अब भैया इसमें कौउन सी ग़लत बात है....यूपी के हैं, और हिंदी में बतियाया करेंगे...वो तो करेंगे ही। यूपी, बिहार, एमपी, राजस्थान...कहीं के हों, हिंदी तो राष्ट्रभाषा है। इसमें कोई बात करता है तो राज ठाकरे क्यों सुलग जाते हैं। और हिन्दू ह्रदयसम्राट शिवसेना प्रमुख माननीय श्री श्री 1008 बालासाहेब ठाकरे जी महाराज, सामना के संपादकीय में लिखते हैं कि "दक्षिण भारत के राज्यों में पिछले 60 वर्षों से हिंदी विरोध की मुहिम चल रही है। तमिलनाडु में हिंदी फ़िल्मों पर प्रतिबंध है। असम में हिंदी भाषियों की हत्या कर ही दी जाती है......तो भला यूपी वालों को गरिया ही दिया तो क्या जुलुम हो गया....अब उन्हें समझाने की हिम्मत कौन करेगा कि तमिलनाडु में हिंदी विरोध दम तोड़ रहा है और असम में बिहारी मजदूरों की हुई हत्या के पीछे भाषा से अधिक आर्थिक कारण ज़िम्मेवार थे।
दरअसल बाल और राज वही कर रहे हैं जिसमें उन्हें अपना व्यक्तिगत फ़ायदा दिख रहा है। आम "मराठी मानुष" को हिंदी, मराठी, तेलगु, कन्नड़ के झगड़े से कुछ लेना देना नहीं। चाचा-भतीजावा सिर्फ़ और सिर्फ़ चुनावी लाभ के लिए ही क्षेत्रीय और भाषाई घृणा के बीज बो रहे हैं। चुनाव में इस ज़हर से निकली फसल जो काटनी है। दशकों पहले इस खेल को श्रीमान बालासाहेब जी महाराज ने ही शुरू किया था। तब से अब तक मराठी राष्ट्रीयता, धर्म और भाषा के खतरनाक समीकरण को समय दर-समय वे अपने फायदे के लिए भुनाते आ रहे हैं।
चाचा और भतीजे में रंजिश है। लेकिन चाचा की नकल करके भतीजा उनसे भी दो कदम आगे निकल जाना चाहता है। भतीजवा चाहता है कि चाचा की जमीन हड़प लें, चचा बूढ़ा हो गया है और उसका बेटवा नालाईक है। "मराठी मानुष" कार्ड में दोनों को तुरुप-का-इक्का दिख गया है। बाल और उनके वारिस उद्धव से आगे निकलने के उतावलेपन में राज अत्यंत संकीर्ण हो गए हैं। उत्तर भारत के प्रवासी मजदूरों नें आख़िर उनका क्या बिगाड़ा है, लेकिन बिचारे फिर भी पिट रहे हैं। मराठी भाषा को सभी स्कूलों में अनिवार्य बनाने से क्या मिलेगा भाई, अंग्रेज़ी, कंप्यूटर तो समझ में आता है कि उससे रोजगार मिलेगा...लेकिन मराठी। साईनबोर्ड मराठी में हो.....क्यों भाई, आपकी मराठी संस्कृति और भाषा इतनी कमजोर तो नहीं है कि वो मराठी साईनबोर्ड के भरोसे ज़िंदा रहे। अमिताभ और शाहरुख से आपकी क्या दुश्मनी है, उन्होंने तो आपके मुंबई को एक मुक्कमल पहचान दी है। आप दोनों चाचा-भतीजा पब्लिशिटी के भूखे हैं, शायद इसलिए बच्चनमा आपके हिट लिस्ट में हैं।
अगर मैं मुख्यमंत्री होता तो आप दोनों पर एनएसए, पोटो, गुंडा एक्ट लगाकर ऐसा इलाज़ करता कि....। लेकिन कांग्रेसियन चुप है। विलासराव को इसमें अपना फ़ायदा दिख रहा है। दोनों लड़ें-बढ़िया बात है। आप-दोनों के वोट बेंक को बांटकर कांग्रेस अगले पांच साल तक फिर से सत्ता के सुख को भोगने की तैयारी कर रही है। ठाकरे जी, जनता को विकास चाहिए, राजनीतिक स्वार्थ नहीं....उसे रोज़गार चाहिए....अच्छी सड़के, सुविधायुक्त अस्पताल भी वोट दिलवा सकती है। बिहार को भूल गए। कुछ सबक अपने विरोधी लालू जी से सीख लीजिए। सिखने में कोई हर्ज़ नहीं है। विकास के आभाव में जनता नें उनकी सारी एम-वाई समीकरण की ऐसी तैसी कर दी।
