Thursday, August 21, 2008

जंग के सिपहसलार - पार्ट -1

अंतरिक्ष में जाने वाले पहले भारतीय राकेश शर्मा से तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी ने पूछा था कि अंतरिक्ष से भारत कैसा दिखाई देता है तो उनका जवाब था, 'सारे जहाँ से अच्छा.....हिन्दोस्तान हमारा'। बात 1984 की है। राकेश, सोवियत यान से अंतरिक्ष में गए थे। 2008 में चांद की तरफ कूच करने वाला भारत का पहला अंतरिक्ष यान 'चंद्रयान' तैयार है। अक्तूबर के मध्य में इसे प्रक्षेपित किया जाएगा। यह हिंदुस्तान के तरक्की की एक बड़ी मिसाल है।

देश को आज़ाद हुए 61 बरस हो गए। इस दरमियां भारत ने एक लंबी दूरी तय कर ली है। रास्ते में कई पड़ाव आए। भारत रुका भी, लेकिन फिर अपनी मंज़िल की ओर बढ़ गया। सफ़र आज भी ज़ारी है। देश आज जहाँ और जिस अवस्था में है उसके लिए कई घटनाएं ज़िम्मेवार हैं। आज बात उन महान आर्थिक घटनाओं की जिन्होंने भारत को यहाँ तक पहुंचाया। बापू ने कहा था, भारत गांवों में बसता है। 61 वर्षों में तश्वीर बदल गई है, हिंदुस्तान अब शहरों की तरफ रुख कर रहा है।

भाखड़ा-नंगल परियोजना
सुनील खिलनानी ने अपने क़िताब "द आईडिया ऑफ इंडिया" में लिखा है कि 50 के दशक का भारत कांक्रीट के मोह में फंस गया था। आजाद भारत की सबसे पहली उपलब्धी भाखड़ा-नंगल बांध थी। 1963 में जब यह बनकर तैयार हुई, तब देश को इस विशालकाय निर्माण पर गर्व था। बंटवारे के बाद काफ़ी तादाद में पाकिस्तान से हिंदू और सिख इधर के पंजाब में आकर बस गए। उपलब्ध संसाधनों से इनका पेट भरना मुश्किल था। पेट भरने की इसी समस्या ने भाखड़ा-नंगल बांध के परिकल्पना को जन्म दिया। नेहरू को इस बांध से बहुत प्यार था। द हिंदू अख़बार के "दिस डे, दैट एज़" में 18 नवंबर 1955 के आर्काइव में झांकने से यह बात और साफ हो जाती है। नेहरू बांध के अंतिम चरण के निर्माण का बुनियाद रखने नांगल पहुंचे थे। "इस बांध को मनुष्य के बेदर्द परिश्रम से मनुष्य के लाभ के लिए बनाया गया है, और इसलिए यह मानव जाति की पूजा के योग्य है, लोग इसे गुरुद्वारा, मंदिर या मस्जिद कुछ भी मान सकते हैं, यह हमारी प्रशंसा और श्रद्धा दोनों को प्रेरित करती है"। नेहरू ने भाखड़ा कंट्रोल बोर्ड को यह सुझाव दिया था कि इसके बनने के बाद यहाँ एक स्मारक बनाई जाए जिसपर लिखा हो कि, "कठिन परिश्रम के बाद इसे बनाने वाले मजदूरों की तरफ से भारत के लोगों को यह अनूठा उपहार"। अक्टूबर 1963 में भारत का यह मंदिर बनकर तैयार हो गया। नेहरू इसके बनने के क्रम में 13 बार नांगल गए थे। पंजाब के तत्कालीन मुख्यमंत्री भीमसेन सच्चर का सुझाव था कि, इस बांध का नाम नेहरू बांध रखा जाए। लेकिन नेहरू इस बात के लिए तैयार नहीं हुए। पंजाब और हरियाणा की खुशहाली और देश को भूख और अकाल से उबारकर अनाज के मामले में आत्मनिर्भर बनाने का सबसे ज्यादा श्रेय इसी परियोजना को जाता है। मन में अक्सर यह सवाल उठता है कि 'भाखड़ा' न होता तो क्या होता? बहुत मुमकिन है कि देश ने भूमि सुधार, विकेन्द्रीकृत वर्षा जल संग्रहण, मिट्टी संरक्षण कार्यक्रम और इनके साथ कुछ अन्य विकेन्द्रित उपायों को चुना होता।

