Wednesday, October 28, 2009

आह हिंदी! वाह अंग्रेज़ी!!

सुशांत झा। मिथिला में जन्‍म। आईआईएमसी से पत्रकारिता की पढ़ाई। जुझारू युवा पत्रकार। आंदोलनी विरासत।
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साल 2004, अगस्त की दूसरी तारीख। दिल्ली के भारतीय जनसंचार संस्थान के ऑडिटोरियम में हम हिंदी मीडियम वाले दबे-कुचले, दलित और पिछड़ों की तरह खड़े थे – अंग्रेज़ी वाले चुहलबाजी, मस्ती, उछलकूद और उन सारे कामों में लगे थे, जो ये एहसास दिला रहा था कि देश के असली मालिकान वहीं हैं। उसके बाद की घटनाओं ने हमें हिंदी, इसकी अहमियत, इसकी ज़रूरत, देश के तंत्र में हिंदी की उपयोगिता आदि विषयों पर इतने एंगिल से सोचने पर मजबूर किया कि हमें लगने लगा कि वास्तविक दलित तो हमीं हैं जो हिंदी पढ़ के आये हैं। हमारे कई हिंदीदां दोस्तों ने हमें गालियां दी कि साले खाते हिंदी का हो और गाते अंग्रेज़ी की हो – लेकिन हमने उसके बाद दीवानावार अंग्रेज़ी सीखी और कामचलाऊ ढंग की सीख ली। हमारे दोस्तों ने मजाक उड़ाया कि हिंदी को तुमने छोड़ दिया, और अंग्रेज़ी ने तुम्‍हें कभी अपनाया नहीं। बहरहाल, दिमाग का पलड़ा अंग्रेज़ी के फेवर में झुक चुका था। दिल में हिंदी थी, उसी तरह जैसे मां होती है… लेकिन दिमाग में अंग्रेज़ी आ चुकी थी जैसे किसी कुंवारे के लिए बीवी की कल्पना होती है।
हमने पाया कि क्लास में हिंदी के बच्चे ज़्यादा ज़हीन थे, वे ज़्यादा इंफार्म्ड थे, उनका जीके दुरुस्त था, लेकिन कम्यूनिकेशन में वे मात खा जाते थे। उनमें एक हीन भावना थी। प्रोफेसर और गेस्ट लेक्चरर भी अंग्रेज़ी वालों से ज़्यादा बात करते, उनसे ज़्यादा फेमिलियर होते जबकि उनमें से कइयों को ये पता नहीं था राजस्थान देश के नक्शे पर किधर है। प्रेम से लेकर नौकरी तक हर जगह अंग्रेज़ी वाले सफल थे। क्लास में टाप एक हिंदी वाले ने किया था लेकिन सबसे बेहतरीन नौकरी अंग्रेज़ी वालों को मिली थी। हमें हमारी औकात का एहसास करा दिया गया था।
हमने कसम खायी कि शादी करने की कोशिश अंग्रेज़ी वाली लड़की से ही करेंगे (मेरे एक-आध दोस्त इसमें कामयाब भी हो गये) ताकि जेनरेशन सुधर जाए और अपने होनेवाले एकमात्र बच्चे को अंग्रेज़ी में पढ़ाएंगे। मुझे लगा कि मैं पहला बंदा हूं, जो ये कसम ले रहा है – बाद में पता चला कि देश के तमाम हिंदी पत्रकार सालों और दशकों पहले ये कसम खा चुके हैं।
हर सप्ताह अपने दोस्तों के साथ होनेवाली मीटिंग में हम अपने सूबे के तमाम मुख्यमंत्रियों को गालियां देते रहे कि उन्होने क्लास वन से हमें अंग्रेज़ी क्यों नहीं पढ़ाया। अपने पिता से हम कई बार झगड़े कि जिंदगी भर दिल्ली-पटना का चक्कर लनाने के बावजूद उन्‍हें इतनी समझ क्यों नहीं आयी। हमें नार्थ-इस्ट और साउथ से आनेवाले अपने सहपाठियों से ईर्ष्या होने लगी कि उनकी अंग्रेज़ी अच्छी क्यों है। हमने लालू, मुलायम और लोहिया (जी) को भी गाली दी कि वे क्यों हिंदी की माला जाप रहे हैं। हमें लगा हमारे पिछड़ेपन की एकमात्र वजह यहीं है कि हम अंग्रेज़ी में कमजोर हैं। गुस्सा और हताशा के उन क्षणों में हमने एक ही साथ न जाने कितने विमर्श कर डाले – गरीब-अमीर, हिंदी-अंग्रेज़ी, शहर बनाम गांव बनाम छोटा शहर बड़ा शहर बनाम कल्चरल इंपेरियलिज्म, उत्तर बनाम दक्षिण बनाम नार्थ ईस्ट बनाम इंडिया – चाइना बनाम न जाने क्या-क्या। यहां उन बातों की चर्चा इस लेख को इंटरनेट पर उबाऊ बना सकती है।
लेकिन एक दूसरा थॉट प्रोसेस भी चल रहा था। मन तो हिंदी पढ़ के ही खुश होता था। होरी महतो और शनिचरा जिस तरीके से दिल को छूता था, ससुरा सिडनी सेल्डन कभी नहीं छू पाया। न जाने बचपन से कितनी शायरी ‘कादंबिनी’ से चुराकर हमने अपने डायरी में लिख रखी थी। सोचा था कि अपनी होनेवाली ‘सिमरन’ को सुनाऊंगा। कभी-कभी कभार कोई लेख पढ़ कर जोश में आ जाता कि हिंदी ‘फैल’ रही है, अब तो बंगलोर के चायवाले भी बोलते हैं और सीईओ भी। (ये बाद में पता लगा कि सीईओ किस्म के लोग पत्रकारों द्वारा रिक्वेस्ट करने पर ही हिंदी में बाइट देते हैं या कृपा कर रहे होते हैं) टीवी, सिनेमा, अखबार, अनुवाद, वायसओवर – हर जगह नये स्कोप खुल रहे हैं। कभी-कभी ख्वाब देखता कि गुलज़ार, जावेद अख्तर, सलीम खान, लालू-मुलायम-अमर सिंह को भी तो काम चलाऊ अंग्रेज़ी ही आती है तो हम क्यों नहीं आगे बढ़ सकते? एक दोस्त ने कहा कि प्रसून जोशी भी हिंदी मीडियम के ही थे। बाद में अंग्रेज़ी सीख ली – अंग्रेज़ी में क्या रखा है – ये बातें तसल्ली देती थीं। हमारे संस्थान के एक प्रोफेसर ने कहा कि दीपक चौरसिया भी तो अंग्रेज़ी में कमजोर थे – दिल खुश हो गया कि दीपक तो बन ही सकते हैं। लेकिन हमें ये मालूम नहीं था कि हम अनुवादक भर रह जाएंगे और सारा ऑफिसियल काम अंग्रेज़ी में करना पड़ेगा। हमें बहुत लेट से ये पता चला कि इस देश में ऑडियो-वीडियो मीडियम भले ही देशी भाषाओं में ज़्यादा चले लेकिन उसका भी आफिसियल काम सारा अंग्रेज़ी में ही होता है। जहां तक छपने वाली भाषा का सवाल है, तो शायद आनेवाले सौ सालों में सारा कामकाज, अध्ययन, रिसर्च और पत्राचार अंग्रेज़ी में ही हो। मेरी ये पंक्ति भयंकर विवाद को जन्म दे सकती है जिसका मैं इंतजार कर रहा हूं।