केंद्र सरकार क्यों तमाशाबीन बनी हुई है। "भारतीय संघ" को आतंकवाद से ज्यादा खतरा इस ठाकरे "कबीले" से है। यहाँ यह जान लेना भी दिलचस्प होगा कि डॉ। अम्बेडकर (जो ख़ुद एक मराठी थे), ने भाषाई आधार पर राज्यों के गठन के संबंध में क्या कहा था- "भाषाई राज्यों पर विचार", 1955 में प्रकाशित अपने इस लेख में डॉ. अम्बेडकर लिखते हैं कि "एक राज्य, एक भाषा हरेक राज्य के लिए सार्वभौमिक सत्य है। जर्मनी, फ्रांस, ईटली, ब्रिटेन, यहाँ तक की अमरीका में भी ऐसा ही हुआ है। अम्बेदकर आगे लिखते हैं कि "भाषाई आधार पर राज्यों के पुनर्गठन की पैरवी वे इसलिए कर रहे हैं क्योंकि अच्छे प्रशासन और सांस्कृतिक-जातीय तनाव से बचने के लिए यह जरूरी है"।
अम्बेदकर ने एक सुशासित भारत का सपना देखा था, जिसमें जाति, वर्ण, हैसियत विकास की राह में रोड़ा न हो। उनका मानना था कि भाषाई आधार पर राज्यों के गठन से लोग आम-भाषा और संस्कृति द्वारा एक दूसरे से जुड़े रहेंगे। हलांकि, अम्बेदकर के इस मॉडल के अपने ख़तरे भी थे और इस बात को वो भली-भांति समझते भी थे। उनके अनुसार, "भाषाई आधार पर राज्यों के गठन के बाद प्रत्येक राज्य की अपनी-अपनी अलग आधिकारिक और क्षेत्रीय भाषा होगी। इससे हरेक राज्य की अपनी एक स्वतंत्र पहचान बन जाएगी और स्वतंत्र पहचान कब स्वतंत्र राज्य की मांग में बदल जाए, कहना मुश्किल है। फिर भारत टूट भी सकता है।"
फिर भी , अम्बेडकर भाषाई आधार पर राज्यों के विभाजन के विराधी नहीं थे। उनकी सोच थी कि ख़तरा भाषाई और गैर-भाषाई, दोनों आधारों पर राज्यों के विभाजन से हो सकता है। भाषाई आधार पर होने वाले ख़तरों से तो एक बुद्धिमान राजनेता देश को बचा लेगा लेकिन मिश्रित भाषाओं के आधार पर राज्यों के विभाजन के ख़तरे अधिक हैं, और ऐसी स्थिति में यह प्रशासन के नियंत्रण से बाहर भी जा सकता है।
शायद इसलिए इन निहित ख़तरों से बचने के लिए ही अम्बेदकर ने संविधान में क्षेत्रीय भाषा को राज्य के आधिकारिक भाषा से अलग रखने की बात की थी। साथ ही राष्ट्रभाषा के रूप में हिंदी की अनुशंसा की गई। एक भाषा लोगों को जोड़ती है, दो भाषाएं उन्हें विभाजित करती है....यह प्रकृति का नियम है।
दिलचस्प है कि अम्बेदकर ने यह भी कहा था कि अगर कोई भारतीय संविधान में लिखित इस भाषाई प्रस्ताव को स्वीकार नहीं करता है तो उसे भारतीय कहलाने का कोई अधिकार नहीं है। ऐसा व्यक्ति सौ प्रतिशत मराठी, तमिल या गुजराती तो हो सकता है लेकिन भारतीय वह सिर्फ़ भौगोलिक आधार पर ही होगा। आत्मिक आधार पर नहीं॥।
हालांकि, बाबासाहेब नें यह तो कहीं नहीं कहा था कि ठाकरे-बाल , उद्धव और राज सिर्फ़ भौगोलिक दृष्टि से भारतीय हैं। लेकिन अम्बेदकर के फार्मूले पर चाचा-भतीजा, भारतीय कहलवाने के अधिकार को तो खो ही चुके हैं। अब समय आ गया है कि न्यायपालिका को देश की अखंडता के लिए आगे आना चाहिए और विभाजनकारी राजनीति के इन ब्रांड एंबेसडरों को ऐसी सबक सीखानी चाहिए की यह एक मिसाल बन जाए।