पंचवर्षीय योजना

नेहरू नें एक बार टिप्पणी की थी- "भारत के पांच सबसे बड़ी समस्याएं- भूमि , जल , गाय , शिशु और पुंजी है"। शायद इन्हीं पांच समस्याओं से निपटने के लिए नेहरू नें पंचवर्षीय योजना की नींव रखी है। - टाईम मैग्ज़ीन, अक्टूबर 17, 1955

कहते
हैं 20 वीं सदी के मध्य (1950) में हिंदुस्तान को कंक्रीट के साथ-साथ आँकड़ों से भी बेपनाह मुहब्बत हो गया था। यही आँकड़े देश में पंचवर्षीय योजनाओं के आधार बने। आज़ादी के बाद देश असमंजस की स्थिति में था कि तेज रफ्तार तरक्की और समान-विकास के लिए किस मॉडल को अपनाया जाए। नेहरू ने समाजवादी आर्थिक मॉडल को आगे बढ़ाया। साल 1951 में पहली पंचवर्षीय योजना शुरु की गई और योजना आयोग का गठन किया। नेहरू ने 8 दिसंबर, 1951 को संसद में पहली पंचवर्षीय योजना को पेश किया था और उन्होंने उस समय जीडीपी बृद्धि का लक्ष्य 2।1 फ़ीसदी निर्धारित किया था। इस परियोजना में कृषि क्षेत्र पर खास ज़ोर दिया गया क्योंकि उस दौरान खाद्यान्न की कमी गंभीर चिंता की बात थी। पहली पंचवर्षीय योजना के दौरान पंडित नेहरू ने विनोबा भावे को मार्गदर्शन के लिए बुलाया। राजघाट पर योजना आयोग के सदस्यों से बातचीत के दौरान विनोबा भावे ने कहा कि ऐसी योजनाएँ बनानी चाहिए, जिनसे हर भारतीय को रोटी और रोजगार मिले। विनोबाजी ने कहा था कि गरीब इंतजार नहीं कर सकता। उसे अविलंब काम और रोटी चाहिए। पहली योजना अवधि में खाद्यान्न में आत्मनिर्भरता प्राप्त करना अत्यधिक महत्वपूर्ण बन गया था और इस लक्ष्य की पाने के लिए क्रमिक पंचवर्षीय योजनाओं के जरिए अनेक बड़े, मंझोले और छोटी सिंचाई तथा बहुद्देश्यीय परियोजनाएं तैयार और कार्यान्वित की गईं ताकि सारे देश के भीतर सिंचाई की अतिरिक्त क्षमता पैदा की जा सके। दूसरी पंचवर्षीय योजना में उद्योगों को अहमियत दी गई लेकिन तीसरे में फिर खेती को तरजीह दी गई। पहली पंचवर्षीय योजना काफ़ी सफ़ल रही थी।

दूसरी योजना का मसौदा तैयार करने के लिए नेहरू नें 62 वर्षीय प्रशांत चन्द्र महलानोबिस को चुना। महलानोबिस, कलकत्ता विश्वविद्यालय में सांख्यिकी संस्थान के प्रमुख थे। कैम्ब्रिज से प्रशिक्षित प्रोफेसर महलानोबिस , एक भौतिक विज्ञानी थे जो बाद में अर्थशास्त्री बन गए। कहते हैं नेहरू, विदेशी मामलों में कृष्ण मेनन पर जितना विश्वास करते थे, आर्थिक मामलों पर उनका उतना ही विश्वास महलानोबिस पर था। योजना के मसौदे में मदद के लिए, महलानोबिस नें दस सोवियत अर्थशास्त्री को भी साथ रखा था। लोगों का मानना था कि महलानोबिस कम्युनिस्ट थे। इस पर महलानोबिस का कहना था कि, "मैं केवल दो बार मॉस्को गया हूं, लेकिन सात बार अमेरिका से हो आया हूं"। पहली योजना महज 2,069 करोड़ की थी जो ग्यारवीं में बढ़कर 12750 करोड़ तक पहुंच गई।


