Sunday, June 29, 2008

बिहार की कहानी - पवन के कुछ स्‍केचेज़

पवन नई पीढ़ी के उभरते हुए कार्टूनिस्ट हैं। पटना से ताल्लुक रखते हैं और पढ़ाई-लिखाई भी वहीं हुई है। पवन ने अपना पहला कार्टून बारह साल का उम्र में बनाया था। तब से आज तक उनकी कार्टून यात्रा बिहार के समाजिक-राजनीतिक हालात को अनवरत बयान करती आ रही है। फ़िलहाल दैनिक हिंन्दुस्तान के पटना संस्करण और बिहार टाईम्स से जुड़े हुए हैं। पवन ने अपने कार्टून के माध्यम से लालू यादव के हरेक मूड को पकड़ने की कोशिश की है, साथ ही कोशिश की है मीडिया और समाज के नब्ज को टटोलने की।








Friday, June 27, 2008

ब्लॉग मा बड़ी आग है.....

मीडिया के भविष्य पर विचार करने के बाद एक दिन सिर खुजलाते हुए खयाल आया कि क्यों न ब्लॉग के भविष्य में झांका जाए। माफ कीजिएगा मैं कोई भविस्यद्रष्टा या ज्योतिषी नहीं हूं लेकिन कुछ सपने थे, बल्कि हैं भी शायद जो मौजूदा वक्त से आगे जाकर देखने के लिए मजबूर करते हैं। अपने यहां ब्लॉगिंग अभी बचपने में ही है लेकिन कम समय में जिस तरह से ब्लॉगों की तादाद में इजाफा हुआ है उससे लगने लगा है कि ये जल्द ही जवान हो जाएगा। वो कहते हैं न पूत के पांव पालने में। सच है ब्लॉग की वर्चुअल दुनिया में न किसी नियम कायदे से बंधने का डर है, न किसी मठाधीश का भय। सबसे बड़ी बात तो ये कि यहां न किसी एडिटर का दबाव है और न ही सर्कुलेशन या टीआरपी का झंझट। लेकिन ब्लॉग की टीआरपी लगातार बढ़ रही है। संभावनाओं का विराट संसार खुल गया हैं। साथ ही कई चुनौतियों ने भी दस्तक दे दी है। इनमें सबसे बड़ी चुनौती है ब्लॉगों का कंटेंट और उनका नियंत्रण। हलांकि यह अभिव्यक्ति और संचार का स्वतंत्र और सशक्त माध्यम है और इसे किसी रेग्यूलेशन में जकड़ना उचित नहीं जान पड़ता है। लेकिन कुछ हद तक यह जरूरी भी है।

इंटरनेट की बड़ी पहुंच को देखते हुए ब्लॉगों का कंटेंट रेग्यूलेशन एक मुश्किल काम है। हो सकता है कि आने वाले समय में कोई रेग्यूलेटरी फ्रेमवर्क वजूद में आ जाए। लेकिन वास्तविक नियंत्रण ब्लॉगिंग क्म्यूनिटी को अपने अंदर से ही करना होगा। कुछ उसी तरह से जैसे प्रिंट मीडिया ने अपने लिए किया है। हरेक अख़बार का अपना एक पाठक वर्ग है। समय के साथ गंभीर ब्लॉग्स भी अपना एक पाठक वर्ग बना लेगा। बाकी सरवाईव कर पाएं, यह देखने वाली बात होगी। देश में अभी कुल चार लाख रजिस्टर्ड ब्लॉग्स हैं जिनमें सिर्फ चालीस हज़ार ही सक्रिय हैं। इसका सबसे बड़ा कारण है कि लगातार कंटेंट जेनरेट करना अपने आप में एक टेढ़ी खीर है। पढ़ने लायक सामग्री जेनरेट करते रहना तो उससे भी बड़ी चुनौती है। पोस्ट में कमी आई नहीं कि आप पाठकों के रडार से आउट हो गए। मुस्तकिल क्वालिटी लिखने वालों में भी कम ही ऐसे खुशनसीब हैं जिन्हें लगातार हिट्स मिलता है। सच यह भी है कि शायद ही कोई ऐसा ब्लॉगर हो जो अपनी खुशी के लिए लिखता हो। मैं ख़ास कर हिंदी ब्लॉगरों की बात कर रहा हूं। सब पाठकों की तलाश में रहते हैं। फिर कमेंट्स\ फीडबैक से अपनी लोकप्रियता का अंदाजा लगाते रहते हैं। ज्यादा कमेंट्स, यानि हिट.....कम तो फुस्स....। इसमें कुछ ग़लत भी नहीं है।
कमेंट्स वो उर्जा है जिसपर सवार होकर ब्लॉगर्स तरह-तरह के कंटेंट जेनरेट कर रहे हैं। मेरा दावा है कि कमेंट्स मिलना बंद हो जाए तो बड़े से बड़े लिक्खाड़ की हिम्मत भी जवाब दे जाएगी। कमिटमेंट, कंटेंट और कमेंट्स के रूप में पाठकों की प्रतिक्रीया - (3 C)- तीन ऐसे फैक्टर हैं जो ब्लॉगिंग को नई उंचाईयां देंगे। रोचक सामग्री वाले कमिटेड ब्लॉगर्स पाठको के बीच धीरे-धीरे जगह बना भी रहे हैं। ब्लॉगर्स वर्चुअल रह कर भी हमारे जीवन में अपनी अपस्थिति दर्ज़ करा रहे हैं। हम-आप में से बहुत कम ही अविनाश, रवीश, अनामदास, रवि रतलामी से मिले हैं। लेकिन नाम लेते ही जेहन में मोहल्ला और नई सड़क आ जाता है।