बहरहाल, जोश और जुनून के उन्‍हीं पलों में हमने अपने ब्‍लॉग पर हिंदी के महिमामंडन में एक सिरीज की कल्पना की कि कैसे हिंदी देश में अपना उचित स्थान पा सकती है। उस आइडिया को अतिरंजित करते हुए हमने अपने ब्लाग पर एक सीरीज लिख मारी कि कैसे मरेगी अंग्रेज़ी। कई लोगों ने सराहा, कइयों ने सहानुभूति दिखाते हुए शुभेच्छा व्यक्त की!
पिछले दिनों कई लेखकों को पढ़ा तो एक भाव जो उनमें समान था वो ये कि अंग्रेज़ी दलितों के लिए तारणहार हो सकती है। मुझे लगा कि इस स्तर पर तो दलित मैं भी हूं। मेरे भोगे हुए यथार्थ की झलकियां उसमें दिखायी दी। हमें लगा कि जब कोई अंग्रेज़ी बोलता है, तो हम उसकी जाति की कल्पना भी नहीं करते कि वो वर्मा है या शर्मा। वह एक संभ्रांत वर्ग का होता है, अक्सर प्रभु वर्ग का। अंग्रेज़ी बोलने वाला प्राणी इस देश का असली ब्राह्मण है, जो सिर्फ एक भाषा सीखकर अपने बैंकग्राउंड की तमाम कमियों को छुपा सकता है, अपने इतिहास को बदल सकता है और सिस्टम को सिर के बल खड़ा कर सकता है!
हमने इतिहास खंगाला, हमने भाषाई आंदोलन, हिंदी विरोध, द्रविड़ आंदोलन, हिंदी-ब्राह्मण विरोधी आंदोलन सब कुछ चाट लिया। बचपन में लोहियाजी की पंक्तिया अक्सर गुदगुदाती थीं – कि हिंदी वो भाषा है जिसमें असम के चाय बगान में काम करने वाला बिहारी मजदूर एक उड़िया मजदूर से बात करता है। लेकिन व्यावहारिक जीवन में लोहियाजी हवा हो गये और मैकाले ज़्यादा मुफीद लगे। रेलवे स्टेशनों पर इंदिरा गांधी की उक्ति कि हिंदी ही वो भाषा है जो पूरे देश को एक सूत्र में बांध सकती है – अब मजाक लगने लगा था।
हमने महसूस किया कि आज़ादी के बाद ही जब हम हिंदी के नाम पर आमराय नहीं बना पाये तो अब 21वीं सदी में इसकी संभावना बहुत मुश्किल लग रही है। अंग्रेज़ी का पिछले तीन सौ सालों का ढांचा इतना मज़बूत है जितना शायद ब्राह्मणवाद भी नहीं। जो लोग चीन, कोरिया और जापान का उदाहरण देते हैं उन्‍हें ये बात याद रखनी चाहिए कि उन देशों के हालात हमारे यहां से बिल्कुल उलट हैं। न तो मंदारिन या कोरियन की तरह हिंदी कभी 90 फीसदी लोगों की भाषा थी न ही नेहरुजी उसे पूरे देश पर थोप सकते थे। अगर हिंदी आज़ादी के बाद से ही पूरे देश की पहली भाषा होती, जिसमें तकनीक से लेकर प्रशासन तक के सारे काम होते, तो अभी तक हम इसे वाकई मजबूत बना लेते लेकिन क्या ऐसा हो पाया या हालात ने ऐसी इजाज़त दी?
ऐसे हालात में, अब लकीर पीटने का कोई फायदा नहीं। हमें इस बात को स्वीकार कर लेना चाहिए कि अगर कारोबार, रोज़गार और रिसर्च में अंग्रेज़ी ही चलनी है तो दलितों को, पिछड़ो को, सवर्णों को अवर्णों को – हर किसी को पागल की तरह अंग्रेज़ी सीखनी चाहिए। हां, इसके साथ ही साथ हिंदी को और भी आसान, व्यावहारिक और रोज़गारपरक बनाने का कोई सुझाव आये तो उसे स्वागत करने में कोई दिक्‍कत नहीं।
COURTSEY: MOHALLA LIVE
FOR COMMENTS ON THIS ARTICLE: http://mohallalive.com/2009/10/27/sushant-jha-writeup-on-hindi-english-debate/

