Tuesday, December 2, 2008

देश का दर्द

अब तो कर लो बुद्धि मित्र ठिकाने पर
मुंबई भी रक्खी हैं आज निशाने पर,
सौ-सौ लोगों को खोकर भी खामोशी
कब टूटेगी सिंघासन की बेहोशी।
अंधे लालच का सिन्धु भरके चित में
ध्रतराष्ट्र हैं मौन स्वयं-सूत के हित में,
वरना वो ख़ूनी पंजे तुड़वा देते
अब तक अफ़जल पे कुत्ते छुड़वा देते
जो ये कहते हैं भारत के रक्षक हैं
वो ही अफ़जल जैसों के संरक्षक हैं,
बेशक सारे भारत का सर झुक जाये
उनकी कोशिश हैं ये फांसी रुक जाये।
निर्णय लेना होगा अब सरकारों को
पहले फांसी होगी इन गद्दारों को,
एक बार फिर दहते स्वर में इन्कलाब गाना होगा
फांसी का तख्ता जेलों से संसद तक लाना होगा।।

4 comments:

मिथिलेश श्रीवास्तव said...

"कब टूटेगी सिंहासन की बेहोशी।
अंधे लालच का सिन्धु भरके चित में
धृतराष्ट्र हैं मौन स्वयं-सूत के हित में,
वरना वो खूनी पंजे तुड़वा देते
अब तक अफजल पे कुत्ते छुड़वा देते"
वाह, बहुत बढ़िया अनाम जी !

समयचक्र said...

अब तो कर लो बुद्धि मित्र ठिकाने परमुंबई भी रक्खी हैं आज निशाने ,
सौ-सौ लोगों को खोकर भी खामोशीकब टूटेगी सिंघासन की बेहोशी.
badhiya bhavapoorn rachana .

सुप्रतिम बनर्जी said...

भाई, बहुत बढ़िया। समझ में नहीं आता कि आपकी कविता की दाद हूं या मौजूदा हालात पर अफ़सोस करूं। जो आग इन पंक्तियों में है, काश हर हिंदुस्तानी के दिल में भी होती।

Anonymous said...

वीर रस की कविता पसंद आई....लेकिन विचारधारा भगवा कब से हो गई बंधु..