अगर बात करें मुद्दों की... तो इनमें जाती तजुर्बा, सियासत, समाज, मीडिया, तकनीक, कविता, कहानियां, व्यंग्य, सेक्स ही अभी प्रमुख हैं। आर्थिक मुद्दों पर ब्लॉग कम या ना के बराबर हैं। दरअसल, यह एक आईना है हमारे समाज का....वहाँ हो रहे बदलावों का। पश्चिम में राजनीतिक टीकाकार अपना ब्लॉग चलाते हैं। वहाँ खास विषयों को समर्पित ब्लॉग्स का अपना क्रेज़ है। इंटरनेट पेनेटरेशन भी कंटेंट क्वालिटी को रेग्यूलेट करने में अहम भूमिका निभाता रहा है।

हिंदी ब्लॉग, ग्लोबल ब्लॉगिंग की दृष्टि से अभी भी शुरुआती दौर में हैं। लेकिन देर-सवेर हमारे ब्लॉग्स भी राजनीतिक, सामाजिक कमेंटरी के विश्वसनीय और वैकल्पिक माध्यम बन जाएंगे। सेक्स और सेक्स संबंधी कंटेंट से हमारा लगाव यह भी बतलाता है कि वैश्विक समाज में हम कहाँ हैं। शायद यह पहली बार है जब हमारा समाज न सिर्फ़ इतना खुला है, बल्कि उसके पास इंटरनेट जैसे टूल्स भी है जिससे वह सेक्स जैसे वर्जित मुद्दों पर भी खुल कर बात कर रहा है। इंटरनेट की एनोनिमिटी लोगों को और अधिक एक्सप्रेसिव बना रहा है। वे इश्यूज़ पर जम कर डिबेट कर रहे हैं। सेक्स जैसे टैबू विषयों पर खुले दिमाग से बहस करने में कोई हर्ज़ नहीं है। एक बार समाज अपनी दबी कुंठाओं, भड़ासों को इंटरनेट के माध्यम से उगल ले, फिर उसे क्रिएटिव कामों में लगाया जा सकेगा। हरेक सभ्यता इस फेज़ से गुजरती है। पश्चिम ने यौन क्रांति 60 के दशक में ही देख लिया है। हमारे यहाँ यह आज हो रहा है। कुछ मुल्कों में दस-बीस साल बाद होगा। लेकिन होगा जरूर....।
हिंदी में भी तकनीक, खेल, संगीत, बिज़नेस, हेल्थ, ज्योतिष से जुड़े ब्लाग्स नज़र आने लगे है। अमिताभ बच्चन, जॉन अब्राहम, आमिर खान, लालू यादव जैसी हस्तियों ने ब्लॉग की ताक़त को पहचाना है। बस, कुछ समय की बात है नामी-गिनामी लेखक, पत्रकार, सामाजिक-राजनीतिक टीकाकार , कलाकार और संगीतकार भी ब्लॉगिंग की दुनिया में दिखने लगेंगे। पश्चिम में नौकरी खोजते वक्त सीवी की जगह अब ब्लॉग देखा जाने लगा है बल्कि मेरी जानकारी में सीएनईबी चैनल में काम करने वाली लड़की को सिर्फ इसलिए इंडिया न्यूज में नौकरी की पेशकश की गई थी क्योंकि वह अच्छा ब्लॉग लिखती है। आनेवाले वक्त में यकीन मानिए, ब्लॉग आपके मोबाईल नं. और ई-मेल आईडी की तरह जरुरत बनने जा रहा है..और अगर आप इससे चूके तो आप सोशल रडार से अक्सर बाहर नजर आएंगे।

