यह लेख चार साल पहले 2005 में लिखा था। शिक्षा व्यवस्था में व्यापक बदलाव पर कपिल सिब्बल के क्रांतिकारी विचार और समाज में शिक्षा के मूल उद्देश्य को लेकर चलने वाले बहस के मद्देनज़र यह लेख हमेशा ही प्रासंगिक रहेगा। शिक्षा क्यों, कैसा हो, उसका सामाजिक-आर्थिक संदर्भ क्या हो...ऐसे सैकड़ों सवाल हैं, जिनपर नए सिरे से बहस की जरूरत महसूस की जा रही है। ऐसे में कपिल सिब्बल के कुछ सुझाव वाकई स्वागत योग्य हैं। हलांकि, 10वीं की बोर्ड परीक्षा ख़त्म करने जैसे प्रस्ताव पर मैं व्यक्तिगत रूप से सहमत नहीं हूं...। -राजीव
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ये विषय इतना जटिल है और विशाद है की मेरे लिए कुछ भी लिख पाना असंभव लग रहा है। शिक्षा का उद्देश्य क्या है? ये बताना मेरे लिए ज्यादा मुश्किल है। शिक्षा का उद्देश्य क्या नही है? ये बताना मेरे लिए ज्यादा आसान है।
शिक्षा का उद्देश्य मदरसों में की जाने वाली मासूमों की ब्रेन-वाशिंग और कंडिशनिंग नही है, भगवा ब्रीगेड खड़ा करना नही है। शिक्षा का उद्देश्य तो किसी भी धार्मिक कंडिशनिंग को हटाना है। शिक्षा का पहला उद्देश्य है की दिमाग को एक ही लीक पर चलने से कैसे बचाएं वो सिखाना, सीखे हुए को जरूरत पड़ने पर अनसीखा करना और किए हुए को अन किया करना, ये गुर देना है। शिक्षा का उद्देश्य एक जैसी विचारधारा वालों की जमात खडा करना नही है। शिक्षा का उद्देश्य उन सवालों के रेडी मेड जवाब देना नही है जो अभी मन में उठे ही नही। तोता रटंत समाज बनाना नही है। शिक्षा का उद्देश्य अनुशासित पर आज्ञाकारी नही हों अराजक हों निर्भय हों प्रयोगधर्मी हों ऐसे खुले दिमाग वाले बागी खडे़ करना है।
मेरा बस चले तो हर विद्यालय की एक सबसे मजबूत दिवार गिरा दूं ताकी ताजी हवा अंदर जा सके - शिक्षक को पढाने से पहले सुबह टूटी दिवार दिखा दूं की देख - तेरा काम गढने से ज्यादा तोडना है - पुरानी कंडिशनिंग तोडना और अगर तुझे दूसरों की कंडिशनिंग तोडना है तो पहले अपनी तोड! भारत को अगर कुछ भी अराजक करना है तो शिक्षा तंत्र के साथ भयंकर प्रयोग कर के ही रास्ता निकल सकता है। हम प्यास जगने से पहले ही पानी में ढकेल देते हैं प्रश्न जागने से पहले ही उनके उत्तर रटा देते हैं नंबर आ जाते हैं पास हो जाते हैं - एक पागल समाज हैं हम। मां-बाप, शिक्षक, बडे सब अपने आज्ञाकारी गुलाम गढने के चक्कर में, सम्मान करवाने के प्रपंच में एक ढोंगी समाज मे जी रहे हैं तो नेतृत्व का गुण कहां से आएगा सृजनशीलता कहां से पनपेगी?
हां हम नौकर गढ सकते हैं, प्रोग्रामर गढ़ सकते हैं - ट्रेनिंग है - पिछलग्गु गढ सकते हैं परन्तु कोई सृजनशील कर्ता नही गढ़ सकते - वो मिट्टी, पानी, हवा नही है हमारे पास। जमीनतोडू ओरिजिनल कुछ नही गढ पाए हम! अंग्रेजी आती है सो देखा देखी नकल-पट्टी का सहारा है!
