"वो खाली आँगन, उजड़ी कलियाँ।
वो वीरान बगीचे, बेरंग तितलियाँ।।
न जाने आज फिर क्यों याद आए।
वो खाली रस्ते, वो सूनी गलियाँ।।"
वो वीरान बगीचे, बेरंग तितलियाँ।।
न जाने आज फिर क्यों याद आए।
वो खाली रस्ते, वो सूनी गलियाँ।।"
आज बहुत दिनों के बाद यकायक अपने गाँव की याद आ गई। एक अरसा हो गया गाँव गए हुए। इस दौरान जीवन पटना-दिल्ली के बीच की पैसेंजर ट्रेन बनकर रह गया है। समय कैसे फिसलता चला गया, पता ही नहीं चला। पहले पढ़ाई, फिर नौकरी की तालाश। और जब नौकरी मिल गई तो फ़ुरसत की तलाश। याद भी तब आई जब कल रात अपने छत पर चाँद नज़र आया। वही चाँद जो गाँव में गाहे-बगाहे रोज़ नज़र आता था, आज वर्षों बाद छत पर फिर मिला। सर्दी में मेरी तरह वह भी ठिठुर रहा था।
गाँव में दादी रहती है जो अब काफ़ी बूढ़ी हो गई है। लगभग सत्तर पार। बाबा के गुज़र जाने के बाद उस हवेलीनुमा घर में पता नहीं अकेले कैसे अपना समय गुज़ार रही है। कहने को तो बुढिया को ईश्वर ने दो बेटे, तीन बेटियाँ और लगभग दर्जन भर नाती-पोते दिए है। लेकिन फिर भी वो उस चाँद के मानिंद ही तनहा है। माँ कहती है कि दादी का पटना में मन नहीं लगता है। उसे गांव ही रास आता है। साल में एक-दो बार पेंशन लेने पटना आती है और पैसा मिलते ही फिर उसे कुल देवता याद आने लगते हैं। कहती है नौकर-चाकर के भरोसे देवता को नहीं छोड़ा जा सकता है। पता नहीं साँझ भी दिखाते होंगे कि नहीं! दरवाजे पर लालटेन भी जलाते होंगे कि नहीं! पता नहीं कैसे हमारी दादियाँ-नानियाँ अकेले गाँवों में अपना जीवन बिता रही हैं।
गाँव में दादी रहती है जो अब काफ़ी बूढ़ी हो गई है। लगभग सत्तर पार। बाबा के गुज़र जाने के बाद उस हवेलीनुमा घर में पता नहीं अकेले कैसे अपना समय गुज़ार रही है। कहने को तो बुढिया को ईश्वर ने दो बेटे, तीन बेटियाँ और लगभग दर्जन भर नाती-पोते दिए है। लेकिन फिर भी वो उस चाँद के मानिंद ही तनहा है। माँ कहती है कि दादी का पटना में मन नहीं लगता है। उसे गांव ही रास आता है। साल में एक-दो बार पेंशन लेने पटना आती है और पैसा मिलते ही फिर उसे कुल देवता याद आने लगते हैं। कहती है नौकर-चाकर के भरोसे देवता को नहीं छोड़ा जा सकता है। पता नहीं साँझ भी दिखाते होंगे कि नहीं! दरवाजे पर लालटेन भी जलाते होंगे कि नहीं! पता नहीं कैसे हमारी दादियाँ-नानियाँ अकेले गाँवों में अपना जीवन बिता रही हैं।
मेरे गाँव में अब जवान नहीं रहते। गाँव तो बूढ़े-बूढ़ियों के लिए है। खाली आँखें, विरान दिल और थके बदन वाले बूढ़े। समय के सापेक्ष गाँव के कई बूढ़े मर गए, कई जवान बूढ़े हो गए। लेकिन पता नहीं गाँव का कोई बच्चा वहाँ जवान क्यों नहीं हुआ। पढ़े लिखे जवान दिल्ली-मुंबई आ गए है और जिन्हें पढ़ने का मौका नहीं मिला वो पंजाब-हरियाणा या फिर पश्चिमी उत्तर प्रदेश के खेतों में अपना पसीना बहा रहे हैं। शायद आठ-दस साल बाद मेरा गाँव सुनसान हो जाए। अब बूढ़े ही बूढ़ों को कंधा भी देने लगे हैं। पहले गाँव के जवान बच्चे होली, दशहरा या फिर आम के मौसम में गाँव जाते थे। अब शहरों में ही लोहड़ी, वेलेंटाईन डे या न्यू ईयर मना कर खुश हो लेते हैं। गाँव के आम-लीची भी अब लंबी सफ़र तय कर अमरीका-यूरोप जाने लगे हैं। आम अब खाने में अच्छा भी नहीं लगता है। चॉकलेट, पेस्ट्री, पिज़्जा दिल को रास आ गया है। बचपन की क़िताबों में गाँव में बसने वाला भारत अब इंडिया बन शहरों में रहने लगा है। वहीं जन्म लेता है, जवान होता है और फिर वहीं मर भी जाता है। यह कहानी सिर्फ़ मेरे गाँव की नहीं है। कमोबेश यही हालत राही मासूम रज़ा के गंगौली, नागार्जुन के तरौनी या फिर श्रीलाल शुक्ल के शिवपालगंज की भी है।
3 comments:
सच लिखा है दोस्त। गाँव सचमुच बूढ़ा हो चला है। बेहतरीन विश्लेषण
राजीव भाई पगडंडियाँ गाँव का साथ कभीं नहीं छोड़ती। हम-आप भी पगडंडी हैं जो गाँव से दूर भटक आए है। एक यकीन है कभी न कभी तो जरूर लौटेंगे।
कहते हैं जिस समाज में बुजुर्गों का सम्मान नहीं होता वो समाज ज्यादा दिनों तक नहीं बच सकता। हमारे देश में भी कुछ-कुछ ऐसा ही हो रहा है। रोजी-रोटी की मजबूरी जवानों को गाँवों से खींच लाया है। और वह शहरी सभ्यता में कुछ ऐसे गुम हुए हैं कि अपने अतीत को ही भूल गए हैं। अगर हम नहीं बदले तो शायद खत्म हो जाएंगे।
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