Sunday, June 22, 2008

गाँव में रिमझिम

दफ़्तर सातवीं मंज़िल पर है। पता नहीं क्युं ऐसा लगता है कि, वहां से बादल कुछ नज़दीक दिखते हैं। उन्हें छू लेने की ख़्वाहिश भी होती है, लेकिन छू नहीं पाता हूं। काले शीशे के अंदर से सिर्फ़ बैठे-बैठे निहारने की गुंजाईश है। बारिश से पहले आंधी यहाँ भी आती है। धूल के गुबार अपनी श़रारतों से बारिश को उकसाती भी है। कहती है मेरी बेचैनी कब तक अनदेखी करती रहोगी वर्षा रानी। अब तो बरसो....ख़ूब झमाझम बरसो। अब बारिश-आंधी के इस खेल को सिर्फ़ देख कर खु़श हो लेता हूं। मेरी महत्वकांक्षाओं ने इस खेल से मुझे वर्षों पहले ही आउट कर दिया है।

ख़बर थी कि पिछले 108 सालों का रिकॉर्ड तोड़ते हुए मानसून निर्धारित समय पहले ही दिल्ली धमक गई। यह बात कुछ साल पहले सुकून देती, लेकिन अब नहीं। अब चिंता होती है.....दफ़्तर कैसे जाउंगा? शहर में डेंगु फैलेगी, कपड़े कहां सूखेंगे। गाँव की याद भी आती है। पता नहीं दादियों-नानियों को आँधी-बारिश की आहट पहले ही कैसे हो जाती थी। गर्मी छुट्टी अक्सर गाँव में ही बीतती थी। पुरखों का लगाया हुआ एक बड़ा सा आम बागीचा भी है। चालीस-पचास बड़े-बड़े पेड़ होंगे। कुछ पिताजी ने भी बाद में लगया। आँधी आते ही शहरों में बच्चे अपने-अपने घरों में दुबक जाते हैं। लेकिन गाँव में दादी टार्च लेकर मुस्तैद हो जाती। अंधर में जैसे ही पेड़ झूमने लगते, हम बच्चे टोकरी लेकर दादी के पीछे-पीछे बागीचे में पहुंच जाते। धीरे-धीरे पूरा गाँव अपने-अपने बागिचों में सिमट आता। सिर्फ़ बहुएं नहीं आतीं। बच्चों में कंप्टीशन लग जाता था। कौन ज्यादा आम चुन सकता है। दादी टार्च की रोशनी से बताते रहती, यहाँ है, इधर भी है, उसको क्यो छोड़ा। छोटा भाई, लाठी लेकर शरहद की निगरानी करता। कोई बच्चा ग़लती से भी हमारे बागिचे में आ जाए तो उसकी धुनाई निश्चित थी। कभी-कभी झगड़ा बढ़ जाता तो दादी भी समर्थन में कूद जाती थी। बच्चे तो साईड हो जाते, फिर दादियों में भिड़ंत होता। बच्चे अगले दिन फिर साथ-साथ खेलने लग जाते, लेकिन दादियों का मनमुटाव दो-तीन महीने तक तो कंटीन्यू रहता ही था।

बारिश के बाद सोंधी मिट्टी देने वाली मिट्टी कादो-कीचड़ में बदल जाती। एक ओसारा से दूसरे ओसारा पर जाने के लिए चाचाजी आंगन में ईंट बिछा देते थे। हम बच्चे इंतज़ार में रहते कि कोई पिताजी को बुला कर ले जाए। पिताजी के जाते ही पता नहीं कहां से पूरे शरीर में अजीब सी उर्जा़ का संचरण हो जाता था। अगल-बगल के हमउम्र लड़कों के साथ मैं गलियारे में फिसला-फिसली खेलने लगता था। छोटा भाई संजीव का अपना शगल था। वो नारियल तेल के खाली डिब्बे में बारिश के बाद आंगन में निकल आए पिल्‍लुओं (केंचुओं) को जमा करने में व्यस्त हो जाता। उसके बाद छुपा कर रखे गए बंशी (मछली पकरने वाला देशी यंत्र) लेकर घर के पीछे गड्ढे में जमा हुए पानी में मछली मारने निकल जाता था। आज तक कभी मछली पकड़ पाया कि नहीं...पता नहीं। शाम को घर लौटने तक पूरा पैर मिट्टी में सना होता था। कपड़े भी गंदे हो गए होते हैं। फिर माँ की डांट और दादी का प्यार। पिताजी डांट-फटकार तो नहीं करते, हाँ यह जरूर कहते कि गाँव में सिर्फ मौज ही होगा क्या??? हॉलिडे होम वर्क भी कर लिया करो। आंगन में घुसने से पहले नल पर रगड़-रगड़ कर नहाना भी होता था। रात के खाने के बाद पड़ोस के दोस्त भी साथ में सोने मेरे घर आ जाते। देर रात तक बातें चलतीं, 'आज मनोजवा फील्ड में कैसे भद्द- भद्द गिर रहा था रे, मुन्ना?' हा...हा...हा......।

