आजकल कुछ लिखने का मन नहीं करता। मार्निंग शिफ्ट धीरे-धीरे अच्छा लगने लगा है। शाम 5 बजे तक घर लौट आना...घर क्या है कमरा, फ्लैट कुछ भी कह लीजिए। घर दूसरी चीज होती है। वहां लौटने में मजबूरी का भाव नहीं होता। और सोचना, चलो ज़िंदगी का एक और दिन कट गया। कई दिनों से सोच रहा हूं कि नए जगह पर शिफ्ट कर जाऊं। कोई मजबूरी भी नहीं है, लेकिन पता नहीं क्यूं कुछ नहीं कर पा रहा हूं। थकावट नींद तो ले आती है, लेकिन चैन या सुकून जैसे शब्द बेमानी ही लगते हैं। लगता है इस बड़े शहर में धीरे-धीरे खोता जा रहा हूं। आईडेंटिटी क्राईसिस...शायद...या कुछ और....। कभी-कभी मन करता है, वापस घर चला जाऊं। छोटा है, लेकिन पटना अपना तो है।
फिर रात के पहले पहर चांद छत के उपर आ जाता है। हां एक छत है। जिसके सीधे उपर आकाश है। टुकुर-टुकुर चांद को निहारना अच्छा लगता है। सोचता हूं, इस चांद के आगे भी एक दुनिया होगी। सुदूर एक अपहचानी और अंजानी सी दुनिया। कभी वहां जाऊंगा, हवा में उड़ कर। शायद वहां इतनी भीड़ न हो....। फिर से कोशिश करता हूं, शायद कुछ बदल जाए...शायद।
9 comments:
क्या हो गया राजीव भाई...कुछ लेते क्यूं नहीं।
ख़ैर, मज़ाक से अलहदा, ये रूटीन भी कभी कभी बहुत काटने लगता है। लेकिन यार ख़ुशनसीब हो...दिल्ली में एक अदद छत, मेरा मतलब सर छुपाने वाली नहीं, चांद का दीदार करने वाली। कभी वहां से ख़्वाबों की उड़ान तो भर लेते हो !!!
ये क्या, अभी कमेंट लिखा और उसे देख भी नहीं सकते। आपसे ऐसी उम्मीद नहीं थी। :-(
बहुत बढिया लिखा है ..
शब्दों में अजीब सी छटपटाहट है
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चाँद, बादल और शाम
आज मैं भी चाँद को निहार रह थी। बड़े शहर निर्दयी से तो लगते हैं किन्तु शहर लोगों से बनते हैं। अच्छे दोस्त होंगे तो यह शहर भी ठीक लगने लगेगा।
घुघूती बासूती
कई बार मन ऐसे ही उचाट हो जाता है...कुछ समय में ठीक हो जायेगा.
Dear Prabbudh,
Actually comment moderation has been activated for last few weeks. Week back, someone posted abusive reaction about India, which I felt was not in good taste. Anyway, my sincere apology for inconvenience. And yes, I am removing the comment moderation. Me too was feeling that, it’s quite unfair to be selective in receiving comments. Good or bad. Aur ab Hindi typing gayab ho gaya hai. Badi mushkil hai blogging kid agar. Aur kaise ho???
Missing You
rajiv
Ab kya kiya jaye. Ye sab garmi ka asar hai.
तुम्हारे इस पोस्ट पर फैज साहब का एक शेर याद आता है...बिना पूछे ही अर्ज कर रहा हूं-
ये दाग-दाग उजाला / ये शबगजीदा सहर / ये वो सहर तो नहीं / जिसकी आरजू लेकर चले थे हम / कि मिल जायेगी कहीं न कहीं / फलक के दस्त में / तारों की आखिरी मंजिल /चले चलो कि वो मंजिल अभी नहीं आई...
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