दरअसल बाल और राज वही कर रहे हैं जिसमें उन्हें अपना व्यक्तिगत फ़ायदा दिख रहा है। आम "मराठी मानुष" को हिंदी, मराठी, तेलगु, कन्नड़ के झगड़े से कुछ लेना देना नहीं। चाचा-भतीजावा सिर्फ़ और सिर्फ़ चुनावी लाभ के लिए ही क्षेत्रीय और भाषाई घृणा के बीज बो रहे हैं। चुनाव में इस ज़हर से निकली फसल जो काटनी है। दशकों पहले इस खेल को श्रीमान बालासाहेब जी महाराज ने ही शुरू किया था। तब से अब तक मराठी राष्ट्रीयता, धर्म और भाषा के खतरनाक समीकरण को समय दर-समय वे अपने फायदे के लिए भुनाते आ रहे हैं।
चाचा और भतीजे में रंजिश है। लेकिन चाचा की नकल करके भतीजा उनसे भी दो कदम आगे निकल जाना चाहता है। भतीजवा चाहता है कि चाचा की जमीन हड़प लें, चचा बूढ़ा हो गया है और उसका बेटवा नालाईक है। "मराठी मानुष" कार्ड में दोनों को तुरुप-का-इक्का दिख गया है। बाल और उनके वारिस उद्धव से आगे निकलने के उतावलेपन में राज अत्यंत संकीर्ण हो गए हैं। उत्तर भारत के प्रवासी मजदूरों नें आख़िर उनका क्या बिगाड़ा है, लेकिन बिचारे फिर भी पिट रहे हैं। मराठी भाषा को सभी स्कूलों में अनिवार्य बनाने से क्या मिलेगा भाई, अंग्रेज़ी, कंप्यूटर तो समझ में आता है कि उससे रोजगार मिलेगा...लेकिन मराठी। साईनबोर्ड मराठी में हो.....क्यों भाई, आपकी मराठी संस्कृति और भाषा इतनी कमजोर तो नहीं है कि वो मराठी साईनबोर्ड के भरोसे ज़िंदा रहे। अमिताभ और शाहरुख से आपकी क्या दुश्मनी है, उन्होंने तो आपके मुंबई को एक मुक्कमल पहचान दी है। आप दोनों चाचा-भतीजा पब्लिशिटी के भूखे हैं, शायद इसलिए बच्चनमा आपके हिट लिस्ट में हैं।
अगर मैं मुख्यमंत्री होता तो आप दोनों पर एनएसए, पोटो, गुंडा एक्ट लगाकर ऐसा इलाज़ करता कि....। लेकिन कांग्रेसियन चुप है। विलासराव को इसमें अपना फ़ायदा दिख रहा है। दोनों लड़ें-बढ़िया बात है। आप-दोनों के वोट बेंक को बांटकर कांग्रेस अगले पांच साल तक फिर से सत्ता के सुख को भोगने की तैयारी कर रही है। ठाकरे जी, जनता को विकास चाहिए, राजनीतिक स्वार्थ नहीं....उसे रोज़गार चाहिए....अच्छी सड़के, सुविधायुक्त अस्पताल भी वोट दिलवा सकती है। बिहार को भूल गए। कुछ सबक अपने विरोधी लालू जी से सीख लीजिए। सिखने में कोई हर्ज़ नहीं है। विकास के आभाव में जनता नें उनकी सारी एम-वाई समीकरण की ऐसी तैसी कर दी।
केंद्र सरकार क्यों तमाशाबीन बनी हुई है। "भारतीय संघ" को आतंकवाद से ज्यादा खतरा इस ठाकरे "कबीले" से है। यहाँ यह जान लेना भी दिलचस्प होगा कि डॉ। अम्बेडकर (जो ख़ुद एक मराठी थे), ने भाषाई आधार पर राज्यों के गठन के संबंध में क्या कहा था- "भाषाई राज्यों पर विचार", 1955 में प्रकाशित अपने इस लेख में डॉ. अम्बेडकर लिखते हैं कि "एक राज्य, एक भाषा हरेक राज्य के लिए सार्वभौमिक सत्य है। जर्मनी, फ्रांस, ईटली, ब्रिटेन, यहाँ तक की अमरीका में भी ऐसा ही हुआ है। अम्बेदकर आगे लिखते हैं कि "भाषाई आधार पर राज्यों के पुनर्गठन की पैरवी वे इसलिए कर रहे हैं क्योंकि अच्छे प्रशासन और सांस्कृतिक-जातीय तनाव से बचने के लिए यह जरूरी है"।