Saturday, June 21, 2008

गाँधी पर भारी गुंडा.....!!!!!

आप में से जिन्हें भी फ़िल्मों में थोड़ी भी दिलचस्पी होगी, वो आईएमडीबी (IMDB) वेबसाईट से ज़रूर परिचित होंगे। इंटरनेट पर सिनेमा के उपर उपलब्ध हज़ारों-लाखों साइट्स में आईएमडीबी को सबसे भरोसेमंद माना जाता है। आईएमडीबी का भी दावा है कि वो सबसे बड़ा, सबसे बढ़िया और सबसे अधिक अवार्ड्स जीतने वाला वेबसाईट है। दुनिया के किसी भी कोने, कोई भी भाषा, डाक्युमेंट्री या फ़ीचर फ़िल्म हो, आईएमडीबी पर सब के बारे में जानकारी उपलब्ध है। फ़िल्मों के रिव्यू लिखने वाले पत्रकार भी इस साईट के रेटिंग को ब्रह्म-वाक्य मान कर चलते हैं। मैं भी इस साईट का बहुत बड़ा फैन था। लेकिन एक बात ने मेरे मन में इस पोर्टल की विश्वसनियता को कम कर दिया है। ब्राउज़ करते हुए मैंने पाया कि अपने रेटिंग में इसने रिचर्ड एटनबरो की 'गांधी' को मिथुन चक्रवर्ती की बकवास फ़िल्म 'गुंडा' से नीचे रखा है। दरअसल दस के स्केल पर गुंडा को 8.4 प्वाईंट्स दिए गए हैं, वहीं गाँधी को सिर्फ़ 8.1 प्वाईंट्स मिले हैं। ये कैसे हो सकता है????? C ग्रेड फ़िल्मों के A ग्रेड निर्माता कांति शाह की फ़िल्म रिचर्ड एटनबरो से तुलना करनी भी बेमानी होगी। क्या मिथुन, बेन किंग्सले से बेहतर अभिनेता हैं??? अब ज़रा कांति शाह की फ़िल्मों के फहरिश्त पर गौर करें - जगिरा, गलियों का बादशाह, जल्लाद नं 1, रंगबाज, गरम....और भी कई हैं। भैया गाँधी ने 8 आस्कर्स जीते हैं।गाँधी - (imdb.com/title/tt0083987/) गुंडा - (imdb.com/title/tt0497915/)

बच्चे-ये-आसेमान - "Children of Heaven"

अभी कुछ दिनों से विदेशी फ़िल्में देख रहा हूं। इसी क्रम में एफटीटीआई पुणे में पढ़ रहे एक मित्र ने ईरानी फिल्मकार माज़िद मज़ीदी की फ़िल्म बच्चे-ये-आसेमान की सीडी भेज दी। कई दिनों तक टालमटोल करने के बाद कल आख़िरकार उसे देख ही लिया। देखने को बाद अफसोस हो रहा था कि मैंने इसे फ़िल्म पहले क्यों नहीं देखी। यह भी पता चल गया कि ईरानी फ़िल्में किसी भी रूप में हॉलीवुड या जापानी फिल्मों से पीछे नहीं हैं। हलांकि फ़िल्म ईरानी भाषा में थी लेकिन नीचे अंग्रेज़ी ट्रांसलेशन भी आ रहा था।

