शाम समय इक ऊंची सीढ़ियों वाले घर के आंगन में,
चांद को उतरे देखा हमने चांद भी कैसा पूरा चांद!
इंशाजी इन चाहने वाली, देखने वाली आंखों ने
मुल्कों-मुल्कों, शहरों-शहरों , कैसा-कैसा देखा चांद?
हर इक चांद की अपनी धज थी, हर इक चांद का अपना रूप.....
लेकिन ऐसा रोशन-रोशन, हंसता बातें करता चांद?
दर्द की टीस तो उठती थी पर इतनी भी भरपूर कभी?
आज से पहले कब उतरा था , दिल में इतना गहरा
चांद को उतरे देखा हमने चांद भी कैसा पूरा चांद!
इंशाजी इन चाहने वाली, देखने वाली आंखों ने
मुल्कों-मुल्कों, शहरों-शहरों , कैसा-कैसा देखा चांद?
हर इक चांद की अपनी धज थी, हर इक चांद का अपना रूप.....
लेकिन ऐसा रोशन-रोशन, हंसता बातें करता चांद?
दर्द की टीस तो उठती थी पर इतनी भी भरपूर कभी?
आज से पहले कब उतरा था , दिल में इतना गहरा
चांद!
हमने तो किस्मत के दर से जब पाए अंधियारे पाए...
यह भी चांद का सपना होगा, कैसा चांद , कहां का चांद?
हमने तो किस्मत के दर से जब पाए अंधियारे पाए...
यह भी चांद का सपना होगा, कैसा चांद , कहां का चांद?
इब्ने इंशा
1 comment:
दर्द से भरी चाँद की यादें आज के दिन ? रचना अच्छी है शुभकामनायें
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