिमागी कसरत भी हो गई। लिखते रहिए...भविष्य सुनहरा है ब्लॉगिंग का।

Unknown said...

लगता है आप ज़रुर किसी पार्टी से जुड़े हुए है। इतने नारे नेताओं के अलावा शायद ही कोई होगा जिसे याद हो। बेहतरीन कलेक्शन। सचमुच एक दिलकश यात्रा पर आप ले गए। साधुवाद...इंतजार रहेगा और भी लेखों का।

Unknown said...

सही है......पालीटिकल स्लोगन के माध्यम से आप ज्ञान बढ़ाने का काम कर रहे हैं।

मनीष said...

बेहतरीन लिखा आपने, बस मजा आ गया। ना तो आलेख में छिछलापन था और ना ही कहीं भटकाव। एक सुर में, माला की तरह सबकुछ गुथा नजर आया। राजनीति और इतिहास के घालमेल को पेश करने का ये काफी सटीक तरीका रहा। और सबसे बड़ी बात लोग ब्लाँग लिखते वक्त अक्सर रिसर्च करना भूल जाते हैं आपने ये गलती नहीं की।

अजित वडनेरकर said...

बढ़िया पोस्ट। मज़ा आ गया।