बच्चे-ये-आसेमान आर्थिक रूप से तंगहाल परिवार के दो बच्चों की कहानी है। जहरा और अली। मां बिमार रहती है और पिता किसी तरह परिवार के लिए दोनों वक्त की रोटी का इंतजाम कर पाते हैं। गरीबी नें इन बच्चों के दिल को और भी उदार बना दिया है। अली अपने छोटी बहन ज़हरा के जूतों को मरम्मत कराने मोची के यहाँ जाता है। घर लौटते वक्त अली सब्जी ख़रीदने के लिए मंडी में रुक जाता है। तभी वहाँ से एक अंधा रद्दी बटोरने वाला गुज़रता है और ग़लती से वो जूतों को अपने साथ ले कर चला जाता है। दरअसल फ़िल्म की कहानी यहीं से शुरु होती है। अली जूतों को खोजने का बहुत प्रयास करता है लेकिन सब व्यर्थ। उसे जूता कहीं नहीं मिला। थक हार कर अली घर वापस लौट आता है। दिल में इस डर के साथ कि पापा को जूता गुम हो जाने की बात पता चल गई तो क्या होगा। पिटने का डर कुछ इतना कि दोनों भाई-बहन इस बात जिक्र भी एक दूसरे से चिट के माध्यम से करते हैं। पिटाई के डर से जाहिरा और अली फ़ैसला करते हैं कि इस बात को घर में किसी को न बताया जाए। नई जोड़ी ख़रीदने के लिए बच्चों के पास पैसे भी नहीं थे। ख़ैर दोनों ने मिलकर एक तरकीब निकाली। जाहरा का स्कूल मार्निग था और अली इवनिंग स्कूल में था। फैसला हुआ कि अली के जुतों को सुबह जाहिरा पहनेगी और उसके लौटने के बाद अली उसे पहन कर स्कूल जाएगा। पूरी फिल्म इसी असहज व्यवस्था और बच्चों का जूता पाने की जद्दोजहद के आसपास घूमती है। जूता अदला-बदली के चक्कर में बच्चे कई बार समस्याओं से रू-ब-रू होते हैं। फिर किसी तरह समस्याओं से निकल भी जाते हैं। एक बार स्कूल से लौटते वक्त उन्हें नाली में बहता हुआ एक पुराना जूता दिख जाता है। लेकिन कोशिशों के बावजूद भी वे उसे बहाव से बाहर नहीं निकाल पाते हैं। एक दिन जहरा को अपना जूता अपने सहेली के पैरों में दिख जाती है। बच्चे उसके पीछे-पीछे उसके घर तक भी जाते है। लेकिन हैं इतने भले हैं कि वो उससे जूता नहीं मांगते। न ही यह बताते हैं कि वो जूता जाहरा का है। यहाँ तक की एक बार अली दौड़ प्रतियोगिता में इसी उम्मीद में भाग लेता है कि थर्ड प्राईज़ में मिलने वाला जूता उसे मिल जाएगा। लेकिन अली रेस में प्रथम आ जाता है और जूता से महरूम रह जाता है। फ़िल्म के अंतिम दृष्यों में लगता है कि जहरा को अपना जूता नहीं मिल पाएगा। लेकिन तभी दूसरे शॉट में अली-जहरा के पिता साईकिल से आते दिखते हैं और उनके हाथ में दोनों बच्चों के लिए नए जूते होते हैं। अंतिम शॉट में अली के पैरों का क्लोज़-अप होता है जिसमें उसके पैरों पर उग आए फफोलों को दिखलाया गया है।

फ़िल्म की टाईटल अपने आप में अनूठी है। "बच्चे-ये-आसेमान - Children of Heaven"। अगर स्वर्ग वो जगह नहीं है जहाँ हमारी चाहत की सभी चीजें मिल जाएं। तो फिर वो कौन सी जगह है। फ़िल्म में कई घटनाएं होती है जो बतलाती हैं कि समुदायिक भावना बिमारी और ग़रीबी के साथ-साथ रह सकती हैं। उदारता और ईच्छा एक साथ गुजर कर सकते हैं। कहीं से सीडी जुगाड़ हो जाए तो फ़िल्म को जरूर देखिए। आप इसे यू-ट्यूब से भी डाउनलोड कर सकते हैं।

Saturday, June 14, 2008

कुछ हल्का हो जाए....!

दो-तीन दिनों से किसी नज़दीकी रिश्तेदार के ऑपरेशन ने एम्स का ख़ूब चक्कर लगवाया। काफी टेंसन में था। घर पर मेल खोलते ही छोटे भाई द्वारा फारवर्ड किए गए एक मेल पर ध्यान गया। एक जोक था। पढ़कर खूब हंसा। सारा टेंशन काफूर हो गया। मेल अंग्रेज़ी में था। ट्रांसलेट कर के पोस्ट कर रहा हूं। आप भी मजा लीजिए.....कुछ लोग गर्व भी कर सकते हैं।

