हम सबके ख़्वाब में एक शहर है। फैलता, सिमटता, बनता, उजड़ता शहर। लंबी-चौड़ी सड़कें, आकाश को चूमती इमारतें, नियॉन लाईटों से जगमग रातें। अंजान रास्ते और अजनबी लोग। नाम और जगह अलग-अलग हो सकते हैं। दिल्ली, मुंबई, न्यूयार्क, शिकागो, लंदन, संघाई, कुछ भी। लेकिन मिज़ाज एक। बढ़ते लोग, घिसटती जीवन, अमीर, गरीब सबका शहर। फुटपाथ पर चैन से सोने वालों से लेकर सेवन स्टार होटलों में नींद की गोलीयां गटकने वालों का शहर। फैलाव इतना कि इस साल के अंत तक दुनिया की आधी आबादी इनके अंदर सिमट आएगी।
यूरोप, उत्तरी अमरीका, कैरिबीयन और लैटिन अमरीकी देशों में पहले से ही आधी से ज्यादी आबादी शहरों में रह रही है। ऐशिया और अफ्रिकी देश ही इस श्रृखला के अपवाद है। अंधाधुंध शहरीकरण इधर भी हो रही है। अच्छी बात यह है कि दुनिया की अधिकतर लोग इन्हीं दोनों महादेशों में रहते है। दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा मुल्क भारत अपने जनसंख्या का महज़ 29 फ़ीसदी लोगों को शहरों में समेटे हुए है। आंकड़े बताते हैं कि 2050 में शहरी आबादी कुल जनसंख्या का 55 फ़ीसदी हो जाएगा।
शहरीकरण का रफ़्तार किसी भी देश के जीवंत और गतिशील अर्थव्यवस्था का परिचायक होता है। भारत में भी कुछ-कुछ ऐसा हो रहा है। यह भी सच है कि शहरीकरण से उदारीकरण होता है, और इससे जातीय रूढ़िवादिता और धार्मिक विश्वासों का खत्म करने के साथ-साथ आर्थिक स्वतंत्रता को बढ़ावा मिलता है। लेकिन मेरी चिंता शहरीकरण से नहीं है। मेरी चिंता का कारण विषम शहरीकरण है। क्या पटना, लखनऊ, भोपाल के शहरीकरण का रफ्तार दिल्ली या फिर मुंबई से मेल खाती है? नहीं न...। नतीजतन रोजी रोटी के लिए एक बिहारी, यूपी का मजदूर पटना के बजाय दिल्ली या मुंबई को प्राथमिकता देगा। बंगलोर, हैदराबाद या फिर पुणे में ऐसे लोगों के लिए रोजगार के अवसर भी कम हैं। किसी ज़माने में पूरब का वेनिस कहा जाने वाला कोलकाता तो रूरल डेवलपमेंट इंडेक्स में अपने राज्य के दुर्गापूर और बर्दमान से भी पीछे चल रहा है। अब सवाल उठता है- क्या हमारे गिने-चुने मेगासीटीज भविष्य में आने वाले लोगों को जीवन जीने के लिए जरूरी न्यूनतम सुविधा भी उपलब्ध करा सकेंगे। कम से कम मुझे तो ऐसा नहीं लगता। दिल्ली शहर जिसे हर बजट में सबसे अधिक अनुदान मिलता है उसकी हालत तो किसी से छुपी नहीं है। सड़क, बिजली, पानी जैसी मौलिक जरूरतों को भी पूरा कर पाने में सरकार दर सरकार विफल होती रही है। कॉमनवेल्थ से पहले कॉमन आदमी के बारे में भी तो कुछ सोचो। मुंबई में तो हालात और भी नरकीय है। हल्की सी बूंदा-बुंदी शहर मे सुनामी की सी मंज़र पैदा कर देती है। अच्छा कमाते हैं फिर भी चाउल में या दफ्तर से पचास-सौ किलोमीटर दूर रहने कि विवशता।
इस अंधाधुंध अरबनाईजेशन में संयुक्त परिवार की व्यवस्था का भी पतन हुआ है। इसके कारण सामाजिक सुरक्षा का आधार टूटा है। इसका सबसे गहरा प्रभाव वृद्धावस्था के लोगों पर पड़ा है। 30-35 साल बाद भारत की अधिसंख्य जनसंख्या बूढ़े लोगों की ही होगी। यानि हमारे जेनरेशन का। फिर क्या होगा।
