पिताजी पटना से मैथिली लोक संगीत की कुछ सीडी लाए थे। उससे पहले मैथिली गीतों में मुझे वो क्लास नजर नहीं आता था या हमने उस क्लास को खोजने की ही कोशिश नहीं की थी। मैथिली के गीतों को मैं एक अरसे के बाद सुन रहा था। दिल्ली में मीडिया की, और वो भी एक अंग्रेजी चैनल की नौकरी आपको किस कदर अपनी जड़ों से काट देने के लिए उकसाती है इसका एहसास मुझे अचानक ही हुआ। मैथिली भक्ति संगीत का वो गाना जो भगवान शिव को समर्पित था-वो इस हद तक क्सासिकल था कि मुझे लगा कि अगर ये बंगाली या कन्नड़ में होता वहां के लोग इसे न्यूयार्क तक बेच आते। लेकिन नहीं, शायद मैथिली, अवधी या ब्रज जैसी भाषाओं को ये नसीब नहीं। वहां का संगीत, वहां का साहित्य और वहां की संस्कृति किस कदर एक स्लो डेथ की तरफ बढ़ रही है इसका विश्लेषण शायद बड़े विमर्श की मांग करता है।
जब दुनिया ग्लोबल नहीं हुई थी शायद मेरी भाषा इतनी नीरीह नहीं थी। उसमें काफी दम था, वो खिलखिलाती थी तो लोगबाग जरुर ध्यान देते थे। हिंदुस्तान के सतरंगी बगिया में बंगाली, उडिया, कन्नड़, अवधी और ब्रजभाषा की तरह वो भी एक खूबसूरत फूल थी। लेकिन जमाने ने जब करवट ली तो ये तय हो गया कि देश में छोटी-2 भाषाओं के लिए कोई जगह नहीं है। बात करें उत्तर भारत की तो मेरी भाषा हिंदी के विस्तारवाद का शिकार हो गई, ये कहने में मुझे कोई झिझक नहीं। मैथिली हिंदी से मिलती जुलती तो है लेकिन वो भाषाई और सांस्कृतिक रुप से बंगाली के ज्यादा निकट है। मिथिला का क्लचर भी बंगाल से ज्यादा मिलता जुलता है। माछ- भात (मछली-चावल) अभी भी वहां का सर्वप्रिय भोजन है, लेकिन ग्लोबलाईजेशन के बाद करवाचौथ भी पहुंचने लगा है। मेरी इन पंक्तियों का करवाचौथ से कोई विरोध नहीं है, लेकिन दुख की बात ये कि लोग अपनी सांस्कृतिक प्रतीकों को तेजी से भूलते जा रहे हैं।
मैथिली की अपनी एक अलग लिपि थी, अपना व्याकरण था और खड़ी हिंदी से पुराना इतिहास भी। ये उत्तर भारत की एक क्लासिकल भाषा है जिसमें लेखन की एक प्राचीन परंपरा है। शायद इसी वजह से इसमें भोजपुरी की तरह अश्लीलता का पुट नहीं आ पाया। कवि कोकिल विद्यापति मिथिलांचल के ही थे। लेकिन मिथिलांचल का इलाका जब बंगाल के विभाजन के बाद बिहार का हिस्सा बना तो हिंदी के वर्चस्व के तले ये भाषा धीरे-धीरे अपना असर खोती गई है। मुझे याद आता है, मेरे बचपन के समय तक पटना की चेतना समिति एक बड़ा सांस्कृतिक केंद्र था और वहां बड़े आयोजन होते थे। लेकिन धीरे-धीरे लोग हिंदी अंग्रेजी की तरफ बढ़ते गये और मैथिली सिर्फ घरों में सिमट कर रह गई-वो भी मां के आंचल तले, पत्नी की बांहों में भी नहीं।
आज मैथिलभाषी लोग अपनी भाषा बोलने में हीनता का अनुभव करने लगे हैं। सभी लोग तो नहीं लेकिन एक वर्ग ऐसा तो जरुर बन गया है। लोगों को ये बताते हुए शर्म आती है कि उनका घर सहरसा या दरभंगा है। मां-बाप की आंखे बच्चों को पॉप संगीत पर थिरकते देख चमक उठती है, मानो वे सदियों से इस इलाके में रहे पिछड़ेपन और गरीबी की जिल्लत से एकबारगी ही मुक्ति पा गए हों। लेकिन शायद ये मेरी भाषा के साथ ही नहीं हो रहा। ये त्रासदी उन सारी भाषाओं की है जो आकार में छोटी हैं, और नौकरी व कारोबार के अनुकूल नहीं है। हिंदुस्तान में जिंदा रहने के लिए हिंदी-अंग्रेजी का ज्ञान जरुरी हो गया है, कल्चर और मातृभाषा तो सेकेंडरी चीज हो गई है।
शायद, ग्लोबलाईजेशन का ये जरुरी नतीजा है। आपको वहीं सोचना,खाना, ओढ़ना और पहनना है जो सुदूर अमेरिका में हो रहा है या कम से कम दिल्ली-मुम्बई में तो जरुर हो गया है। विडियोकॉन टॉवर के इस चमचमाते ग्लास हॉउस में बैठकर सोच रहा हूं कि क्या दरभंगा या मधुबनी का काली मंदिर चौक वाकई रहने के लिए बहुत नामाकूल जगह थी ? क्या आनेवाले वक्तों में हिंदुस्तान की सतरंगी बगिया वाकई सतरंगी रह पाएगी...।