कहानी अखिलेश मिश्रा की है। किसी बड़े मल्टिनेशनल में साफ्टवेयर इंजीनियर हैं। जन्म, शिक्षा सब बिहार में हुई है। दिल्ली में नौकरी करते हैं। दफ्तर से बाहर आते ही दिल-दिमाग पटना के गांधी मैदान का चक्कड़ मारने लगता है। अखिलेश काफी कार्यकुशल थे। समस्या सिर्फ़ एक थी। बॉस को लगता था कि अखिलेश गप्पी नंबर वन है। जब देखा डिंग मारता रहता है। मैं इसे जानता हूं...उसे जानता हूं। बाकौल अखिलेश, अक्षय कुमार से लेकर प्राधानमंत्री तक सब उसे जानते हैं। बेचारे बदनाम हो गए थे। एक दिन बॉस ने अखिलेश को अपने चैंबर में बुलाया। "क्यों अखिलेश, राहुल गाँधी से तुम्हारा परिचय है क्या?" स्योर सर- अखिलेश बोला। "मैं और राहुल तो कॉलेज के दिनों से ही एक दूसरे को जानते हैं।" अच्छा, मिलवा सकते हो??? जी, जब आप चाहें। बॉस को साथ लेकर अखिलेश 10 जनपथ पहुंच जाता है। राहुल गाँधी किसी मीटिंग में व्यस्त थे। अचानक अखिलेश पर उनकी नज़र गई तो उछल पड़े। "अरे अक्खी तुम..! कैसे आए, कुछ विशेष काम है क्या? नहीं यार, बस इधर से गुज़र रहा था, सोचा तुम से मिलता चलूं। आओ साथ में खाना खाते हैं...।

बॉस अखिलेश से प्रभावित हुआ। लेकिन उसके दिमाग में अभी भी संशय था। 10 जनपथ से बाहर आने के बाद बॉस ने अखिलेश से कहा...यह महज संयोग था कि राहुल गाँधी तुम्हें जानते हैं। अरे नहीं बॉस मुझे सब जानते हैं। यह कोई संयोग-वंयोग नहीं था। किससे मिलना चाहते हैं- बताईये तो। जार्ज बुश.....जार्ज बुश से मिलवाओ तो मानें। अरे, यह कौन सी बड़ी बात है, अखिलेश ने कहा। चलिए वाशिंगटन चलते हैं। दोनों वाह्ईट हाउस पहुंच जाते हैं। उस वक्त जार्ज बुश अपने काफीले के साथ कहीं निकल रहे थे। अचानक उनकी नज़र अखिलेश मिश्रा पर चली जाती है। बुश का काफिला रुक जाता है। आखिल्स.......! व्हाट अ सरप्राईज़। मैं एक जरूरी मीटिंग के लिए निकल रहा था। तभी तुम और तुंम्हारे दोस्त नज़र आ गए। लेट्स हैव अ कप ऑफ टी आर कॉफी। बॉस चक्कड़ में पड़ जाता है। लेकिन शक का कीड़ा अभी भी उसे सता रहा था।

बॉस ने कहा, चलो मान गए। लेकिन ये असंभव है कि तुम्हें सब जानते होंगे। अरे, अब भी कोई शक है आपको....!!!! हाँ, क्या तुम मुझे पोप से मिलवा सकते हो??? कुछ सोचते हुए अखिलेश ने कहा, ठीक है सर। लेकिन उसके लिए रोम चलना होगा। और दोनों रोम के वैटिकन स्कावयर पहुंच जाते हैं। वहाँ श्रद्धालुओं की पहले से ही काफ़ी भीड़ थी। "ऐसे नहीं होगा", अखिलेश ने बॉस से कहा। आप यहीं ठहरिए। पोप के गार्ड मुझे पहचानते हैं। मैं उपर जाता हूं और पोप के साथ बालकोनी में आउंगा। वहाँ आप मुझे पोप के साथ देख लेना। यह कह कर अखिलेश भीड़ में गुम हो गया। ठीक आधे घंटे के बाद अखिलेश मिश्रा पोप के साथ बालकोनी में प्रकट होता है। लेकिन वहाँ से लौटने के बाद यह देखता है कि उसके बॉस का इलाज डाक्टर डाक्टर लगे हैं। बॉस को माईल्ड हार्ट एटैक आया था। बॉस के स्थिति में सुधार होते ही अखिलेश ने उनसे पूछा- क्या हो गया था आपको? जब तुम और पोप बालकोनी में आए तब तक तो सब ठीक ही था। लेकिन तभी मेरे बगल में खड़ा एक व्यक्ति नें कहा - "ये अखिलेश मिश्रा के साथ बालकोनी में कौन खड़ा है"???

