कुछ दिनों पहले अख़बार में एक ख़बर छपी कि सिक्किम डेमोक्रेटिक फ्रंट के ख़िलाफ राज्य में चुनाव लड़ने के लिए कांग्रेस, भाजपा और सीपीएम साथ आ गए हैं। वाकई, बात चौंकाने वाली है...क्या कांग्रेस और भाजपा भी साथ आ सकती है। हलांकि ऐसा नहीं है कि ऐसा पहली बार हुआ है बल्कि अलग- अलग पार्टियों ने अपने तरीके से इसे जस्टिफाई करने की कोशिश भी अतीत में बखूबी की है। दस सूबों में बनी पहली संविद सरकार(1967) में भी जनसंघ ने तत्कालीन सोसलिस्ट पार्टी के साथ सरकार बनाई थी। ठीक इसके दस साल बाद 77 में जनता पार्टी में भी परस्पर विरोधी विचारधारा वाली पार्टियां (जिसमें जनसंघ एक अहम घटक थी) एक मंच पर आ गई। सन ‘89 में बीपी सिंह सरकार में तो लेफ्ट भी इस में शामिल था, और बीजेपी भी। ये सारी कवायदें गैर-कांग्रेसवाद के नाम पर की गई थी, लेकिन सिक्किम का ताजा मामला इससे बिल्कुल उलट है। इसमें पहली बार ऐसा वाकया सामने आया है जब कांग्रेस ने बीजेपी से हाथ मिला लिया है। कुल मिलाकर सेकुलरिज्म के लिए वहां दीवार खड़ी हो जाती है, जहां किसी भी क़ीमत पर विरोधी को सत्ता से हटाना होता है! कांग्रेस भले ही ये सोच रही हो कि देश की जनता सिक्किम जैसे छोटे सूबे में हो रही हलचलों पर ध्यान नहीं देती, लेकिन ये उसके लिए एक ख़तरनाक भूल साबित हो सकती है।
अब तो ऐसे मामलों की भरमार दिखने लगी है। एनसीपी जो खुद को सेक्युलर कहते नहीं अघाती, वो एक साथ दिल्ली में यूपीए की घटक है, जबकि मेघालय में बीजेपी के साथ सरकार चला रही है। यहीं एनसीपी पूना नगर निगम में कांग्रेस को हराने के लिए शिवसेना से हाथ मिला चुकी है, और अभी भी वो शिवसेना के साथ किसी भी तरह के गठबंधन के दरवाजे खुले होने की बात करती रही है। और तो और अपने लालू जी क्या कम है...वो जब पहली बार बिहार की गद्दी पर काबिज हुए थे तो उन्हे बीजेपी से समर्थन लेने में कोई संकोच नहीं हुआ था। वो आजकल सेकुलरिज्म के सबसे बड़े मसीहा है। छोड़िए इन बातों को, ताजा मामला कल्याण सिंह और मुलायम सिंह की जुगलबंदी का है। कल्याण सिंह के शासनकाल में बाबरी मस्जिद शहीद हुई थी, और वो संघ और हिंदुत्व के सबसे बड़े पोस्टरब्वाय थे, लेकिन आजकल मुलायम उनके साथ गलबहियां डाले घूम रहे हैं।
लेकिन सवाल ये है कि जो काम कांग्रेस ने सिक्किम में करने का फैसला किया है वो देश स्तर पर दुहरा पाएगी? मजूदा हालात तो इसकी इजाजत नहीं देते, लेकिन सियासत कुछ भी साधने की ही कला है। आज से 40 बरस पहले कौन जानता था कि जॉर्ज फर्नांडिज जैसे नेता भगवा गोद में बैठ जाएंगें या फिर लालू जैसे लोग कांग्रेस के साथ आ जाएंगे? अभी कांग्रेस और बीजेपी देश के स्तर पर दो परस्पर विरोधी ध्रुवों पर खड़े हैं और कांग्रेस-बीजेपी गठजोड़ की बात सोंचना सिरफिरापन से कम नहीं। लेकिन जिस हिसाब से राष्ट्रीय पार्टियों का जनाधार सिकुड़ रहा है, उसमें ज्यादा उम्मीद इस बात की है आनेवाले वक्त में वो राष्ट्रीय स्तर पर बिल्कुल महत्वहीन होने की दिशा में बढ़ रही है।
