Tuesday, July 7, 2009

प्रणव बाबू...कुछ बचा सो मंहगाई मार गई।

जब से होश संभाला है, बजट को बहुत गौर से देखता हूं। बचपन में पिता जी बजट देख कर प्लान बनाते कि फलां चीज सस्ती हो गई है, अब ख़रीदा जा सकता है। मां को हिदायत देते, तेल मंहगी हो गई है, थोड़ा संभल कर खर्च करो। शाम में यूनिवर्सिटी के प्रोफ़ेसरों का घर पर मजमा लगता। पिताजी उनके साथ राजकोषीय घाटा, आयात-निर्यात, “पैसा कहां से आया, कहां गया” जैसे गुढ़ विषयों पर बहस करते। मेरे पल्ले कुछ नहीं पड़ता। थोड़ा बड़ा हुआ, आर्थिक विषयों पर समझ बढ़ी, तो मैं भी उस बहस में हिस्सा लेने लगा। लेकिन बजट घोषणाओं का मेरे व्यक्तिगत स्वास्थय पर कोई असर नहीं हुआ। ये भी सोचता था, कि पिताजी बजट को लेकर इतने उत्साहित क्यूं रहते हैं।

अब मैं कमाने लगा हूं, बचपन की आदतें भी जस की तस हैं। बजट आज भी मेरे लिए पवित्र दिन है। ऐसा क्यूं है, आज तक नहीं समझ पाया हूं। इस बीच कई सरकारें बदली, कई वित्त मंत्री आए और गए, लेकिन उनकी बजट घोषणाओं से आज तक कोई सार्थक बदलाव मेरी ज़िदगी में नहीं आया। कुल मिलाकर एक रूपए का भी फ़ायदा नहीं हुआ है। वो चाहे फिर मनमोहन सिंह हो, प्रणब दा, चिदंबरम या यशवंत सिन्हा, किसी भी बजट के बाद मैं या मेरे जैसे आर्थिक-सामाजिक हालात के लोगों के मुंह से यह सुनने को नहीं मिला है कि, वाह, इस साल तो काफ़ी बचत हो जाएगी।

हम साल दर साल, पिछले वर्ष की तुलना में अधिक पैसा ख़र्च करते हैं। अब इसी बजट को ले लीजिए, एलसीडी मॉनिटर सस्ती हुई भी नहीं, कि मेरे इंटरनेट वाले ने अपना किराया बढ़ा दिया। चाय की पत्ती सस्ती हो गई है, लेकिन दूध का दाम आसमान छू रहा है। कार की क़ीमत घट गई है, पेट्रोल चार रूपए मंहगी हो गई। मेरे जैसे लोगों के लिए आयकर की सीमा में 10 हज़ार की बढ़ोत्तरी कर दी गई है, इससे मैं साल भर में करीब 1200 रूपए बचा लुंगा। ठीक इसके समानांतर समय में मैं 6 से 8 हज़ार ज्यादा खर्च करूंगा, क्योंकि सीएनजी 2 रूपए मंहगी हो गई है। कटवारिया से विडियोकॉन टॉवर पहले 75 रुपए में पहुंच जाता था, अब 90 रूपए लगता है। दिल्ली जैसे शहरों में सब्जी ट्रकों से मंडी में आती है, डीजल मंहगी हो गई है। रोजमर्रा के इस्तेमाल में आनेवाली आलू, भींडी, टमाटर भी 5 से 8 रुपए तक मंहगी हो गई है।

हमारे जैसे लोग, ख़ासकर वे जो नौकरी करते हैं.....मुझे लगता है, हम में से अधिकतर नौकरीपेशा ही हैं। हमारे लिए कमोबेश बॉटम लाईन यही है कि बजट से पहले या उसके बाद, हमारी ज़िंदगी मे कोई विशेष बदलाव नहीं आता। हमारा खर्चा बढ़ता ही है, कभी कम नहीं होता। प्रणव बाबू नौकरीपेशा लोग बड़े ही संतोषी है। हमने कभी नहीं कहा कि मंहगाई कम कर दो, वो आपके हाथ में है भी नहीं। कम से कम यथास्थिति की गारंटी तो आप दे ही सकते थे। हमारे लिए वही बहुत था। हम उसी में ख़ुश हो जाते।
हम जैसे लोगों की भी अजीब त्रासदी है। गजब पाखंडी हैं। बजट के दिन टीवी फुल वाल्युम में देखते हैं। मंत्री महोदय अपने उबाऊ भाषण को रोचक बनाने के लिए मंडेला, कबीर, गांधी, नेहरू सबके आदर्शों का ज़िक्र करना नहीं भूलते। किसी का फ़ोन आता है तो उसे तुरंत निपटा देते हैं, या फिर कॉल एटेंड करते ही नहीं, इस आशा में कि इस बार सरकार मेरे लिए भी कुछ करेगी। लेकिन अंत में वही ढ़ाक के तीन पात....”ब्रांडेड आभूषण पूरी तरह से उत्पाद शुल्क से मुक्त किया जा रहा है, लक्जरी कारों पर निर्यात शुल्क शुन्य होगा।“ फिर सरकार को गरियाते हैं...। साल दर साल यही होता आ रहा है। मेरे दादा जी भी यही करते होंगे, पिताजी को भी यही करते देखा है, मैं भी वही कर रहा हूं, मुझे यकीन है मेरे बच्चे भी ऐसा ही करेंगे।

शाम को दफ़्तर से घर के लिए निकलते ही बजट का असर दिख जाता है। ऑटो वाला अचानक अधिक किराया मांगने लगता है, पेट्रोल मंहगी हो गई है। सब्जी वाला कहता है, आज भर सस्ता ले लो, कल से दाम बढ़ जाएगा। फ्लैट के नीचे ही काम वाली मिल जाती है, कहती है, भैया भाव बढ़ गया है....इस महीने से चार्ज ज्यादा लगेगा। कुल मिलाकर पैसा 1 तारीख़ को एटीएम से आया और 20 तारीख़ आते-आते सब्जी वाला, दूध वाला, मकान मालिक, केबल वाला के हाथ चला गया। मैं माध्यम बन कर पैसे के इस लिक्विडिटी को देखता रहा।

तो बताईये न प्रणव बाबू....आपके इस भारी-भड़कम सूटकेश में मेरे लिए क्या था???? कुछ भी तो नहीं....। आख़िर क्यूं मैंने ग़लतफहमी पाल रखी थी..... हर बार क्यूं भूल जाता हूं....मैं या मेरे जैसे करोड़ों लोगों के लिए सरकार के पास मंहगाई के सिवा देने के लिए कुछ नहीं है....कुछ भी तो नहीं है।

2 comments:

Anonymous said...

एक आम आदमी की व्यथा को खूब उजागर किया आपने
बढ़िया

sushant jha said...

good post...reality of common man.