अब इस कहानी से क्या शिक्षा मिलती है????? NEVER underestimate a Bihari........हल्की बात है, हल्के में लीजिएगा।

Saturday, June 7, 2008

कौवा कैसे मरता है?

बड़ा अज़ीब सवाल जान पड़ता है। अब सवाल है तो ज़ाहिर है, कोई जवाब भी निश्चित रूप से होगा। दरअसल, जवाब या फिर कह लें 'सत्य' की तालाश ने मुझे पिछले कई दिनों से परेशान कर रखा है। बड़ी बेसब्री से जवाब ख़ोज रहा हूं। पिछले दिनों छोटे भाई ने कौए के मौत को लेकर कुछ ऐसे तथ्यों से अवगत कराया कि मैं भौचक्का रह गया। हलांकि उसके बातों पर मैंने आँख मूंद कर विश्वास तो नहीं किया। लेकिन कोई मुकम्मल जवाब मुझे बड़े-बड़े दिग्गज़ों से भी नहीं मिल पाया। कौवा कैसे मरता है??

छोटे भाई के कथनानुसार, कौवे की मौत कभी भी प्राकृतिक नहीं होती है। कौवा की उम्र चार से पांच साल के बीच कुछ भी हो सकती है। कौवे को धरती पर अपनी उम्र के पूरे हो जाने का एहसास हो जाता है। मनुष्य की तरह उसे मौत से डर नहीं लगता है। वह अपने मौत से कुछ दिनों पहले वैली ऑफ डेथ (मौत की घाटी) में स्वयं उड़ कर पहुंच जाता है। वहाँ वह रोज़ तेज़ी से परवाज़ करता है, और पहाड़ के चट्टानों से अपने शरीर को टकरा देता है। जरूरी नहीं है कि पहले टक्कर में ही कौवे की मौत हो जाए। हो सकता है मरने में दो दिन, हफ्ता या महीना भी लग जाए। लेकिन मौत चट्टानों से टकराकर ही होती है। अब सवाल उठता है कि ये वैली ऑफ डेथ है कहाँ? कश्मीर में, झारखंड में, केरल, तमिलनाडू...कहाँ है मौत की घाटी। जवाब भाई भी नहीं दे पाया। जहाँ तक मुझे पता है वैली ऑफ डेथ, अमरीका के नेवादा प्रांत में है। नेवादा का दिल्ली या पटना से दूरी कम से कम बारह-चौदह हज़ार किलोमीटर तो निश्चित रूप से होगा। तो क्या कौवा अपने मौत को आलिंगन करने के लिए इतनी बड़ी दूरी तय करता है? अगर हाँ, तो यह सचमुच बड़ी आश्चर्य की बात है। अगर नहीं तो दूसरी वैली ऑफ डेथ कहाँ है? सोचने की बात है।

पक्षियों में कौवों की संख्या अच्छी-खासी है। देश के किसी भी हिस्से में चले जाएं, कोई पक्षी मिले न मिले कौवा आवश्य दिख जाएगा। इतनी बड़ी संख्या होने के बावजूद हम कौए की मृत शरीर को क्यों नहीं देख पाते हैं। जो दिखता है वो या तो बिजली के तारों से करंट लग जाने के कारण या फिर दिवाली में पठाखों की शोर के कारण हृदय आघात से मरा होता है। आखिर ऐसा क्यों है कि सर्वव्यापी कौए के बारे में हम इतना कम जान पाए हैं।

पंचतंत्र की कई कहानियों में कौए का किरदार बहुत अहम है। बुद्धिमान कौवे की कहानी तो आपको याद ही होगा। किस तरह एक प्यासा कौवा पानी की तलाश में भटकते हुए एक घड़े के ऊपर जा बैठा, लेकिन पानी घड़े की तली में था। उसने आस-पास के कंकड़ उठा-उठा कर घड़े में डालने शुरू किए और जब पानी की सतह ऊपर आ गई तो अपनी प्यास बुझाई। हमारे धर्मग्रंथों में भी कौए की महत्ता को समझाया गया है। ज्योतिष के दृष्टि से भी कौवा विशिष्ट है। शनि को प्रसन्न करना होतो कौवों को भोजन कराईए। घर की मुंडेर पर कौवा बोले तो मेहमान जरूर आते हैं। परंतु यह भी कहा गया कि कौवा घर की उत्तर दिशा में बोले तो घर में लक्ष्मी आती है, पश्चिम दिशा में मेहमान, पूर्व में शुभ समाचार और दक्षिण दिशा में बोले तो बुरा समाचार आता है।