भारतीय समाज मूलभूत रूप से रूढीग्रस्त है और मेरा बस चले तो पूरे समाज को ४४० वोल्ट के झटके देने वाले उपाय बना दूं। पर ये सब नही हो सकता - कारण हैं हम! हम जैसे हैं वैसे ही हैं और रहेंगे - कोई झूठी उम्मीद और दिलासा नहीं है! बदकिस्मती है क्योंकि हम बदतर हैं।
शिक्षा का उद्देश्य मदरसों में की जाने वाली मासूमों की ब्रेन-वाशिंग और कंडिशनिंग नही है, भगवा ब्रीगेड खड़ा करना नही है। शिक्षा का उद्देश्य तो किसी भी धार्मिक कंडिशनिंग को हटाना है। शिक्षा का पहला उद्देश्य है की दिमाग को एक ही लीक पर चलने से कैसे बचाएं वो सिखाना, सीखे हुए को जरूरत पड़ने पर अनसीखा करना और किए हुए को अन किया करना, ये गुर देना है। शिक्षा का उद्देश्य एक जैसी विचारधारा वालों की जमात खडा करना नही है। शिक्षा का उद्देश्य उन सवालों के रेडी मेड जवाब देना नही है जो अभी मन में उठे ही नही। तोता रटंत समाज बनाना नही है। शिक्षा का उद्देश्य अनुशासित पर आज्ञाकारी नही हों अराजक हों निर्भय हों प्रयोगधर्मी हों ऐसे खुले दिमाग वाले बागी खडे़ करना है।
मेरा बस चले तो हर विद्यालय की एक सबसे मजबूत दिवार गिरा दूं ताकी ताजी हवा अंदर जा सके - शिक्षक को पढाने से पहले सुबह टूटी दिवार दिखा दूं की देख - तेरा काम गढने से ज्यादा तोडना है - पुरानी कंडिशनिंग तोडना और अगर तुझे दूसरों की कंडिशनिंग तोडना है तो पहले अपनी तोड! भारत को अगर कुछ भी अराजक करना है तो शिक्षा तंत्र के साथ भयंकर प्रयोग कर के ही रास्ता निकल सकता है। हम प्यास जगने से पहले ही पानी में ढकेल देते हैं प्रश्न जागने से पहले ही उनके उत्तर रटा देते हैं नंबर आ जाते हैं पास हो जाते हैं - एक पागल समाज हैं हम। मां-बाप, शिक्षक, बडे सब अपने आज्ञाकारी गुलाम गढने के चक्कर में, सम्मान करवाने के प्रपंच में एक ढोंगी समाज मे जी रहे हैं तो नेतृत्व का गुण कहां से आएगा सृजनशीलता कहां से पनपेगी?
हां हम नौकर गढ सकते हैं, प्रोग्रामर गढ़ सकते हैं - ट्रेनिंग है - पिछलग्गु गढ सकते हैं परन्तु कोई सृजनशील कर्ता नही गढ़ सकते - वो मिट्टी, पानी, हवा नही है हमारे पास। जमीनतोडू ओरिजिनल कुछ नही गढ पाए हम! अंग्रेजी आती है सो देखा देखी नकल-पट्टी का सहारा है!
भारतीय समाज मूलभूत रूप से रूढीग्रस्त है और मेरा बस चले तो पूरे समाज को ४४० वोल्ट के झटके देने वाले उपाय बना दूं। पर ये सब नही हो सकता - कारण हैं हम! हम जैसे हैं वैसे ही हैं और रहेंगे - कोई झूठी उम्मीद और दिलासा नहीं है! बदकिस्मती है क्योंकि हम बदतर हैं।
शिक्षा आज के परिपेक्ष्य में वही है जो हमेशा से रही है। जा की रही भावना जैसी वाली बात है। शिक्षा का प्रभाव हर आदमी और हर समाज पर अलग अलग होता है। हम पर जो असर है देख लो -
देसी बच्चे हर जिद मनवाने को बुक्का फ़ाड के बेसुरा रोते हैं और जिस बात को मना करो वही करते हैं! आलस, अनुशासनहीनता और उद्दंडता हमारा तौर है, चाटुकारी और गद्दरी इतिहास है - सृजनात्मकता से वास्ता नही है। जीन ही खराब है! अब गधे को घी पिलाओ और अरबी घोडे से एड लगवाओ क्या होगा? गधा और बिमार पड़ जायेगा ना! चलो बाकी सब के सामने नौटंकी जरूरी रही पर हम हिंदी मे आपस में जबरदस्ती का ढोंग कर के क्या लाभ? हमारे लिए शिक्षा नौकरी पाने का साधन बनी है क्या कम है? अगर हम इतना ठीक-ठाक समाज गढ लें की हर आदमी दो जून की रोटी खा ले इज्जत से - बहुत है यार! हम जैसे हैं उस के बावजूद मेरा भारत महान का नारा गढ़ लेते हैं - हमारी शिक्षा नें हमें सच बोलना तक तो सिखाया नही! जापान और जर्मनी में जनता को अंग्रेजी नही आती - अपने दम पर बने हैं। उधार की भाषा, शोध और विचार पर नही। हम को आती है अंग्रेजी, दुनिया भर के ज्ञान पढ सकते हैं - क्या कर लिये? कैसा गढा समाज? क्या फ़रक है?