हरित क्रांति
हरित क्रांति से ताल्लुक रखने वाली एक वाक्या बार-बार याद आता है। छुटपन में मैं नानी गांव (ननिहाल) में काफी रहा था। वैसी आज़ादी और कहां...। नानी गांव में एक कूंआ है, जिसके चबूतरे पर बच्चों की बैठक लगती थी। कूंए के दीवार पर लिखा था - कलस्टर कूप - विश्व बैंक की आर्थिक सहायता से निर्मित। उस वक्त कुछ समझ में नहीं आता था। आज समझ रहा हूं....। यह कहानी है भूख की और किसानों के उस भूख से विराट संघर्ष की, जिसे हरित क्रांति या ग्रीन रिवोल्यूसन के नाम से जाना गया।

अंग्रेजी हुकूमत के दौरान 1943 में बंगाल ने इतिहास का शायद भीषणतम अकाल देखा । अन्न के कमी से लाखों लोग बेमौत मर गए। आजादी के बाद कृषि के क्षेत्र में आत्‍मनिर्भर होना भारत की सबसे बड़ी प्राथमिकता थी। समृद्ध और खुशहाल भारत के निर्माण के लिए जरूरी था कि दो वक्‍त की रोटी हर भारतीय को मयस्सर हो। इसी सिद्धांत को आधार बनाकर 1967 से 1978 तक हरित क्रांति का बिगुल बजाया गया। इसके जनक थे एम एस स्वामीनाथन। 1967 में जिस हरित क्रांति की शुरूआत हुई, उसमें किसानों की मेहनत, सरकार के प्रयास और तकनीकी विकास की मदद से कामयाबी मिल ही गई और देश आत्मविश्वास से इठला उठा। साठ के दशक के उत्तरार्ध में पंजाब में हरित क्रांति ने चमत्कार ही कर दिया। ख़ासतौर से 1969 में तब, जब गेहूँ का उत्पादन 1965 की तुलना में क़रीब 50 फीसदी बढ़ गया। भारत के लिए ये निहायत ही अचरज भरे और चौंका देने बाली बात थे। हरित क्रांति को ज़मीन पर उतारने में जीन संशोधित बीज और रासायनिक उर्वरकों ने महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। विश्व बैंक ने भी हरित क्रांति को फैलाने में हमारी बहुत मदद की थी। तमाम सरकारी कूंएं और ट्यूबवेलें उसी की मदद से लगाए गए थे। एक समय अमेरिका से लाल गेहूँ आयात करने वाला हमारा देश आज अनाजों का निर्यातक है। जानकारों का यह भी मानना है कि हरित क्रांति का लाभ छोटे किसानों तक नहीं पहुंच पाया। पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी यूपी में तो इस ने सचमुच कमाल कर दिया लेकिन पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार समेत मुल्क का पूर्वी इलाका इससे अछूता ही रहा। प्रथम हरित क्रांति में अहम भूमिका निभाने वाले कृषि वैज्ञानिक एम. एस. स्वामीनाथन इस पूर्वी इलाके को देश का दूसरा सबसे अधिक उपजाऊ क्षेत्र बनाने का खाका तैयार कर रहे हैं।


ऑपरेशन फ्लड
"Operation Flood can be viewed as a twenty year experiment confirming the Rural Development Vision" - World Bank Report 1997c।