बीजेपी को एक फायदा ये है कि उसके पास एक विचारधारा है, लेकिन कांग्रेस के पास सिवाय खानदान के, मुल्क को देने को कुछ भी नहीं। उसके तमाम विचारों के कई दावेदार देश में हैं। ऐसे में हम कांग्रेस को एक धीमे मौत की तरफ बढ़ते देख रहे हैं। कांग्रेस, सेकुलर पार्टियों को तो बर्दाश्त कर सकती है, लेकिन बीजेपी के साथ तालमेल उसका सत्यानाश कर देगी। अलबत्ता, बीजेपी के लिए वो दिन बड़े सुकून का होगा कि कांग्रेस उसकी तरफ हाथ बढ़ाए-वो क्षण बीजेपी के लिए किसी विजय से कम नहीं होगा। और ऐसा तभी होगा जब कांग्रेस तिहाई से घटकर 50-60 सीटों पर पहुंच जाए और फिर बसपा, आरजेडी या सपा जैसी पार्टियां ही उसे धकिया दे।
लेकिन ये सारी बाते अभी काल्पनिक हैं। फर्ज़ कीजिए कांग्रेस की ताकत अगले 20 सालों में 50 सीटों तक सिमट जाती है, तो बहुत से बहुत वो एक दूसरे मोर्चे की सम्मानित सदस्य भर रह जाएगी। देश में जिस तरह से समाजिक-राजनीतिक ताकतों का रीएलाइनमेंट हो रहा है, उसमें ये देखना काफी दिलचस्प होगा। हलांकि राजनीति लेंडस्केप की तरह नहीं बल्कि स्काईस्केप की तरह बदलती है, और आगे क्या होगा ये कहना मुश्किल है। ये भी हो सकता है कि कांग्रेस मुसलमानों को आकृष्ट करने में फिर सफल हो जाए और एक ताकत बनी रह जाए। लेकिन सिक्किम जैसी घटना पार्टी के तमाम एजेंडे पर पानी फेर सकती है।
तो फिर कुल मिलाकर तस्वीर क्या बनती है? भई, मामला ये बनता है कि इलाकाई स्तर पर हम सत्ता के लिए कुछ भी कर लेंगे लेकिन सेक्युलर होने का तमगा हम से न छीनो। ज़ाहिर है ये सारी पार्टियां इस देश के अल्पसंख्यकों और सेक्युलर मिजाज के लोगों को या तो बेवकूफ़ समझती हैं, या उन्हे लगता है कि मुसलमान इतना अज्ञानी है कि वो कुछ जानता ही नहीं। ताज्जुब की बात तो ये कि बात-बात पर मुस्लिम हितों की दुहाई देनेवाली मुस्लिम जमातें भी इस पर खामोश हैं-शाय़द वो विकल्पहीनता की स्थिति में जी रही हैं।
अब तो ऐसे मामलों की भरमार दिखने लगी है। एनसीपी जो खुद को सेक्युलर कहते नहीं अघाती, वो एक साथ दिल्ली में यूपीए की घटक है, जबकि मेघालय में बीजेपी के साथ सरकार चला रही है। यहीं एनसीपी पूना नगर निगम में कांग्रेस को हराने के लिए शिवसेना से हाथ मिला चुकी है, और अभी भी वो शिवसेना के साथ किसी भी तरह के गठबंधन के दरवाजे खुले होने की बात करती रही है। और तो और अपने लालू जी क्या कम है...वो जब पहली बार बिहार की गद्दी पर काबिज हुए थे तो उन्हे बीजेपी से समर्थन लेने में कोई संकोच नहीं हुआ था। वो आजकल सेकुलरिज्म के सबसे बड़े मसीहा है। छोड़िए इन बातों को, ताजा मामला कल्याण सिंह और मुलायम सिंह की जुगलबंदी का है। कल्याण सिंह के शासनकाल में बाबरी मस्जिद शहीद हुई थी, और वो संघ और हिंदुत्व के सबसे बड़े पोस्टरब्वाय थे, लेकिन आजकल मुलायम उनके साथ गलबहियां डाले घूम रहे हैं।
लेकिन सवाल ये है कि जो काम कांग्रेस ने सिक्किम में करने का फैसला किया है वो देश स्तर पर दुहरा पाएगी? मजूदा हालात तो इसकी इजाजत नहीं देते, लेकिन सियासत कुछ भी साधने की ही कला है। आज से 40 बरस पहले कौन जानता था कि जॉर्ज फर्नांडिज जैसे नेता भगवा गोद में बैठ जाएंगें या फिर लालू जैसे लोग कांग्रेस के साथ आ जाएंगे? अभी कांग्रेस और बीजेपी देश के स्तर पर दो परस्पर विरोधी ध्रुवों पर खड़े हैं और कांग्रेस-बीजेपी गठजोड़ की बात सोंचना सिरफिरापन से कम नहीं। लेकिन जिस हिसाब से राष्ट्रीय पार्टियों का जनाधार सिकुड़ रहा है, उसमें ज्यादा उम्मीद इस बात की है आनेवाले वक्त में वो राष्ट्रीय स्तर पर बिल्कुल महत्वहीन होने की दिशा में बढ़ रही है।