4 comments:

Asha Joglekar said...

बात बुरी लग सकती है पर है तो सही जब मानसिकता ही ऐसी है तो आप कहां तक लडेंगे पर एक तो कर सकते हैं और कर भी रहे हैं कि जितने ज्यादा लोगों को हिंदी में लिखने के लिये प्रेरित कर सकें करें ।

Jandunia said...

अंग्रेजी और हिंदी को लेकर क्या खूब लिखा है...स्वागत है

Rakesh Singh - राकेश सिंह said...

यथार्थ की धरातल पे रहते हुए आपने सुन्दर व्याख्या की है |

देखिये जब तक मेकाले की शिक्षा पद्धति रहेगी .. हम हिंदी या अन्य भारतीय भाषाओं के विकाश की नहीं सोच सकते |

आने वाले दिनों मैं हिंदी बोलने - लिखने वाले लोगों की संख्या तेजी से घटेंगी | हाँ जो कोई अच्छी हिंदी जानेगा शायद उसके लिए संभावनाएं अच्छी होनी चाहिए, जैसे की अच्छी संस्कृत बोलने वालों की आज है |

आशा की एक ही किरण ये दिखती है की बाजारवाद से आजिज होकर शायद एक नई व्यवस्था का जन्म हो और तब (शायद) अपनी भाषा की गरिमा स्थापना का कार्य हो ... पर इसकी संभावना कम ही लगती है |

Kumar Kaustubha said...

dushman ko marne ke liye usi ka hathiyar istemal karen to badhiya..angreji zaaroor aani chahiye hindi ko badhawa dene ke liye!