यह तश्वीर ख़ास है। इलाहाबाद से लौट रहा था, गाड़ी आने में कुछ देर थी। स्टेशन के बाहर टहलते हुए, एकाएक मेरी नज़र पार्किंग में त्रिशंकु की तरह लटके हुए इस कुर्सी पर गई। ठहरा, सोचने लगा.....। मनीष के मोबाईल से तश्वीर उतारी। ऐसे भी यह कुर्सी कोई ऐसी वैसी तो थी नहीं। दरअसल, हम उस शहर में थे जो कुर्सी पर बिठाने उसको हिलाने, डुलाने और गिराने के लिए जानी जाती रही है। उस मायने में आप इस फ़ोटू को भारतीय राजनीति का ऐतिहासिक दस्तावेज़ भी मान सकते हैं। स्टेशन पहुंचने से पहले हम इलाहाबाद हाई कोर्ट देखकर आए थे। वही कोर्ट जहां 1977 में जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा ने समाजवादी नेता राज नारायण की चुनावी याचिका पर फ़ैसला सुनाते हुए इंदिरा गांधी के जीत को अवैध ठहरा दिया था। ‘कुर्सी’ के लिए इंदिरा ने लोकतंत्र का गला घोंट दिया। देश में इमरजेंसी लगा दी गई।
एक बात और आपातकाल के दौरान ही 1977 में अमृत नाहटा ने एक फिल्म बनाई थी, जिसका शीर्षक था ‘किस्सा कुर्सी का’ लेकिन कुर्सी पर बैठे लोग इस किस्से से इतना खफ़ा हुए कि उन्होंने इस फ़िल्म पर ही रोक लगा दी थी। इस फिल्म की प्रिंट गायब हो गया और मामला तब आपातकाल की जांच करने वाले शाह आयोग तक पहुंचा था। बाद में आईएस जौहर ने इसी नाम से एक फूहड़ फिल्म बनाई।
मैंने पार्किंग वाले से पूछा कि यह सर्वशक्तिमान कुर्सी यहां कब से लटकी है, और इसकी दुर्गति के लिए कौन ज़िम्मेवार है। वो चुप ही रहा....लेकिन मैं सोच रहा था। शायद असली कुर्सी इलाहाबाद छोड़कर अमेठी या रायबरेली चली गई थी।
एक बात और आपातकाल के दौरान ही 1977 में अमृत नाहटा ने एक फिल्म बनाई थी, जिसका शीर्षक था ‘किस्सा कुर्सी का’ लेकिन कुर्सी पर बैठे लोग इस किस्से से इतना खफ़ा हुए कि उन्होंने इस फ़िल्म पर ही रोक लगा दी थी। इस फिल्म की प्रिंट गायब हो गया और मामला तब आपातकाल की जांच करने वाले शाह आयोग तक पहुंचा था। बाद में आईएस जौहर ने इसी नाम से एक फूहड़ फिल्म बनाई।
मैंने पार्किंग वाले से पूछा कि यह सर्वशक्तिमान कुर्सी यहां कब से लटकी है, और इसकी दुर्गति के लिए कौन ज़िम्मेवार है। वो चुप ही रहा....लेकिन मैं सोच रहा था। शायद असली कुर्सी इलाहाबाद छोड़कर अमेठी या रायबरेली चली गई थी।
1 comment:
सही क्लिक किया किस्सा कुर्सी का.
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