मेरे या फिर आपके गाँव के रास्ते में कई जगह बोर्ड पर लिखा मिलता है - 'मधुबनी दुग्ध सहकारी विपणन फैडरेशन आपका स्वागत करता है'। दरअसल यह एक सपने का हक़ीकत में बदलने की कहानी है। एक सपना जिसे केरल के वर्गीज़ कुरियन नें देखा और गुज़रात में हक़ीकत की धरती पर उतार दिया। गुजरात से यह पूरे देश में फैला और धीरे-धीरे "अमूल- द टेस्ट ऑफ़ इंडिया"...बन गया। इस सफ़लता की कहानी जानने के लिए इसके जनक वर्गीज़ कुरियन के बारे में भी जानना जरूरी है। मुझे भी यह जानकर आश्चर्य हुआ कि कुरियन साहब नें इंजियरिंग की पढ़ाई की है। 1940 में कॉलेज खत्म होने के बाद कुरियन ने जमशेदपूर में टाटा स्टील ज्वाईन कर लिया। कुछ दिनों तक वहां काम करने के बाद वे मिशिगन विश्वविद्यालय से मैकेनिकल इंजियरिंग में मास्टर्स करने चले गए। लौटने के बाद 1949 में कुरियन बतौर डेयरी इंजिनियर, आनंद (गुजरात) स्थित सरकारी क्रिमरी में नियुक्त कर लिए गए। लगभग उसी समय, खेड़ा जिला सहकारी दुग्ध उत्पादक संघ लिमिटेड ( KDCMPUL )- जो कि अब अमूल के रूप में मशहूर है -- निजी स्वामित्व वाली पॉलसन डेयरी से संघर्ष कर रही थी। इधर कुरियन भी सरकारी नौकरी से तंग आ चुके थे। युवा कुरियन नें KDCMPUL के अध्यक्ष श्री त्रिभुवनदास पटेल से बात की और नए डेयरी संयंत्र स्थापित करने में उनके साथ हो लिए। यहीं अमूल का जन्म होता है। कुरियन के लगन और मेहनत से धीरे-धीरे अमूल भारत का सबसे बड़ा और सबसे सफल संस्थानों में से एक हो गया। अमूल की सफलता अपने आप में एक मिसाल बन गई। उसी को देखते हुए तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री लाल बहादुर शास्त्री ने राष्ट्रीय डेयरी विकास बोर्ड (NDDB) की नींव रखी। NDDB का लक्ष्य अमूल की सफ़लता को राष्ट्रीय स्तर पर दोहराना था। कुरियन के बेमिशाल और काबिल अगुआई में NDDB ने कामयाबी के झंडे गाड़ दिए। कुरियन नें राष्ट्रीय स्तर पर भी अमूल मॉडल की कामयाबी दुहराई। भारत में ऑपरेशन फ्लड आ चुका था। तब से अब तक ऑपरेशन फ्लड डेयरी किसानों को अपने स्वयं के विकास और संसाधनों को अपने नियंत्रण में रखने में काफी मदद कर रहा है। ऑपरेशन फ्लड मॉडल के काम करने का ढ़ंग भी अनूठा है। एक राष्ट्रीय ग्रिड लिंक दूध उत्पादकों को पूरे भारत के 700 से अधिक शहरों और कस्बों में उपभोक्ताओं से जोड़े रखता है। यह ग्रिड लिंक मौसमी और क्षेत्रीय कीमत की असमानताओं को भी नियंत्रण में रखता है। साथ ही ग्रिड लिंक यह भी सुनिश्चित करता है कि डेयरी किसानों को अपने उत्पाद का नियमित आधार पर सही क़ीमत मिले। आज अमूल सही मायनों में द टेस्ट ऑफ इंडिया है। आप दिल्ली में या पटना में रहते हो, बनारस या नागपूर के हों...अगली सुबह दूध लेने जाएं कुरीयन के योगदान को कम से कम एक बार जरूर याद कीजिएगा॥।


स्वदेशी पार्ट २
भैया, ये जार्ज फर्नान्डीज हैं...इसको आउट मत समझो। 1970 के दशक में इन्होंने रेल कर्मचारियों की ऐतिहासिक हड़ताल नेतृत्व किया था। उनके आह्वान पर 1974 में रेलवे के 15 लाख कर्मचारी हड़ताल पर चले गए। यह रेलवे की पहली और अब तक की एक मात्र हड़ताल थी। 1977 में देश में दूसरी बार गटबंधन सरकार बनी। जार्ज़, मोरारजी देसाई के मंत्रिमंडल में संचार मंत्री के तौर पर शामिल हुए और कुछ महीनों बाद उन्हें उद्योग मंत्री बना दिया गया। पूरा देश जार्ज के नेतृत्व में स्वदेशी का राग आलाप रहा था। 1973 के विदेशी विनिमय नियामक कानून को इसका आधार बनाया गया। इस कानून के तहत विदेशी कंपनियों को अपने स्वामित्व का कुछ हिस्सा भारतीय कंपनियों को देना अनिवार्य था। इस राग स्वदेशी का पहला शिकार बनी कोका कोला कंपनी, उसके बाद कंप्यूटर पार्ट बनाने वाली आईबीएम...। टाईम मैग्ज़ीन के नवंबर 1977 के अंक से पता चलता है कि कुल 57 विदेशी कंपनियों को भारत छोड़ने के लिए विवश किया गया था। मौजूदा दौड़ में चल रहे आर्थिक सुधारों के आईने से देखें तो यह देश के लिए बहुत बड़ा झटका रहा होगा। आर्थिक जानकारों का मानना है कि आईबीएम के भारत छोड़ने के कारण ही भारत कंप्यूटर क्रांति में लगभग 20 वर्ष पीछे चला गया। लेकिन आईबीएम के जाने का फ़ायदा स्वदेशी कंपनियों ने खूब उठाया। शिव नादर ने आईबीएम के गैप को हिंदुस्तान कंप्यूटर लिमिटेड (HCL) नाम से कंपनी खोल कर भरने की नाकाम कोशिश की थी।