बीजेपी को एक फायदा ये है कि उसके पास एक विचारधारा है, लेकिन कांग्रेस के पास सिवाय खानदान के, मुल्क को देने को कुछ भी नहीं। उसके तमाम विचारों के कई दावेदार देश में हैं। ऐसे में हम कांग्रेस को एक धीमे मौत की तरफ बढ़ते देख रहे हैं। कांग्रेस, सेकुलर पार्टियों को तो बर्दाश्त कर सकती है, लेकिन बीजेपी के साथ तालमेल उसका सत्यानाश कर देगी। अलबत्ता, बीजेपी के लिए वो दिन बड़े सुकून का होगा कि कांग्रेस उसकी तरफ हाथ बढ़ाए-वो क्षण बीजेपी के लिए किसी विजय से कम नहीं होगा। और ऐसा तभी होगा जब कांग्रेस तिहाई से घटकर 50-60 सीटों पर पहुंच जाए और फिर बसपा, आरजेडी या सपा जैसी पार्टियां ही उसे धकिया दे।
लेकिन ये सारी बाते अभी काल्पनिक हैं। फर्ज़ कीजिए कांग्रेस की ताकत अगले 20 सालों में 50 सीटों तक सिमट जाती है, तो बहुत से बहुत वो एक दूसरे मोर्चे की सम्मानित सदस्य भर रह जाएगी। देश में जिस तरह से समाजिक-राजनीतिक ताकतों का रीएलाइनमेंट हो रहा है, उसमें ये देखना काफी दिलचस्प होगा। हलांकि राजनीति लेंडस्केप की तरह नहीं बल्कि स्काईस्केप की तरह बदलती है, और आगे क्या होगा ये कहना मुश्किल है। ये भी हो सकता है कि कांग्रेस मुसलमानों को आकृष्ट करने में फिर सफल हो जाए और एक ताकत बनी रह जाए। लेकिन सिक्किम जैसी घटना पार्टी के तमाम एजेंडे पर पानी फेर सकती है।
तो फिर कुल मिलाकर तस्वीर क्या बनती है? भई, मामला ये बनता है कि इलाकाई स्तर पर हम सत्ता के लिए कुछ भी कर लेंगे लेकिन सेक्युलर होने का तमगा हम से न छीनो। ज़ाहिर है ये सारी पार्टियां इस देश के अल्पसंख्यकों और सेक्युलर मिजाज के लोगों को या तो बेवकूफ़ समझती हैं, या उन्हे लगता है कि मुसलमान इतना अज्ञानी है कि वो कुछ जानता ही नहीं। ताज्जुब की बात तो ये कि बात-बात पर मुस्लिम हितों की दुहाई देनेवाली मुस्लिम जमातें भी इस पर खामोश हैं-शाय़द वो विकल्पहीनता की स्थिति में जी रही हैं।
7 comments:
यदि आपकी सूचना सच है तो सचमुच में यह कांग्रेस के लिए आत्मघाती निर्णय ही होगा। यह मान लेना कि सिक्किम जैसी छोटी जगह पर किसी की नजर न जाएगी, अविवेकी सोच है।
काँग्रेस बूढ़े बरगद की भांति है आत्महत्या कर के भी अनेक नए दल बना देती है।
मूल काँग्रेस तो कब की नष्ट हो चुकी है।
जिस पार्टी का नेतृत्व ही परिवारवाद में जकड़ा हुआ है...उसका तो भगवान ही मालिक है।
सियासत और मौकापरस्ती...कुछ भी कह लीजिए। सरकार में बने रहने के सिवाय हमारे नेतागण कुछ सोच भी कहां पाते हैं। जोड़-तोड़ में ही सारा वक्त निकल जाता है। गटबंधन देश के लिए नहीं, निजि स्वार्थ को साधने का ही दूसरा नाम है। वो चाहे फिर कांग्रेस हो या फिर कोई और दल।
सियासत और मौकापरस्ती...कुछ भी कह लीजिए। सरकार में बने रहने के सिवाय हमारे नेतागण कुछ सोच भी कहां पाते हैं। जोड़-तोड़ में ही सारा वक्त निकल जाता है। गटबंधन देश के लिए नहीं, निजि स्वार्थ को साधने का ही दूसरा नाम है। वो चाहे फिर कांग्रेस हो या फिर कोई और दल।
हास्यास्पद स्थिति है. इससे भी ज़्यादा हास्यास्पद बात यह है कि दुनिया के सबसे बडे लोकतंत्र की कमान एक ऐसी पार्टी के हाथों में है, जिसमें आंतरिक लोकतंत्र की बात ही एक गम्भीर अपराध मानी जाती है.
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