भोजपुरी गानों के इस संग्राम में एक से एक कलाकारों ने अपनी प्रस्तुतियां दी-लेकिन अतत: मोहन राठौड़ और आलोक पांडे ही अतिम दो में चुन कर आए। मेरी राय में, बल्कि ज्यादातर निरपेक्ष लोगों की मानें तो मोहन राठौड़ में जो बात है वो आलोक में नहीं। वैसे आलोक की गायिकी भी बेजोड़ है, लेकिन जो भोजपुरिया फील, दर्द और बिरह की अभिव्यक्ति मोहन राठौड़ की आवाज में है उसमें शायद आलोक थोड़ा कमजोर ठहरते हैं। लेकिन अभी तक का जो एसएमएस का रिजल्ट आया है उसमें आलोक पांड़े, मोहन राठौड़ से भारी अंतर से आगे हैं।
आखिर इसकी वजह क्या है? ऐसा कैसे हो गया ? भोजपुरी भाषाभाषी आबादी की बात करें तो भले ही भोजपुरी का नामकरण भोजपुर के नाम पर हुआ हो लेकिन भोजपुरी भाषी लोगों की संख्या यूपी में बिहार से कुछ ज्यादा है। इसके आलावा यूपी के भोजपुरी भाषी लोगों का पलायन भी बड़े शहरों खासकर मुम्बई में सबसे ज्यादा है। अगर प्रति व्यक्ति आय, साक्षरता, शहरीकरण और मोबाईल धारकों की फीसदी का अनुमान लगाया जाए तो भी यूपी की भोजपुरी आबादी बीस ठहरती है। यूपी के भोजपुरी इलाकों में बनारस, गोरखपुर, इलाहाबाद(लगभग) जैसे बड़े शहर आते है जबकि बिहार के बड़े शहरों में सिर्फ पटना है जिसे पूरे तौर पर भोजपुरी शहर नहीं कहा जा सकता।
तो फिर ऐसा क्या हो गया कि बिहार के आलोक पांडे एसएमएस रेस में आगे निकल गए? सुरसंग्राम का एसएमएस पोल एक खतरनाक रुझान की तरफ इशारा कर रहा है। यह बताता है कि हाल के सालों में बिहार में क्षेत्रीय भावना किस कदर घर कर गई है। क्या इसे बिहार में पैदा होने वाली नई उपराष्ट्रीयता की भावना मानी जाए या यह वास्तव में एक स्वस्थ प्रतियोगी भावना है?
सुरसंग्राम का यह एसएमएस पोल कई चीजों की ओर इशारा कर रहा है। पहला यह, भोजपुरी भाषा के साथ पूरा बिहार जिस तरह से अपने आपको कनेक्ट कर रहा है शायद पूरा यूपी नहीं। पश्चिमी यूपी के जाटलैंड को गाजीपुर के इस रतन मोहन राठौड़ में शायद कोई दिलचस्पी नहीं है। ऐसा ही शायद ब्रज और बुंदेलखंड में भी है-दरअसल पूरे यूपी में एक यूपी या यूपीबाद या रीजनल फीलिंग का अभाव दिखता है। यूपी अलग-2 खांचे में जीता है जिसकी वजहें इसकी विशालता, आर्थिक विषमता और बड़े स्टेट होने की वजह से एक संतृप्तता की भावना है। ऐसा बिहार में नहीं है, पूरा बिहार चाहे वो मिथिला हो, मगध हो, अंग हो या भोजपुर-अपने आपको एक बिहारी उपराष्ट्रीयता से ग्रस्त पा रहा है। वो आलोक पांडे के साथ खड़ा है। उसमें एक तरह की कम्यूनिटी फीलींग है, वो लगभग ‘घेटो’ की स्थिति में है। इसकी बड़ी वजह बिहार का घनघोर पिछड़ापन और उस वजह से बिहार से बाहर इस सूबे के लोगो का लांछन, अपमान और जिल्लत में जीना है। ये एक कड़वी सच्चाई है जिसकी वजहें बिहार में दशकों से चल रहा भ्रष्ट प्रशासन और कुछ हद तक ऐतिहासिक भौगोलिक परिस्थितियां हैं। बिहार और बिहारीपन सिर्फ संज्ञा नहीं है, बल्कि ये एक सर्वनाम बन चुका है-जिसका मतलब सभी प्रकार के पिछड़े, गरीब और मजदूर लोग होते हैं-भले ही वे किसी भी सूबे से ताल्लुक क्यों न रखते हों।(ये ठीक वैसे ही है जैसे वेस्ट का मतलब अमेरिका हो गया है, भले ही उसका व्यापक मतलब यूरोप और कनाडा भी क्यों न हो)