अम्बेदकर ने एक सुशासित भारत का सपना देखा था, जिसमें जाति, वर्ण, हैसियत विकास की राह में रोड़ा न हो। उनका मानना था कि भाषाई आधार पर राज्यों के गठन से लोग आम-भाषा और संस्कृति द्वारा एक दूसरे से जुड़े रहेंगे। हलांकि, अम्बेदकर के इस मॉडल के अपने ख़तरे भी थे और इस बात को वो भली-भांति समझते भी थे। उनके अनुसार, "भाषाई आधार पर राज्यों के गठन के बाद प्रत्येक राज्य की अपनी-अपनी अलग आधिकारिक और क्षेत्रीय भाषा होगी। इससे हरेक राज्य की अपनी एक स्वतंत्र पहचान बन जाएगी और स्वतंत्र पहचान कब स्वतंत्र राज्य की मांग में बदल जाए, कहना मुश्किल है। फिर भारत टूट भी सकता है।"
फिर भी , अम्बेडकर भाषाई आधार पर राज्यों के विभाजन के विराधी नहीं थे। उनकी सोच थी कि ख़तरा भाषाई और गैर-भाषाई, दोनों आधारों पर राज्यों के विभाजन से हो सकता है। भाषाई आधार पर होने वाले ख़तरों से तो एक बुद्धिमान राजनेता देश को बचा लेगा लेकिन मिश्रित भाषाओं के आधार पर राज्यों के विभाजन के ख़तरे अधिक हैं, और ऐसी स्थिति में यह प्रशासन के नियंत्रण से बाहर भी जा सकता है।
शायद इसलिए इन निहित ख़तरों से बचने के लिए ही अम्बेदकर ने संविधान में क्षेत्रीय भाषा को राज्य के आधिकारिक भाषा से अलग रखने की बात की थी। साथ ही राष्ट्रभाषा के रूप में हिंदी की अनुशंसा की गई। एक भाषा लोगों को जोड़ती है, दो भाषाएं उन्हें विभाजित करती है....यह प्रकृति का नियम है।
दिलचस्प है कि अम्बेदकर ने यह भी कहा था कि अगर कोई भारतीय संविधान में लिखित इस भाषाई प्रस्ताव को स्वीकार नहीं करता है तो उसे भारतीय कहलाने का कोई अधिकार नहीं है। ऐसा व्यक्ति सौ प्रतिशत मराठी, तमिल या गुजराती तो हो सकता है लेकिन भारतीय वह सिर्फ़ भौगोलिक आधार पर ही होगा। आत्मिक आधार पर नहीं॥।
हालांकि, बाबासाहेब नें यह तो कहीं नहीं कहा था कि ठाकरे-बाल , उद्धव और राज सिर्फ़ भौगोलिक दृष्टि से भारतीय हैं। लेकिन अम्बेदकर के फार्मूले पर चाचा-भतीजा, भारतीय कहलवाने के अधिकार को तो खो ही चुके हैं। अब समय आ गया है कि न्यायपालिका को देश की अखंडता के लिए आगे आना चाहिए और विभाजनकारी राजनीति के इन ब्रांड एंबेसडरों को ऐसी सबक सीखानी चाहिए की यह एक मिसाल बन जाए।
19 comments:
सही लिखा है, ये दोनों कश्मीरी आतंकवाद से भी खतरनाक परंपरा की नींव डाल रहे हैं। इन्हें जल्द से जल्द रोका जाना चाहिए।
भाई बच्चनवा डर गया है, माफी मांग ली।
It is distressing that certain local political formations in Maharashtra succumb to the temptation of parochialism every once in a while by projecting non-existent antagonism between ‘natives’ and ‘outsiders’. Invariably, it is Mumbai, India’s first and still the most cosmopolitan city, which bears the brunt of their insularity. In the 1960s, their target was Dakshin Bharatiyas (South Indians). Now, resentment is sought to be whipped up against Uttar Bharatiyas (North Indians). SHAME...!
