Thursday, October 8, 2009

मून स्ट्रक

शाम समय इक ऊंची सीढ़ियों वाले घर के आंगन में,
चांद को उतरे देखा हमने चांद भी कैसा पूरा चांद!
इंशाजी इन चाहने वाली, देखने वाली आंखों ने
मुल्कों-मुल्कों, शहरों-शहरों , कैसा-कैसा देखा चांद?
हर इक चांद की अपनी धज थी, हर इक चांद का अपना रूप.....
लेकिन ऐसा रोशन-रोशन, हंसता बातें करता चांद?
दर्द की टीस तो उठती थी पर इतनी भी भरपूर कभी?
आज से पहले कब उतरा था , दिल में इतना गहरा
चांद!
हमने तो किस्मत के दर से जब पाए अंधियारे पाए...
यह भी चांद का सपना होगा, कैसा चांद , कहां का चांद?

इब्ने इंशा

1 comment:

निर्मला कपिला said...

दर्द से भरी चाँद की यादें आज के दिन ? रचना अच्छी है शुभकामनायें