क्रमश:................

6 comments:

Unknown said...

शुक्रिया..अर्थिक मामलों पर दिलचस्प लेख..... आज की दौड़ में तेज़ी से भाग रहे विकास के घोड़े को अगर लंबे रेस का घोड़ा बनना है तो आधारभूत ढाँचे, सड़क, बिजली और पानी जैसी मूलभूत ज़रूरतों की सही खुराक सही समय पर इसे देते रहना होगा....अफसोस...सारी सरकारें अभी तक इस मामले में विफल रही हैं...पार्ट - 2 का इंतज़ार है।

Unknown said...

यह तो निश्चित है कि भारतीय अर्थव्यवस्था का कछुआ कई एशियाई खरगोशों के मुकाबले जीतेगा। भारत की अर्थव्यवस्था 8 प्रतिशत और उससे ऊपर की वृद्धि लगातार जारी रखे हुए है। आने वाले समय में भारत विश्व अर्थव्यस्था के इंजन के रूप में उभरेगा....61 वर्ष के आर्थिक इतिहास के मोतियों को आपने ढ़ूढ निकाला है।

Unknown said...

आपने सही लिखा है, देश के पहले प्रधानमंत्री के नाते नेहरू के सामने सबसे बड़ी चुनौती आर्थिक मॉडल को चुनना रहा होगा। अर्थव्यवस्था का भारतीय स्वरूप कैसा हो या क्या हो सकता है? फेबियन सोसलिज्म उनके हिसाब से सटीक था। इसके कुछ फायदे भी रहे, लेकिन देश अब रोटी, कपड़ा और मकान की चिंता से मुक्त हो चुका है। इतिहास में सरकार अथवा राजा जब-जब स्वयं व्यवस्था की कर्ता हुई है तब-तब समाज में अव्यवस्था हुई है। अत: सरकार को सदा नियंत्रक ही बने रहना चाहिए.....1990 के बाद कुछ ऐसा ही हो रहा है। आर्थिक विषयों में मेरी भी रूचि है, लेकिन आपने जो तथ्य सामने रखे हैं वो मेरे लिए भी नए हैं...मसलन - नेहरू तेरह बार नांगल गए थे, महालनोबिस भौतिक विज्ञानी थे, कुरियन अभियंता थे। यह तो मालूम था कि जार्ज ने रेलवे हड़ताल करवाई थी , लेकिन कोक जैसी कंपनियों के भारत छोड़ने के पीछे उन्ही का हाथ था, यह मालूम नहीं था। काफी शोध किया है। लिखते रहिए, आप लोगों के ज्ञान को समृद्ध कर रहे हैं। अगले किस्त का इंतजार रहेगा।

Unknown said...

राजीव भाई, देश को अभी कई भाखड़ा-नंगल की जरूरत है। जिस तरह भाखड़ा-नंगल बांध ने उत्तर भारत में हरित क्रातिं की जमीन तैयार की वैसा प्रयास देश के अन्य क्षेत्रों में भी होनी चाहिए। जहाँ तक नेहरू की बात है, उनके योगदान के लिए यह पुण्य भूमि हमेशा उन्हें याद रखेगा।

Anonymous said...

Excellent write up....!!! Keep going.

Udan Tashtari said...

बेहतरीन आलेख.