जरूरी यह नहीं है कि तेज़ी से शहरीकरण हो। बल्कि सम-शहरीकरण हो। पटना, भोपाल, कटक, इलाहाबाद, नागपूर जैसे मझौले और छोटे शहरों में भी रोज़गार की संभावनों को बढ़ाया जाए। ये शहर भी हमारे ख़्वाबों का शहर बने। हम उसमें मुसाफ़िर की तरह नहीं आएं बल्कि उसके आगोश में खो जाएं....हमेशा, हमेशा के लिए।
यूरोप, उत्तरी अमरीका, कैरिबीयन और लैटिन अमरीकी देशों में पहले से ही आधी से ज्यादी आबादी शहरों में रह रही है। ऐशिया और अफ्रिकी देश ही इस श्रृखला के अपवाद है। अंधाधुंध शहरीकरण इधर भी हो रही है। अच्छी बात यह है कि दुनिया की अधिकतर लोग इन्हीं दोनों महादेशों में रहते है। दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा मुल्क भारत अपने जनसंख्या का महज़ 29 फ़ीसदी लोगों को शहरों में समेटे हुए है। आंकड़े बताते हैं कि 2050 में शहरी आबादी कुल जनसंख्या का 55 फ़ीसदी हो जाएगा।
शहरीकरण का रफ़्तार किसी भी देश के जीवंत और गतिशील अर्थव्यवस्था का परिचायक होता है। भारत में भी कुछ-कुछ ऐसा हो रहा है। यह भी सच है कि शहरीकरण से उदारीकरण होता है, और इससे जातीय रूढ़िवादिता और धार्मिक विश्वासों का खत्म करने के साथ-साथ आर्थिक स्वतंत्रता को बढ़ावा मिलता है। लेकिन मेरी चिंता शहरीकरण से नहीं है। मेरी चिंता का कारण विषम शहरीकरण है। क्या पटना, लखनऊ, भोपाल के शहरीकरण का रफ्तार दिल्ली या फिर मुंबई से मेल खाती है? नहीं न...। नतीजतन रोजी रोटी के लिए एक बिहारी, यूपी का मजदूर पटना के बजाय दिल्ली या मुंबई को प्राथमिकता देगा। बंगलोर, हैदराबाद या फिर पुणे में ऐसे लोगों के लिए रोजगार के अवसर भी कम हैं। किसी ज़माने में पूरब का वेनिस कहा जाने वाला कोलकाता तो रूरल डेवलपमेंट इंडेक्स में अपने राज्य के दुर्गापूर और बर्दमान से भी पीछे चल रहा है। अब सवाल उठता है- क्या हमारे गिने-चुने मेगासीटीज भविष्य में आने वाले लोगों को जीवन जीने के लिए जरूरी न्यूनतम सुविधा भी उपलब्ध करा सकेंगे। कम से कम मुझे तो ऐसा नहीं लगता। दिल्ली शहर जिसे हर बजट में सबसे अधिक अनुदान मिलता है उसकी हालत तो किसी से छुपी नहीं है। सड़क, बिजली, पानी जैसी मौलिक जरूरतों को भी पूरा कर पाने में सरकार दर सरकार विफल होती रही है। कॉमनवेल्थ से पहले कॉमन आदमी के बारे में भी तो कुछ सोचो। मुंबई में तो हालात और भी नरकीय है। हल्की सी बूंदा-बुंदी शहर मे सुनामी की सी मंज़र पैदा कर देती है। अच्छा कमाते हैं फिर भी चाउल में या दफ्तर से पचास-सौ किलोमीटर दूर रहने कि विवशता।
इस अंधाधुंध अरबनाईजेशन में संयुक्त परिवार की व्यवस्था का भी पतन हुआ है। इसके कारण सामाजिक सुरक्षा का आधार टूटा है। इसका सबसे गहरा प्रभाव वृद्धावस्था के लोगों पर पड़ा है। 30-35 साल बाद भारत की अधिसंख्य जनसंख्या बूढ़े लोगों की ही होगी। यानि हमारे जेनरेशन का। फिर क्या होगा।
