
अब मैं कमाने लगा हूं, बचपन की आदतें भी जस की तस हैं। बजट आज भी मेरे लिए पवित्र दिन है। ऐसा क्यूं है, आज तक नहीं समझ पाया हूं। इस बीच कई सरकारें बदली, कई वित्त मंत्री आए और गए, लेकिन उनकी बजट घोषणाओं से आज तक कोई सार्थक बदलाव मेरी ज़िदगी में नहीं आया। कुल मिलाकर एक रूपए का भी फ़ायदा नहीं हुआ है। वो चाहे फिर मनमोहन सिंह हो, प्रणब दा, चिदंबरम या यशवंत सिन्हा, किसी भी बजट के बाद मैं या मेरे जैसे आर्थिक-सामाजिक हालात के लोगों के मुंह से यह सुनने को नहीं मिला है कि, वाह, इस साल तो काफ़ी बचत हो जाएगी।

हमारे जैसे लोग, ख़ासकर वे जो नौकरी करते हैं.....मुझे लगता है, हम में से अधिकतर नौकरीपेशा ही हैं। हमारे लिए कमोबेश बॉटम लाईन यही है कि बजट से पहले या उसके बाद, हमारी ज़िंदगी मे कोई विशेष बदलाव नहीं आता। हमारा खर्चा बढ़ता ही है, कभी कम नहीं होता। प्रणव बाबू नौकरीपेशा लोग बड़े ही संतोषी है। हमने कभी नहीं कहा कि मंहगाई कम कर दो, वो आपके हाथ में है भी नहीं। कम से कम यथास्थिति की गारंटी तो आप दे ही सकते थे। हमारे लिए वही बहुत था। हम उसी में ख़ुश हो जाते।
हम जैसे लोगों की भी अजीब त्रासदी है। गजब पाखंडी हैं। बजट के दिन टीवी फुल वाल्युम में देखते हैं। मंत्री महोदय अपने उबाऊ भाषण को रोचक बनाने के लिए मंडेला, कबीर, गांधी, नेहरू सबके आदर्शों का ज़िक्र करना नहीं भूलते। किसी का फ़ोन आता है तो उसे तुरंत निपटा देते हैं, या फिर कॉल एटेंड करते ही नहीं, इस आशा में कि इस बार सरकार मेरे लिए भी कुछ करेगी। लेकिन अंत में वही ढ़ाक के तीन पात....”ब्रांडेड आभूषण पूरी तरह से उत्पाद शुल्क से मुक्त किया जा रहा है, लक्जरी कारों पर निर्यात शुल्क शुन्य होगा।“ फिर सरकार को गरियाते हैं...। साल दर साल यही होता आ रहा है। मेरे दादा जी भी यही करते होंगे, पिताजी को भी यही करते देखा है, मैं भी वही कर रहा हूं, मुझे यकीन है मेरे बच्चे भी ऐसा ही करेंगे।

शाम को दफ़्तर से घर के लिए निकलते ही बजट का असर दिख जाता है। ऑटो वाला अचानक अधिक किराया मांगने लगता है, पेट्रोल मंहगी हो गई है। सब्जी वाला कहता है, आज भर सस्ता ले लो, कल से दाम बढ़ जाएगा। फ्लैट के नीचे ही काम वाली मिल जाती है, कहती है, भैया भाव बढ़ गया है....इस महीने से चार्ज ज्यादा लगेगा। कुल मिलाकर पैसा 1 तारीख़ को एटीएम से आया और 20 तारीख़ आते-आते सब्जी वाला, दूध वाला, मकान मालिक, केबल वाला के हाथ चला गया। मैं माध्यम बन कर पैसे के इस लिक्विडिटी को देखता रहा।
तो बताईये न प्रणव बाबू....आपके इस भारी-भड़कम सूटकेश में मेरे लिए क्या था???? कुछ भी तो नहीं....। आख़िर क्यूं मैंने ग़लतफहमी पाल रखी थी..... हर बार क्यूं भूल जाता हूं....मैं या मेरे जैसे करोड़ों लोगों के लिए सरकार के पास मंहगाई के सिवा देने के लिए कुछ नहीं है....कुछ भी तो नहीं है।
2 comments:
एक आम आदमी की व्यथा को खूब उजागर किया आपने
बढ़िया
good post...reality of common man.
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