भारतीय परम्परा में श्राद्धपक्ष के अंतर्गत काक-बलि की प्रथा अनादिकाल से प्रचलित है। काक-बलि के अर्थ होते हैं कौवे को उस अन्न का भाग देना जो श्राद्ध के लिए बनाया गया है। विप्रवर्ग को भोजन करने के पूर्व कौवों को उनका हिस्स दिया जाए, यह प्राचीन विधान है। लेकिन ऐसा सिर्फ इसलिए कि काग को यम पक्षी माना गया है और लोगों की यह आम धारणा है कि उसे आहार अर्पित करने से यमराज अपने दूतों के साथ पूरी तरह तुष्ट-संतुष्ट हो जाते हैं। काग को शकुन पक्षी माना गया है। किसी काल में उसे केन्द्रित कर एक विस्तृत शकुनशास्त्र तक की रचना की जा चुकी है। महाकवि सूरदास ने भी अपने एक पद में यशोदा के मुख से जो कहलवाया है उसके अर्थ हैं - हे काग, उड़कर किसी वृक्ष की डाल पर अपना आसन तो जमा और देख कि मेरे बलराम और कृष्ण आ रहे हैं क्या? अगर मेरे लाल वापस आ गए तो मैं तेरी चोंच को स्वर्ण-मंडित करवा दूंगी, सोने-चांदी के कटोरों में तुझे दूध-भात परोसूंगी।

कौवा यद्यपि अधम जाति पक्षी चंडाला कहा गया है और उसके झूठे पानी तक को लोग नालियों में बहा देते हैं, लेकिन उसी जाति में काक-भुशुण्डि जैसे महामनीषी का भी जन्म हुआ है, जो चिरकाल से परम वंदनीय माने जाते हैं। खैर, यह तो रही कौवे की महिमा.....दरअसल मूल प्रश्न अभी भी वहीं का वहीं है.....कौवा मरता कैसे है??????

Wednesday, June 4, 2008

रेलिया बैरन पिया को लिए जाए रे....!

हालिया दिनों में भोजपूरी गीत और अश्लीलता, एक दूसरे के पर्यायवाची हो गए थे। लेकिन ऐसा नहीं है। दरअसल लोकगीत संस्कृति संक्रमण के दौड़ से गुज़र रही है। एक्सपेरिमेंट्स हो रहे है। अच्छे-बुड़े सभी तरह के गीत सामने आ रहे हैं। धीरे-धीरे च़ीजें सामान्य हो जाएंगी।
फिलहाल विरह की आग में जलती हुई एक स्त्री के इस गीत का आनंद लें..........


काहे के लेले टिकसवा पिया गिरल बिजुरी करेजवा पर फाटल हिया...त बड़ के भिनसहरे उठ के नहा धो के हो, लोड़ी भर के मनौती मांगत रहे। काली माई से का मनौती मांगा तिया? जानत रहे कि उ रेल गाड़ी से जाई वाला बारन....
रेलिया बैरन...पिया को लिए जाए रे...
रेलिया बैरन, पिया को लिए जाए रे.....(3)


पहले मनौती का मंगलस....(First Wish From God)
जौने टिकसवा से, पिया मोरे जैईहें......(3)
बरसे पनिया, टिकस गलि जाए रे.....(2)


सोचलस पानी भईल न भईल....त दोसर मनौती का मंगलस भैया......(Second Wish From God)
जौने शहरवा में पिया मोहे जैईहें.........(3)
लग जाए अगिया, शहर जल जाए रे.....(3)


सोचलस आग लागे न लागे....त तेसर मनौती का मंगलस.....(Third Wish From God)
जौने मलिकवा के पिया मोरे नौकर....(2)
पड़ जाए छापा, पुलिस लै जाए रे.......(3)

रेलिया बैरन, पिया को लिए जाए रे................(3)


और अंतिम में मनौती मंगलस....सोचलस का बात बा भैया, इतना रोकला पर भी न रूके.....(Last Wish From God)
जौने सवतिया के पिया मोरे आशिक....(3)
गिर जाए बिजुरी, सवत मर जाए रे.....(2)

रेलिया बैरन, पिया को लिए जाए रे.....(2)

(Affirmation from the beloved...Have Patience....I am your's forever)
अरे.....धीर धर गोरिया रे, तोरे पिया रहिएं....(3)
विनती करिहें, पिया जी घर आएं रे......(3)

रेलिया बैरन पिया को लिए जाए रे.......