काम हमारा नाम उनका। हम नौकर वो मालिक! बाजार हमारे उत्पाद उनके। क्यों हुआ ऐसा? हम कमीने हैं इस लिए - कृष्ण ने बोला कर्म कर हमने कृष्ण की भक्तिरस की धारा बना दी- कर्म तो नही होगा यार आप ही भाग्य संवार दो प्रभू!
शरीर पर राख मल कर उसकी नश्वरता का पाठ पढाया अब उसी शरीर को सुख देने का प्रपंच कर क्या लाभ - देखो हमारा मेनिपुलेशन! फ़िर जो कहा उसे बस कहा किये कुछ नही - प्रवचन और प्रवचन - फ़िर ढोंग! कितने घटिया हैं हम!! बहुत गहरा है ये कैंसर। संस्कार बहुत घातक हैं हमारे। पर ये संस्कार हमको इस लिए सुहाए की हमारी जीन ही खराब है या इन संस्कारों ने खराब किया हमको? लड़ लो! और अब तो 120 करोड़ हैं हम - बहुत बुरा आलम है!! बहुत ही बुरा।
मानव के व्यक्तित्व पर वंशानुगत गुण ज्यादा हावी होते हैं या शिक्षा? मानव मस्तिष्क ज्यादा जटिल है या मानव मन? दोनो में से कौन किस कि कार्यप्रणाली को सीमित या नियंत्रित करता है? देसी लोग आलसी हैं इसलिए भाग्यवादी हैं या भाग्यवादी हैं इस लिए आलसी हैं?
देसी बच्चे हर जिद मनवाने को बुक्का फ़ाड के बेसुरा रोते हैं और जिस बात को मना करो वही करते हैं! आलस, अनुशासनहीनता और उद्दंडता हमारा तौर है, चाटुकारी और गद्दरी इतिहास है - सृजनात्मकता से वास्ता नही है। जीन ही खराब है! अब गधे को घी पिलाओ और अरबी घोडे से एड लगवाओ क्या होगा? गधा और बिमार पड़ जायेगा ना! चलो बाकी सब के सामने नौटंकी जरूरी रही पर हम हिंदी मे आपस में जबरदस्ती का ढोंग कर के क्या लाभ? हमारे लिए शिक्षा नौकरी पाने का साधन बनी है क्या कम है? अगर हम इतना ठीक-ठाक समाज गढ लें की हर आदमी दो जून की रोटी खा ले इज्जत से - बहुत है यार! हम जैसे हैं उस के बावजूद मेरा भारत महान का नारा गढ़ लेते हैं - हमारी शिक्षा नें हमें सच बोलना तक तो सिखाया नही! जापान और जर्मनी में जनता को अंग्रेजी नही आती - अपने दम पर बने हैं। उधार की भाषा, शोध और विचार पर नही। हम को आती है अंग्रेजी, दुनिया भर के ज्ञान पढ सकते हैं - क्या कर लिये? कैसा गढा समाज? क्या फ़रक है?
काम हमारा नाम उनका। हम नौकर वो मालिक! बाजार हमारे उत्पाद उनके। क्यों हुआ ऐसा? हम कमीने हैं इस लिए - कृष्ण ने बोला कर्म कर हमने कृष्ण की भक्तिरस की धारा बना दी- कर्म तो नही होगा यार आप ही भाग्य संवार दो प्रभू!
शरीर पर राख मल कर उसकी नश्वरता का पाठ पढाया अब उसी शरीर को सुख देने का प्रपंच कर क्या लाभ - देखो हमारा मेनिपुलेशन! फ़िर जो कहा उसे बस कहा किये कुछ नही - प्रवचन और प्रवचन - फ़िर ढोंग! कितने घटिया हैं हम!! बहुत गहरा है ये कैंसर। संस्कार बहुत घातक हैं हमारे। पर ये संस्कार हमको इस लिए सुहाए की हमारी जीन ही खराब है या इन संस्कारों ने खराब किया हमको? लड़ लो! और अब तो 120 करोड़ हैं हम - बहुत बुरा आलम है!! बहुत ही बुरा।
मानव के व्यक्तित्व पर वंशानुगत गुण ज्यादा हावी होते हैं या शिक्षा? मानव मस्तिष्क ज्यादा जटिल है या मानव मन? दोनो में से कौन किस कि कार्यप्रणाली को सीमित या नियंत्रित करता है? देसी लोग आलसी हैं इसलिए भाग्यवादी हैं या भाग्यवादी हैं इस लिए आलसी हैं?