दूसरी बात जो इस एसएमएस पोल से सामने आई है वो ये कि यूपी से भी आलोक पांडे को तकरीबन 5000 वोट मिले है। ये वे वोट हैं जो यूपी में रहनेवाले अप्रवासी बिहारियों ने आलोक को दिए हैं। जाहिर है, नोएडा, कानपुर, इलाहाबाद, बनारस, अलीगढ, मेरठ और लखनऊ में लाखों की तादाद में प्रवासी बिहारी रहते हैं जिनका सेंटीमेंट यूपी से जुड़ा न होकर बिहार के साथ है। जबकि एक सूबे के तौर पर बिहार चूंकि रोजगार का केंद्र नहीं है इसलिए प्रवासी यूपीवालों की बड़ी तादाद होने का वहां कोई प्रश्न नहीं है।
एक बात और जो गौर करने लायक है वो ये कि हाल के दिनों में मुम्बई और दूसरे जगहों पर जो उत्तर भारतीयों के खिलाफ राज ठाकरे के गुंडों के हमले हुए थे उसमें भी उत्तरभारतीय शब्द फेड आउट होता गया और क्रमश: वो बिहारियों के खिलाफ हमला होता गया। जबकि हकीकत ये है कि मुम्बई में बिहारियों की तुलना में यूपीवालों की तादाद कई गुना ज्यादा है। जाहिर है, बिहारियों को पोलराईज करने में इन चीजों ने अप्रत्यक्ष रुप से ज्यादा योगदान दिया है। हाल के सालों में छठ के अवसर पर जिस तरह की दीवानगी देखने को मिली है वह एक सूबे के तौर पर ब्रांड बिहार और छठ के इमेज को ब्लर करता हुआ प्रतीत होता है-जिसकी अवहेलना बिहार का कोई भी मुख्यमंत्री नहीं कर सकता। छठ के मौके पर बिहार के मुख्यमंत्री का घाटों का परीक्षण करना उसी तरह फैशनेवल होता जा रहा है जिस तरह से नेताओं का इफ्तार में शामिल होना! बहुत संभव है आनेवाले वक्त में ऐसा दिल्ली-मुम्बई में भी दिखे!
एक दूसरे नजरिये से देखें तो ये बिहार के लोगों का ‘खोल’ में सिमटने जैसा है, उनका ‘घेटोआईजेशन’ हुआ है। जो समाज कभी इतना उदार था कि थोक के भाव में गैर-बिहारी नेताओं को लोकसभा में चुनकर भेजता था उसके लिए ये संकेत बहुत खतरनाक और शर्मनाक स्थिति हो सकती है। एक सूबे के तौर पर ये बिहार के पतन की एक और सीढ़ी मानी जा सकती है।
लेकिन ये स्थिति एक दुधारी तलवार जैसी भी है। इसके फायदे भी हैं और नुकसान भी। फायदा ये हो सकता है कि बिहार की जनता जातीय भावना से ऊपर उठकर एक ‘पूरे बिहार’ के लिए भविष्य में प्रयास कर सकती है और भ्रष्ट राजनेताओं को सबक सिखा सकती है-ऐसा हाल तक नहीं देखने में मिला है जैसा बंगाल, तमिलनाडू या पंजाब में देखने को मिलता है। लेकिन इसका स्याह पक्ष ये है कि बिहार की जनता अखिल भारतीय रंगमंच पर क्रमश संकीर्ण हो सकती है और ज्यादा प्रतिक्रियावादी भी। वो पिछड़ेपन और असुरक्षा के माहौल में हर जगह और हर वक्त अपना ‘बिहारीपन’ अपने कलेजे से चिपकाए चलते रहने को मजबूर भी हो सकती है।
बहरहाल, इस विमर्श से अलग महुआ चैनल की प्रोगामिंग भी सवालों के घेरे में आते हैं। टीआरपी के चक्कर में प्रायोजित और भड़काऊ किस्म के बाईट कहां तक उचित हैं जो सरेआम क्षेत्रीय भावना उभाड़ते हैं? सरकार के लिए इस किस्म के प्रोग्राम भले ही मामूली हों लेकिन हमें नहीं भूलना चाहिए कि ऐसे ही ऋतिक रोशन के एक कथित बाईट के चलते कुछ सालों पहले नेपाल-भारत के रिश्तों में कड़वाहट घुल गई थी।
मुद्दे पर लौटते हुए यहीं कहा जा सकता है कि ऐसी हालत वाकई एक सूबे के तौर पर बिहार के लिए ठीक नहीं होगा-जिसे देश के दूसरे हिस्सों में अपनी इस नस्लवादी-क्षेत्रवादी भावना के चलते अलग-थलग होना पड़ सकता है और कई फायदों से वंचित भी। दरअसल, बिहार की जनता का जो गुस्सा और आक्रोश बिहार की नेताओं के खिलाफ सामने आना चाहिए वो लगभग एक कुंठा के रुप में बिहारी उपराष्ट्रीयतावाद का रुप लेती जा रही है-जो चिंता की बात है। बिहार के नेताओं, युवाओं और बुद्धिजीवियों को इस विषय पर गंभीरता से सोचने की जरुरत है।
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