Sunday, February 8, 2009

माँ सारदेSS कहाँ तू बीना बजा रही हैSS

सौ:

अनामदास का चिट्ठा

हम बच्चों की पुकार माँ सारदे क्यों सुनतीं, लक्ष्मी ने हमारी प्रार्थना को पहले ही अनसुना जो कर दिया था। बाल विकास इस्कूल के बच्चे रोज़ाना माँ सारदे से पूछते थे कि वो कहाँ बीना बजा रही हैं. नीली कमीज़, खाकी हाफ़पैंट और बहती नाक बाले बच्चों को दून स्कूल, वेलहैम, शेरवुड और स्प्रिंगफ़ील्ड का पता ही नहीं था, जहाँ वे वीणा बजाती हैं।
माँ सारदे बीना बजाने में व्यस्त रहीं, उनकी कृपा जिन लोगों पर हुई उन्होंने प्राइमरी स्कूल में फ्रेंच, सितार, स्विमिंग और घुड़सवारी भी सीखी। हम ककहरा, तीन तिया नौ, भारत की राजधानी नई दिल्ली है...पढ़कर समझने लगे कि माँ सारदे की हम पर भी कृपा है। हमने सरसती पूजा को सबसे बड़ी पूजा समझा।
जाड़े की गुनगुनी धूप में चौथी से लेकर दसवीं क्लास तक हर साल गन्ना चूसते हुए या छीमियाँ खाते हुए प्लान बनाते--'इस बार सरसती पूजा जमके करना है।' तभी शंकालु आवाज़ आती, 'अबे, चंदा उठाना शुरू करो', कोई कहता, 'अभी से माँगोगे तो भगा देंगे लोग', दूसरा कहता, 'कोई बार-बार थोड़े न देगा, पहले ले लो तो अच्छा रहेगा...
''सरस्वती पूजा समिति' नाम की खाकी ज़िल्द वाली हरी-नारंगी रसीद-बुक लेकर हमारी टोली निकल पड़ती चंदा उगाहने। हम इक्यावन, इक्कीस, ग्यारह से चलकर दो रुपए पर आ जाते थे. कई दुकानदार चवन्नी निकालते और उसकी भी रसीद माँगते थे. जंगीलाल चौधरी कोयले वाले ने जो बात सन अस्सी के दशक के अंत में कही थी उसका मर्म अब समझ में आता है--'अभी तो ले रहे हो, जब देना पड़ेगा न, तब फटेगा बेटा...
'गहरी चिंताओं और आशंकाओं का दौर होता, मूर्ति के लिए पैसे पूरे पड़ेंगे या नहीं, घर से माँगने के सहमे-सहमे से मंसूबे बनते, रात को नींद में बड़बड़ाते-- 'पाँच रुपए से कम चंदा नहीं लेंगे...'। कुम्हार टोली के चक्कर लगते, अफ़वाहें उड़तीं कि इस बार रामपाल सिर्फ़ बड़ी-बड़ी मूर्तियाँ बना रहा है हज़ार रुपए वाली, दो सौ वाली नहीं...दिल धक से रह जाता, कोई मनहूस सुझाव देता, 'अरे, पूजे न करना है, कलेंडर लगा देंगे।'
कलेंडर वाली नौबत कभी नहीं आई, कुछ न कुछ जुगाड़ हो ही गया, सरसती माता ने पार लगा दिया। रिक्शे पर बिठाकर, मुँह ढँककर, 'बोलो-बोलो सरसती माता की जय'...कहते हुए किसी दोस्त के बरामदे पर उनकी सवारी उतर जाती. टोकरियाँ उल्टी रखकर उनके ऊपर बोरियाँ बिछाकर सिल्वर पेंट करके पहाड़ बन जाते, चाचियों-मौसियों-बुआओं की साड़ियों से कुछ न कुछ सजावट हो जाती।

शू स्ट्रिंग बजट
, टीम वर्क, मोटिवेशन, प्लानिंग, क्रिएटिव थिंकिंग...जैसे जितने मैनेजमेंट के मुहावरे हैं उनका सबका व्यावहारिक रूप था दस साल के लड़कों की सरसती पूजा। आटे को उबालकर बनाई गई लेई से सुतली के ऊपर कैंची से काटर चिपकाए गए रंगीन तिकोने झंडों के बीच रखी हंसवाहिनी-वीणावादिनी की छोटी-सी मूर्ति. कैसी अनुपम उपलब्धि, हमारी पूजा, हमारी मूर्ति...ठीक वैसी ही अनुभूति, जिसे आजकल कहा जाता है--'यस वी डिड इट'।
पूरे एक साल में एक बार मौक़ा मिलता था मिलजुल कर कुछ करने का, धर्म के नाम पर। क्रिकेट टीम बनाने और सरसती पूजा-दुर्गा पूजा-रामलीला करने को छोड़कर कोई ऐसा काम दिखाई नहीं देता जो निम्न मध्यवर्गीय सवर्ण उत्तर भारतीय हिंदू किशोर के लिए उपलब्ध हो जिसमें सामूहिकता और सामुदायिकता का आभास हो।
आंटे के चूरन में लिपटे गोल-गोल कटे गाजर, एक अमरूद के आठ फाँक और इलायची दाना की परसादी। घर में बहुत कहा-सुनी के बाद दोस्तों के साथ पुजास्थल पर देर रात तक रहने की अनुमति. रात को भूतों की कहानियाँ और माता सरसती की किरपा से परिच्छा में अच्छे नंबर लाने के सपने. कैसे जादू भरे दिन और रातें...अचानक कोई कहता, 'अरे भसान (विसर्जन) के लिए रेकसा भाड़ा कहाँ से आएगा?'
भाड़ा भी आ जाता, जैसे मूर्ति आई थी, सरसती मइया किरपा से सब हो जाता था। रिक्शे पर माँ शारदा को लेकर गंदले तालाब की ओर चलते बच्चों की टोली सबसे आगे होती क्योंकि जल्दी घर लौटने का दबाव होता. माता सरसती की कृपा से पूरी तरह वंचित बड़े भाइयों की अबीर उड़ाती टोली, बैंजो-ताशा की सरगम पर थिरकती मंडली, माता सरस्वती की कृपा से दो दिन के आनंद का रसपान करते कॉलेज-विमुख छात्रों का दल 'जब छाए मेरा जादू कोई बच न पाए' और 'हरि ओम हरि' की धुन पर पूरे शहर के चक्कर लगाता।

अगले दिन सब कुछ बड़ा सूना-सूना लगता।

4 comments:

Vinay said...
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अक्षत विचार said...

वाकई बहुत सुन्दर और आनन्ददायक और दिल को छू लेने वाला लेख.......

Sumit K Mishra said...

u sud have elaborated a bit more on it...

Anonymous said...

ek baat bataiye ..yeh pic kaha ki hai ..