जरूरी यह नहीं है कि तेज़ी से शहरीकरण हो। बल्कि सम-शहरीकरण हो। पटना, भोपाल, कटक, इलाहाबाद, नागपूर जैसे मझौले और छोटे शहरों में भी रोज़गार की संभावनों को बढ़ाया जाए। ये शहर भी हमारे ख़्वाबों का शहर बने। हम उसमें मुसाफ़िर की तरह नहीं आएं बल्कि उसके आगोश में खो जाएं....हमेशा, हमेशा के लिए।
7 comments:
भाई राजीव, आपकी चिंताएं जायज हैं। मैं भी यूएन के रिपोर्ट को पढ़कर चौंका। हमारे अर्बन प्लानिंग में सबसे बड़ा दोष यही रहा है। संसाधनों को कुछ ही शहरों में झोंक दिया गया। नतीजतन जंसंख्या भी वहीं सिमट आया। यही समस्या चीन में भी हो रही है। लेकिन वहाँ भारत जैसा लोकतंत्र नहीं है कि इस विषय पर खुलकर विमर्श हो सके।
शहर में अपराधीकरण की प्रक्रिया व्यापक होने के कारण प्रौढ़ अवस्था के लोगों को खास तौर से निशाना बनना पड़ता हैं शहरीकरण की प्रक्रिया प्रबल होने के कारण सामाजिक रिश्तों में घोर परिवर्तन आया है।
राजीव जी, शहरीकरण के संस्कृति पर प्रभाव को समझने के लिए दो बातों पर ध्यान देना जरूरी है। पारंपरिक रूप से लोग गांव से छोटे शहरों या कस्बों में पलायन करते थे और बाद में बड़े शहरों की आ॓र रूख किया जाता था। लेकिन उदारीकरण के कारण जिस तरह से जीवन साधन कमजोर हुए हैं, लोगों को सीधे बड़े शहरों की आ॓र पलायन करना पड़ रहा है। इसका परिणाम यह हुआ है कि आज बड़े शहरों में जनसंख्या का बहुत बड़ा हिस्सा पहचानहीन हो गया है। इसी कारण यदि एक तरफ शहरी जिन्दगी में अराजकता बढ़ी है तो दूसरी आ॓र धार्मिकता प्रबल हुई है। अपनी पहचानहीनता और अकेलेपन पर काबू पाने के लिए आदमी धार्मिक संस्थाओं से अपने को जोड़ रहा है। राजधानी काहिरा की पृष्ठभूमि पर लिखी उपन्यास-त्रयी ‘कायरो ट्रिलजी’ को पढ़े। शहरीकरण का असली मर्म पता चल जाएगा। ऐसे लेख का टाईटल बेहद अच्छा लगा...ख्वाब-ए-शहर। परदेश से..आपका।
डा. ब्रजेश प्रियदर्शी
रीडर, एंसिऐंट ऐशियन फिलास्फी
काहिरा विश्वविद्यालय
काहिरा (मिस्र)
आदरणीय ब्रजेश जी, आपका कमेंट यथार्थ के करीब है। दूसरी बात आप मेरे ख़्वाब-ए-शहर के प्रवासी हैं। काहिरा मेरे लिए सिर्फ़ मिस्र की राजधानी नहीं रही है। ये वो शहर है जहां कम से कम एक बार जाना मेरा सपना रहा है। सोचते रहता हूं कि भारत से युरोप जाते वक्त फ्लाईट से कायरो का नज़ारा कैसा होता होगा। नील नदी कैसी दिखेगी। बचपन से इस शहर के बारे में बहुत पढ़ा है। रमसेस स्ट्रीट, कायरो यूनिवर्सिटी, हैंगिंग चर्च, कायरो टावर, इब्न तलुन मस्जिद और भी बहुत कुछ देखना है। आपकी बताई हुई किताब का तीसरा भाग सुगर स्ट्रीट मैंने पटना विश्वविद्यालय पुस्तकालय में पढ़ा है। बल्कि उसी किताब के माध्यम से वहाँ के कई फेयरी टेल्स के बारे में भी जाना। अन्य दो भाग वहाँ उपलब्ध नहीं थे। शायद यहाँ भारत के जेएनयू पुस्तकालय में मिल जाए। आप आपना ई-मेल उपलब्ध करा दें। कभी कायरो आना हुआ तो जरूर मिलुंगा। आपका.....राजीव
राजीव जी, आप मुझे priyadarshibrajesh@gmail.com/ brajesh@cairo.edu पर मेल भेज सकते हैं।
Cairo day trip with us
http://www.letsexploreegypt.com/Cairo-Day-Tours/
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