इन फिरकापरस्त ताक़तों को काला पानी भेज देना चाहिए।
आम आदमी चोजी कर ले तो उसे महीनो ही जेल हो जाती है। कीसी को पीटे तो जान से मारने की भी धारा लग गर कई सालो तक जेल मे रहना पडता है। पर ये तो खूलेयाम कर रहे हैं और कोई रोकने वाला भी नही।
हिंद देश के निवासी सभी जाना एक हैं, रंग-रूप वेश-भाषा चाहे अनेक हैं.....कितने आदर्श सोच के साथ इसे लिखा गया होगा। लेकिन आज देखिए तो, हम भाषा के आधार पर एक-दूसरे के ख़ून पीने को तैयार हो जाते हैं। अब तो न्यायपालिका से ही उम्मीद बाकी है। राजनेता जनता का विश्वास खो चुके हैं।
हमने तो कभी नहीं कहा की ये सेंचूरी सचिन की है, इसलिए हम जश्न नहीं मनाएंगे। स्मिता पाटिल या आमोल पालेकर की फिल्म हमें आज भी खींच लेता है। ठाकरे कुनबे के साथ नाना पाटेकर को भी शर्म आनी चाहिए। वो भी क्षेत्रवाद को खूब हवा देते हैं। यूपी या बिहार वाले उनकी फिल्मों को देखना बंद कर दें, फिर क्या होगा। इस तरह की घटना वाकई शर्मनाक है।
Sahi kah rahe ho Rajiv, Agar ye dono purvee U.P. main hote to bus...
सभी राजनेताओं का वैसा ही हाल है।
भाई, राजीव जी,
नमस्कार
"हम यूपी के हैं, हमें हिंदी में बात करेंगे" कहकर कहीं आप वही गलती नहीं कर रहे, जो जया बच्चन ने की. और कहीं आप राज ठाकरे की ही राह पर चलने की पैरवी नहीं कर रहे हैं. कृपया, भाषा, धर्म व क्षेत्र के नाम पर अखंड हिंदुस्तान को न बांटें.
उदय केसरी
इनके पास खोने को कुछ हैं नहीं क्योंकि जीवन में ये कुछ पा पाए नहीं। जल्द इनको रोका ना गया तो ये जरूर पिटवा कर मानेंगे दो चार मराठियों को देश के कोने कोनें में।
मैंने भी इस पर लिखा है पढ़ सकते हैं।
http://nitishraj30.blogspot.com
वैसे लगता नही की लोग अब इस तरह के भाषावाद के मुद्दे पर गुमराह होंगे . हाँ कुछ उनके समर्थक लोगों के द्वारा हिंसक विरोध का सहारा लेकर इसे राज्य मैं सर्वमान्य बनाने की कोशिश की जा रही है .
लेकिन हीन बोध क्यों हो कि हम यू पी के हैं तो हिन्दी में बोलेंगें -यह भुमिका जरूरी क्योह हो ! हम हिन्दी में बोलेंगे और अवश्य ्बोलेंगे क्योकि हम हिन्दुस्तानी हैं !
आपकी भावनाओं से पूर्णतः सहमत हूँ। पर हमारे मराठी भाई राज ठाकरे की इस देशद्रोही नीति के बारे में खुलकर सामने आते तो सही मायने में MNS की छुट्टी हो जाती।
उत्तम विचार है।
जनाब, लिखा तो आपने बहुत खूब है.. लेकिन एक बात है की हिंदी का दम भरने वाले उत्तर प्रदेश के लोग हिंदी नहीं जानते.. जैसे की आपके लेख में भी कई गलतियाँ हैं.. मुझे मालूम है की आप की परिपक्वता आपको इस टिप्पणी को अन्यथा में नहीं लेने देगी और आप बुरा नहीं मानेंगे..
हिंदी दिवस के लिए शुभकामनाएं
भाई,
आपकी भावनाओं से सौ प्रतिशत सहमत हूं। अब मीडिया, खास कर हिंदी मीडिया को भी चेत जाना चाहिए। जो ठाकरे जैसों की गालियां खाने के बाद भी उनका 'कवरामंडन' करने से बाज नहीं आती।
भाई,
आपकी राय बिल्कुल सही है। लेकिन 'ठाकरों' से ज़्यादा अफ़सोस तो जनता की चुनी हुई सरकार पर है... जो सिर्फ़ बयानों की जांच ही करती रहती है।
america and india are very much different in every aspect.they have one language , but we are not bound by a single language. they have one religion, but we dont have this either.america is a "melting pot" whereas india is a "salad bowl".its high time and our netas should understand that language cant be forced on anyone.some right wing nationalists tried to impose hindi in southern states in the early years after independence but in the process alienated whole of the south.we are in a democracy and we have the right to choose the language we want to speak.
good blog....
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