भारतीय समाज में शिक्षा का उद्देश्य धनोपार्जन तक सीमित है। बाकी सब बालीवूड की फ़िल्मों में अच्छा लगता है! फ़िल्म आवारा का राजू एक जज का बेटा है जिसको एक गुण्डे ने चोर बनाया है। अब पूरी फ़िल्म ये सिद्ध करने में खर्च है की चोर का बेटा चोर ही हो और जज का बेटा जज ही हो जरूरी नही है - परिस्थितियां और शिक्षा सब बदल देती हैं - शिक्षा शरीफ़ को शैतान और शैतान को शरीफ़ बना सकती है। फ़िल्म हिट हो गई पर सत्य क्या है?
शैतान का दिमाग शिक्षा पा कर बम बनाता है, और शरीफ़ का दिमाग फ़ोकट के साफ़्टवेयर, आलसी तो ब्लाग भी नही लिखता चाहे सारी सुविधा उपलब्ध हो। मनोवृत्ती शिक्षा पर हावी हो जाती है। पर क्या मनोवृत्ती किसी पहले से प्राप्त शिक्षा से नही बनी होती। शिक्षा से बनी होती है या वंशानुगत होती है?
आज शिक्षा तो हर बात पर उपलब्ध है पर हमारी दिलचस्पी बस उस ज्ञान में है जो रोजीरोटी दिला दे! बस इतना कर लें वो क्या कम है? अब मंडल कमीशन वाला किस्सा भूल गए क्या - शिक्षा की राजनीति पर लिखने लगूंगा तो सर्वर बैठ जाएगा! काम्पिटीशन बहुत है भाई और फ़िर गरीबी महंगाई! इस बात का महत्व नही है की व्यक्ति की रुचि किस विषय में है, महत्व इस बात का है की पैसा किधर है? सयानी देसी जनता एक घर आगे चलती है - जिधर पैसा हैं उधर इन्टरेस्ट ले लेंगे साईं आप बताओ ना कौन सा कोर्स करना है! मैं ऐसे आई आई टी से निकले कई केमिकल इन्जीनियर्स से मिला हूं जो पैसे के लिए आई टी या मेनेजमेंट में दन्न से कूद गए - आज पानी का रासायनिक सूत्र पता नही होगा - चार साल खप के आए हैं साहब, अभी कोडिंग चल रही है मस्त! सच बोलूं तो खुशी होती है- चलो लंद-फ़ंद कर रही है जनता - कुछ ना करने से बेहतर है। पर लंद-फ़ंद सही और आदर्श तरीके से हो तो मजा है।
आज विशिष्टीकरण के युग में व्यक्तित्व का बनाव भी फ़ास्ट फ़ूड सा होता है - ये कोर्स ले, वो कोर्स ले, नौकरी पा। देसी एयरोडायनामिक्स के इन्जीनियर ने कभी पतंग नही उड़ाई होती और पतंगबाज को पता नही होता ये उपर किस प्रभाव से उठी - ये क्या? पश्चिम में पैसा है और वो रुचि के हिसाब से चलते हैं या रुचि के हिसाब से काम करते हैं इस लिए सफ़ल हैं वो कहानी फ़िर कभी। वैसे शिक्षा बड़ा कठिन विषय है। बडे़ बडे़ फ़िलासाफ़र सोच सोच के मर गए इस विषय पर - हम किस खेत के कद्दू हैं!
“बस कि दुश्वार है किसी बात का आसां होना,
आदमी को भी मयस्सर नहीं इन्सां होना”- ग़ालिब
गालिब का दर्द हर पढे़ लिखे शरीफ़ आदमी का दर्द है।
शिक्षा आदमी को इन्सान बनाती है, पर ओवर-आल आज भी एक खास किस्म के बम्मन वर्ग की बपौती है जो विचारों के ब्राण्ड बनता है। बौद्धिक अधिकारों और पेटेंटों के जमाने में शिक्षा और ज्ञान पर प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष नियंत्रण कमतर और बेहतर समाजों का फ़र्क तय कर रहा है और करता रहेगा।
शिक्षा की तकनीकें विद्यालयों महाविद्यालयों के स्वरूप तय करतीं है। और तकनीकों की शिक्षा समाजों का स्वरूप तय करतीं है। पर आज का सच तो ये है की भारत में और दुनिया के कई और बडे़ बडे़ महाद्वीपों में समाजों को अभी सापेक्षिक आदिम युग से ही बाहर निकलना है - शिक्षा मिल जाए - कोई अनपढ ना रहे वही बहुत फ़िर इतनी मिल जाए की शिक्षा के दम पर नौकरी पा ले - ऐसा समाज हो जो हर शिक्षित को रोजगार दे दे - वाह वाह! बाकी फ़ण्डे के लिए ब्लाग तो है ही!
2 comments:
कड़ा लेख है, और बहुत सही भी है।
जबरदस्त लेख है जी आपका !
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