Sunday, January 13, 2008

संजीव कपूर से मिले हो?


हाल में घर(पटना) जाना हुआ। पटना ही घर लगता है। कई वर्षों से दिल्ली में रह रहा हूं। लेकिन यह शहर अभी तक घर नहीं बन पाया है। पता नहीं क्यों। पटना में कई पुराने दोस्त, परिचितों और रिश्तेदारों से मिला। दीदीयां, चाचीयां, भैया-भाभी। दिल्ली और नौकरी से संबंधित कई सवाल पूछे गए। कहाँ रहते हो? क्या करते हो? कितना मिलता है? न्यूज़ चैनल में काम करते हो! किन लोगों से मिले हो। तरह-तरह के सवालात। टेढ़े सवाल, उलटे सवाल। सीधे सवाल, उलझे सवाल। सवाल ही सवाल। क्रिकेट के शौकीन दोस्तों ने पूछा, कपिल देव से मिलते होगे। मुहल्ले की बहनों ने पूछा अभिषेक, अक्षय को तो देखा ही होगा। बड़े-बुजुर्गों ने राजनेताओं का राज पूछा। वहीं अविवाहित दोस्तो ने हिरोईनों के संबंध में इंक्वाईरी की। एक सवाल पिताजी का भी था - बाबा रामदेव तो स्टूडियो में आते ही होंगे न? सवालों के इस बरसात में एक सवाल माँ ने भी किया था। मैथिली में - "बौआ रे संजीव कपूर स भेंट होइ छौ कि?"। बेटा, संजीव कपूर से मिले हो क्या? चौंका....ठिठका। क्या संजीव कपूर! न...नहीं मिला। माँ के नज़रों से लगा कि बेटा किसी काम का नहीं है। सोचने को विवश हो गया। क्या संजीव कपूर, तरला दलाल देश में इतने महत्वपुर्ण हो गए हैं।

आठ-दस साल पहले ममेरे भाई ने होटल मैनेजमेंट का एंट्रेस एक्ज़ाम क्लियर किया था। काफी खुश था। लेकिन परिवार वालों ने उसके सपने पर यह कहते हुए पानी फेर दिया था कि पगला गया है क्या? आईएएस, डाक्टर, इंजीनियर बनो..."भनसिया" बन कर खानदान का नाक कटवाओगे। मामा-मामी को समझाने की कोशिश की गई, "स्वादिष्ट खाना बनाना कोई हँसी खेल नहीं है।" "इसीलिये भारतीय संस्कृति में इसे पाक कला कहा गया है अर्थात् खाना बनाना एक कला है।" और एडमिशन के बाद भाई इस कला में महारथ हासिल कर लेगा। लेकिन पारिवारिक प्रतिष्ठा भाई के इच्छा पर भारी पड़ी। भाई का एडमीशन पटना कॉलेज में करा दिया गया। बीए इकनॉमिक्स आनर्स। आज भी पटना में ही है। एमबीए की तैयारी कर रहा है।

लेकिन समय काफ़ी तेज़ी से बदला है। आज मेरे परिवार में ही दो-तीन बच्चे होटल मैनेजमेंट का कोर्स कर रहे हैं। जिंक्स टूट रहा है। और इसे तोड़ने का श्रेय कहीं न कहीं संजीव कपूर जैसे लोगों को जाता है, जिन्होंने 'बाबरची' को भी एक कैरियर के रूप में भारत में पहचान दिलवाई है।

1 comment:

sushant jha said...

गुरु बात तो सही है कि ये रसोइयों को ससुरा संजीव कपूर ही इज्जत दिलबाया है। अव तो चिकने-2 लोग भी आने लगे है इस पेशे में।अपन को भी लगता है कि माल कमाने के लिए जर्नलिज्म से बढियां ई खाना-खानसामा का ही काम था। तुमको बधाई हो कि तुमने इस कभी तुच्छ से समझे जाने बाले पेशे को अपनी बेहतरीन कलम की सेवा दी है।