मैथिली की अपनी एक अलग लिपि थी, अपना व्याकरण था और खड़ी हिंदी से पुराना इतिहास भी। ये उत्तर भारत की एक क्लासिकल भाषा है जिसमें लेखन की एक प्राचीन परंपरा है। शायद इसी वजह से इसमें भोजपुरी की तरह अश्लीलता का पुट नहीं आ पाया। कवि कोकिल विद्यापति मिथिलांचल के ही थे। लेकिन मिथिलांचल का इलाका जब बंगाल के विभाजन के बाद बिहार का हिस्सा बना तो हिंदी के वर्चस्व के तले ये भाषा धीरे-धीरे अपना असर खोती गई है। मुझे याद आता है, मेरे बचपन के समय तक पटना की चेतना समिति एक बड़ा सांस्कृतिक केंद्र था और वहां बड़े आयोजन होते थे। लेकिन धीरे-धीरे लोग हिंदी अंग्रेजी की तरफ बढ़ते गये और मैथिली सिर्फ घरों में सिमट कर रह गई-वो भी मां के आंचल तले, पत्नी की बांहों में भी नहीं।
आज मैथिलभाषी लोग अपनी भाषा बोलने में हीनता का अनुभव करने लगे हैं। सभी लोग तो नहीं लेकिन एक वर्ग ऐसा तो जरुर बन गया है। लोगों को ये बताते हुए शर्म आती है कि उनका घर सहरसा या दरभंगा है। मां-बाप की आंखे बच्चों को पॉप संगीत पर थिरकते देख चमक उठती है, मानो वे सदियों से इस इलाके में रहे पिछड़ेपन और गरीबी की जिल्लत से एकबारगी ही मुक्ति पा गए हों। लेकिन शायद ये मेरी भाषा के साथ ही नहीं हो रहा। ये त्रासदी उन सारी भाषाओं की है जो आकार में छोटी हैं, और नौकरी व कारोबार के अनुकूल नहीं है। हिंदुस्तान में जिंदा रहने के लिए हिंदी-अंग्रेजी का ज्ञान जरुरी हो गया है, कल्चर और मातृभाषा तो सेकेंडरी चीज हो गई है।
शायद, ग्लोबलाईजेशन का ये जरुरी नतीजा है। आपको वहीं सोचना,खाना, ओढ़ना और पहनना है जो सुदूर अमेरिका में हो रहा है या कम से कम दिल्ली-मुम्बई में तो जरुर हो गया है। विडियोकॉन टॉवर के इस चमचमाते ग्लास हॉउस में बैठकर सोच रहा हूं कि क्या दरभंगा या मधुबनी का काली मंदिर चौक वाकई रहने के लिए बहुत नामाकूल जगह थी ? क्या आनेवाले वक्तों में हिंदुस्तान की सतरंगी बगिया वाकई सतरंगी रह पाएगी...।
9 comments:
बोहोत खूब, बिलकुल सही कहा, शायद ऐसा हो कुछ समय बाद हमे ये रियेलैज़ हो की भाई दरभंगा या मधुबनी का काली मंदिर चौक वाकई रहने के लिए सबसे बढ़िया जगह थी. या मेरे केस में मेरा पंजाब का गांव ले लो... हा हा हा ...राजेश
यदि आपके पास फुरसत हो तो इस पोस्ट को देख लिजिएगा -
http://karmnasha.blogspot.com/2010/06/blog-post_19.html
इसका (भी) शीर्षक है-
'के पतिआ लए जाएत रे मोरा प्रियतम पास'
बहुत खूब राजीव... लेकिन भाषा कहीं दम तोड़ रही है तो उसमें ग्लोबलाइजेशन का कम हमारा दोष कहीं ज्यादा है। हम अंग्रेजी और हिंदी के साथ मैथिली या अंगिका को क्यों भूलने को मजबूर हो गएं हैं... अंग्रेजी या हिंदी सिखने की ये शर्त तो नहीं है कि हम अपनी मातृभाषा को भूल जाएं। दरअसल ये कमी हमारी है.. ये कमी उस मानसिकता की है जो किसी भाषा के साथ अपने जुड़ने या कटने से अपनी तरक्की या पिछड़पन को देखती है। बढ़िया कोशिश छौ..
धीरज जी से सहमत हूँ।
@ लोगों को ये बताते हुए शर्म आती है कि उनका घर सहरसा या दरभंगा है।
मुझे भी बहुत दिनों तक समझ में नहीं आया कि बिहार से बाहर करीब सभी बिहारवासी अपने को पटना का ही क्यों बताते हैं ?
ham to garb ke saath batate hain ki darbhanga mera mayeka hai aur patna sasural.
सुन्दर लेखन, निज भाषा के लिए जो जज्बात आप के शब्दों में परिलक्षित हो रहे हैं, वह अतुलनीय हैं।
aap bahut shaandaar likhte hai. aise khuubsuurat lekhan shaile ke liye mubaarkaa.....
बहुत बढ़िया लेखन और शैली भी! यह प्रश्न तो पूरे भारत की सांस्कृतिक एवम धार्मिक परम्पराओं के लिए खड़ा है! इसके इतर में तो हर जगह यही पा रहा हूँ कि मैकडोनाल्ड और जैक्सन की विरासत हर देश की हर संस्कृति की परम्पराओं को लील गयी है!
भैया जहु नसीबु हरि जमीनी भाषा को हई। सिरिफ तुमहीं नाइ बहुतेरे परेशान हईं।
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